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Ground Report : भागलपुर में सिल्क के तानी-भरनी के धागे की तरह गुंथे थे हिंदू-मुस्लिम, छूटा साथ तो बिखरा पेशा

Janjwar Desk
16 Oct 2020 9:39 AM GMT
Ground Report : भागलपुर में सिल्क के तानी-भरनी के धागे की तरह गुंथे थे हिंदू-मुस्लिम, छूटा साथ तो बिखरा पेशा
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भागलपुर के सिल्क व हैंडलूम कारोबार को नुकसान पहुंचने की है लंबी दास्तां, पाॅवरलूम के आधुनिकीकरण में पिछड़ने, चीन व कोरियाई सिल्क को खपाने वाले सिंडिकेट की साजिश, बुनकरों के आंदोलन को ध्वस्त करने, 1989 के भागलपुर के दंगों व सरकार की उपेक्षा से होते हुए यह कहानी जीएसटी तक पहुंचती है...

भागलपुर से राहुल सिंह की रिपोर्ट

जनज्वार। ओबेदुल्ला अंसारी से जब मैं यह सवाल करता हूं कि आप आपका परिवार कब से भागलपुरी कपड़ों (Bhagalpuri Silk) की बुनाई-कताई का काम करते हैं तो उनका जवाब होता है कि पुरखे करते आ रहे हैं। उनके पिता व दादा मो यासीन भी भागलपुर के नाथनगर इलाके की तंग गलियों में यही काम करते थे और अंग्रेज सरकार ने शानदार बुनायी के लिए उनके दादा को अवार्ड भी दिया था।

ओबेदुल्ला साहब अब इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हैं कि उनकी आने वाली पीढी भी यही काम करेगी ही। उनके एक बेटे ने एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी भी ज्वाइन कर ली है। वे इसे बताने में झिझकते हैं, क्योंकि ऐसा होने से खानदानी पेशा व अपना कारोबार धीरे-धीरे पीछे छूटता जाएगा।

इस सवाल पर की बिनाई-कताई का काम भागलपुर में क्यों सिकुड़ रहा है, उनके पास गिनाने को ढेरों कारण होते हैं। हालांकि प्राथमिक तौर पर इस सवाल का जवाब होता है: सेल नहीं है, पूंजी नहीं है, मार्केट नहीं है। लेकिन, बातचीत को आगे बढाने पर वे कई बारीकियां उधेड़ कर रख देते हैं।

ओबेदुल्ला अंसारी 50-55 साल के अतीत में जाते हैं और वहां से शुरुआत करते हैं और समस्या के उन मोड़ की चर्चा करते हुए आगे बढते चले जाते हैं। वे कहते हैं कि 1965-67 के करीब बुनकरों को काॅपरेटिव सोसाइटी से पाॅवरलूम मिला जो दरअसल पूरी तरह पाॅवरलूम था ही नहीं, उसमें एक मोटर लगा हुआ था। वे कहते हैं कि पाॅवरलूम क्या होता है, यह देखना है तो बेंगलुरु व दूसरे शहर में जाकर देखना चाहिए।

उस दौर में देश में बुनकरी के लिए मशहूर अन्य शहरों में इस पेशे के आधुनिकीकरण के लिए जो काम हुए, उसमें भागलपुर पिछड़ गया। फिर 1989 का साल आया, जब भागलपुर दंगों (Bhagalpur Riots) ने बुरी तरह इस पेशे को नुकसान पहुंचाया। दरअसल, दंगों की शुरुआत व उससे प्रभावित अधिकांश वे ही इलाके हुए जहां बुनकर अधिक संख्या में थे। बुनकरों के घरों, संपत्तियों व संसाधनों को भी नुकसान पहुंचाया गया।

1989 के अक्तूबर में शुरू हुआ दंगों का जलजला तो कुछ महीने बाद रूक गया लेकिन उसक भय व अविश्वास इस शहर पर सालों रहा।

पाॅवरलूम दिखाते ओबेदुल्लाह अंसारी। मांग कम होने से उनका संचालन भी उसी अनुपात में कम हो जाता है। फोटो : राहुल सिंह।

फिर आया देश में टैक्स सुधार का दौर - जीएसटी । ओबेदुल्ला अंसारी बताते हैं कि जीएसटी (GST) ने भागलपुर के बुनकरी के पेशे (GST Impact on Bhagalpuri silk industries) में छोटी पूंजी वालों को काफी नुकसान पहुंचाया। वे उदाहरण देकर कहते हैं - पहले कोई फेरी वाला पाॅवरलूम वाले के पास जाता था और जान-पहचान के आधार पर 10-15 हजार देकर उससे दोगुने का माल लेकर जाता था और फिर उसे कोलकाता, बनारस, दिल्ली, बंबई व हैदराबाद जैसे शहरों में व्यापारी के पास जाकर मोल-भाव कर बेच देता था, उससे उसे कमाई होती थी और फिर वापस आकर उधारी चुका देता था।

लेकिन अब टैक्स फाइल करने और जीएसटी दिखाने के इतने झंझट हैं कि हमारे जैसे लोगों को इससे दिक्कत होती है। पेचीदगी बढ जाने से फेरी वालों से लोगों का परहेज भी बढता गया और उनका रोजगार भी छीन गया। ऐसे लोगों की संख्या पूछने पर वे मोटे अनुमान के आधार पर 1000 के करीब संख्या बताते हैं। ये वे लोग हैं जो पहले फेरी किया करते थे, लेकिन अब नहीं करते। ऐसा करने वालों की संख्या अब बेहद कम हो गई है।

ऑनलाइन कारोबार की चर्चा छेड़ने पर ओबेदुल्लाह बताते हैं कि इससे लाॅकडाउन (Lockdown) के दौरान इस पेशे की कुछ हद तक जान बची। बाजार बंद रहने से ऑनलाइन मांग बढी। वे कहते हैं कि कुछ नए लड़के इस काम को अब यहां कर रहे हैं।

'89 के बाद शहर खत्म हो गया'

बुनकरी के पेशे को 1989 के दंगों ने बेइंतहा दर्द दिया। पाॅवरलूम चलाने वाले जफर इमाम बताते हैं : भागलपुर दंगा (Bhagalpur Riots Impact on Silk industries) के बाद काम बुरी तरह प्रभावित हुआ। 1989-90 के बाद इस धंधे में काफी गिरावट आयी।

जफर इमाम के जेहन में अब भी 24 अक्तूबर 1989 की शाम भड़के दंगे के याद ताजा है। उनकी कुछ संपत्तियों को भी नुकसान पहुंचाया गया था, जिसे बताने में वे संकोच करते हैं और कहते हैं छोड़िए न नुकसान हुआ था। उनका जोर बातचीत को उस कड़वी याद से दूसरी ओर मोड़ने पर या फिर पुराने जख्मों को न कुरेदने पर होता है।

हालांकि वे कुछ ब्राह्मण परिवारों की नेक नीयती की तारीफ करते हैं। वे कहते हैं कि वे लोग न सिर्फ हमें सतर्क करते थे, बल्कि अनाज व अन्य जरूरी सामग्री भी चुपके-चुपके हमारे पास पहुंचाते थे। बातचीत के दौरान उनके मुंह से एक पंक्ति निकलती है : 89 के बाद शहर खत्म हो गया।

अबेदुल्लाह अंसारी याद करते हैं : 1989 में ही मार्च में मेरी शादी हुई और उसी साल अक्तूबर में दंगे भड़क गए। मदनीनगर, हसनाबाद, नूरपुर, लोगांय, चंदेरी, सबौर व ततारपुर इलाके इसकी चपेट में आ गए।

पाॅवरलूम चलाने वाले जफर इमाम। दंगों में उपद्रवियों द्वारा इनकी संपत्ति को भी नुकसान पहुंचाया गया था।

दो लाख से 50 हजार लोग तक सिमटा पेशा

अबेदुल्लाह अंसारी कहते हैं कि बुनकरी का पेशा दो लाख लोगों से सीमट कर 50 हजार लोगों तक पहुंच गया हैं। अब इतने ही लोग इस पेशे से प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष तौर पर जु़ड़े हैं। वे कहते हैं कि मुसलिम व हिंदू दोनों समुदाय के लोग इस पेशे में हैं, हां, मुसलिमों की संख्या अधिक जरूर है।

मुसलिम समुदाय में अंसारी इस पेशे में मुख्य रूप से हैं और खान भी इस काम को करते हैं, जबकि हिंदू समुदाय में तांती जाति के लोग इस पेशे से प्रमुखता से जुड़े हैं। पासवान व कुछेक संख्या में यादव व दूसरे लोग भी इस काम को करते हैं।

यह पूछने पर कि एक बुनकर प्रतिदिन कितनी कमाई कर लेता है, ओबेदुल्ला अंसारी कहते हैं: काम चलने पर निर्भर करता है, अगर काम है तो 500-600 रुपये आराम से कमा लेगा, नहीं रहने पर आधी व उससे कम भी कमाई हो सकती है।

उनके अनुसार, एक पाॅवरलूम चलाने के लिए छह से सात लोगों की जरूरत होती है, क्योंकि पूरा काम अलग-अलग चरण से गुजरता है, जैसे : बाबिन, बार्पिंग, लूम चेक करना आदि।

मांग कम होने से त्योहारी सीजन में सिल्क उत्पादकों के पास कम काम है।

बुनकरी के पेशे में भी बिचैलियों को ही मोटी कमाई

बातचीत के दौरान एक कपड़े का टुकड़ा उठाकर दिखाते हुए ओबेदुल्लाह अंसारी कहते हैं कि देखिए हमारे यहां से यह 90 रुपये में जाएगा और बाजार में 500-600 रुपये में बिकेगा। इसी दौरान उनका एक सहयोगी कहता है कि अगर दुकान बड़ी होगी तो इसकी कीमत और अधिक हो जाएगी।

दरअसल, भागलपुर शहर में भी करीब 200 बड़े कारोबारी हैं जो सिल्क व अन्य किस्म के बुनकरी से अधिक कमाई करते हैं। उनके पास पूंजी होती है और वे बाजार में पैसा लगा सकते हैं। वे माल खरीद कर उसकी फिनिशिंग करवा कर बाहर बड़े कारोबारियों को उसे महंगी कीमत में बेचते हैं। सामान्य बुनकरों व पाॅवरलूम चलाने वालों को पास उतनी पंूजी नहीं होती है कि वे उसकी मार्केंटिंग कर सकें।

इस व्यवस्था को आप ऐसे समझें कि जिस तरह किसानों की उपज का वास्तविक मूल्य उन्हें न मिल कर व्यापारियों व बिचैलियों को यानी उसकी मार्केटिंग करने वालों को उसका लाभ होता है, उसी तरह कपड़ों को तैयार करने वालों से उसका कारोबार करने वाले सेठों को अधिक लाभ होता है।

कोविड से काफी नुकसान, सरकार दे कर्ज

बुनकरों के कल्याण के लिए बिहार में बिहार बुनकर कल्याण समिति नामक एक संगठन है, जिसके अध्यक्ष मुख्यमंत्री होते हैं। यह समिति बुनकरों की बेहतरी के लिए स्वतः या सिफारिश, सुझाव के आधार पर फैसले लेती है। इस मामले में हमने बिहार बुनकर कल्याण समिति के सदस्य व भागलपुर के स्थानीय बुनकरों के नेता अलीम अंसारी से संपर्क किया।

भागलपुर से बाहर होने के कारण उनसे प्रत्यक्ष मुलाकात नहीं हो सकी, लेकिन उन्होंने पूरे मुद्दे पर फोन पर विस्तार से बात की। अलीम अंसारी ने कहा कि कोविड के कारण बुनकरों को काफी नुकसान हुआ है।

अलीम अंसारी ने राज्य सरकार से यह मांग की है कि कोविड संकट (Covid19 Impact on Bhagalpur Silk industries) को देखते हुए बुनकरों को एक-एक लाख रुपये कर्ज दिया जाए और दो साल में उसे वापस लिया जाए। ऐसा करने से बुनकरों के पास नकदी प्रवाह होगा, जो कारोबार के लिए आवश्यक है।

वे कहते हैं कि राज्य सरकार उद्यमी प्रोत्साहन योजना के तहत 10 लाख तक का कर्ज और पांच लाख तक की सब्सिडी देती है तो यह कदम भी उठा सकती है। हालांकि चुनाव प्रक्रिया जारी होने की वजह से अब चुनाव बाद नई सरकार के गठन के बाद ही इस संबंध में कोई निर्णय लिया जा सकता है।

अलीम अंसारी कहते हैं कि सैकड़ों गांवों में हथकरघा पर कारीगर काम करते हैं और 10 हजार परिवार ऐसे हैं जिनकी हालत बद से बदतर हो गई है। इन्हें संरक्षण देना आवश्यक है।

इस सवाल पर कि क्या पार्टियों के घोषणा पत्र में बुनकरों को लेकर कुछ उल्लेख किया जाता है, वे कहते हैं ऐसा नहीं होता। वहीं, ओबेदुल्ला अंसारी बिहार विधानसभा चुनाव (Bihar Assembly Election 2020) में बुनकर वर्ग से उम्मीदवार खड़े करने पर जोर देते हैं ताकि प्रतीकात्मक रूप से चुनाव में दलों को अपनी अहमियत व मुद्दे बताया जा सके।

अलीम साहब चाहते हैं कि भागलपुर में एक तसर-कोकिन बैंक खोला जाए ताकि बुनकरों को उससे कच्चा माल मिल सके। सरकार से क्या राहत मिली है, इस सवाल पर वे कहते हैं कि 2009 के आसपास दो से 2 से 25 हजार तक के बिजली बिल माफ किए गए थे और कर्ज भी माफ किया गया था।

बिहार बुनकर कल्याण समिति के सदस्य अलीम अंसारी।

कैसे बहुरेंगे बुनकरों के दिन?

अलीम अंसारी कहते हैं कि वर्तमान में बुनकर बंधुआ मजदूर की तरह काम कराया जाता है। जो साड़ी हमारे यहां से 2500 में 3000 में जाती है, वह बड़े शहरों व शोरूम में सात हजार में बिकती है, उत्पादक मूल्य और ग्राहक मूल्य में इस भारी अंतर का लाभ सेठ-बड़े व्यापारी टाइप को लोगों को होता है। बुनकरों व लूम चलाने वालों का इसका लाभ नहीं होता। इसका एक नुकसान यह भी होता है कि कीमत अधिक होने से ग्राहक कम मिलते हैं।

अलीम साहब कहते हैं कि अगर बुनकरों को डायरेक्ट मार्केटिंग से जोड़ा जाए तो उत्पाद सस्ते में बिकेंगे, उससे हमारा 10 प्रतिशत का कस्टमर बेस 40 प्रतिशत हो जाएगा और मुनाफे का हिस्सा भी उत्पादकों को मिलेगा। इसमें उत्पादक और ग्राहक दोनों का लाभ है।

वे सुझाव देते हैं कि पटना, दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु जैसे शहरों में भागलपुर रेशम भवन नाम से 25-50-100 केंद्र खोले जाएं फिर आगे उसी हिसाब से कदम बढाया जाए।

अलीम अंसारी कहते हैं कि 50 हजार परिवार सीधे तौर पर बुनकरी से जुड़े हैं। अगर एक परिवार में पांच सदस्य भी मानें तो यह संख्या ढाई लाख होती है। इसके अलावा कई तरह के सहयोगी कार्य होते हैं और उस पर निर्भर लोगों की संख्या जोड़ देंगे तो यह संख्या साढे तीन से चार लाख के बीच हो जाएगी।

रंगकर्मी व पत्रकार चंद्रेश की समाजशास्त्रीय व्याख्या

ओबेदुल्ला अंसारी, अलीम अंसारी व जफर इमाम जहां भागलपुर के बुनकरी के आर्थिक पक्ष, पेशागत दिक्कतों व चुनौतियों की व्याख्या करते हैं और उस बारे में बताते व समझाते हैं, वहीं शहर के प्रमुख रंगकर्मी, पत्रकार व प्राध्यापक चंद्रेश इसकी समाजशास्त्रीय व्याख्या करते हैं और बताते हैं कि इसकी पहचान लुप्त करने के पीछे एक सिंडिकेट दशकों से सक्रिय रहा है।

चंद्रेश कहते हैं : भागलुर का सिल्क अलग होता है, यह विशुद्ध देशी होता है व बनारस से अलग होता है और अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी बहुत मांग रही है। वे कहते हैं कि आज जो आप आर्गेनिक प्रोडक्ट की बात सुनते हैं, वह वास्तव में घपला है और भागलपुर का सिल्क दशकों पहले से वास्तव में आर्गेनिक ही था। लेकिन, चीनी और कोरियाई सिल्क से मोटी कमाई की चाह रखने वालों के सिंडिकेट ने इस पर हमला किया। वे कहते हैं कि भागलपुर में खपाने के लिए ये विदेशी सिल्क नेपाल के रास्ते तस्करी कर लाए जाते थे।

1987 में भागलपुर में बुनकरों (Bhagalpur Ke Bunkar) का बड़ा आंदोलन हुआ था। वह आंदोलन पावरलूम बंद होने, बिजली की दिक्कत होने व अन्य परिस्थितियों से जुड़ा था। बुनकरों में आक्रोश उबल रहा था। उस दौर में बुनकरों की समस्या सहित अन्य मुद्दों को लेकर शहर व आसपास के ग्रामीण इलाकों में नाटकों का मंचन होता था। 1985 में अंधेरे के खिलाफ नाटक का मंचन हुआ था, जिसमें यह भाव था कि बिजली की किल्लत होने से किसी तरह पाॅवरलूम बंद हो रहे हैं और बुनकरों की जीविका प्रभावित हो रही है। उस समय छोटे बुनकरों पर भी बिजली बिल की बड़ी राशि बकाया थी।

तभी कमाई के लिए व्यापारी, पुलिस व कस्टम के लोग विदेशी सिल्क खपाने के खेल में शामिल हुए और तब बुनकरों ने उसका प्रतिरोध किया।

भागलपुर के रंगकर्मी व पत्रकार चंद्रेश।

भागलपुर विवर्स एसोसिएशन नाम का उस दौर में एक संगठन था, जिसके अध्यक्ष देवदत्त वैद्य और सचिव अवध किशोर थे, जिनका बुनकरों में बड़ा प्रभाव था। चंद्रेश याद करते हैं, 1987 में चंपानगर-नाथनगर के बीच जब बुनकरों ने अपना प्रतिरोध मार्च निकाला तो पुलिस ने उस पर गोली चला दी और तब 17-18 साल उम्र के रहे दो लड़के मो जहांगीर व शशि कुमार की मौत हो गई, जिनका आज भी हर साल शहादत दिवस मनाया जाता है।

इस घटना के बाद बुनकरों का आंदोलन बिखर व भ्रमित हो गया। संगठन भी खत्म हो गए और आज जो संगठन हैं वे वैसे प्रभावी नहीं हैं। सैकड़ों लोग जेल गए या पलायन कर गए। सिंडिकेट को हावी होने का और मौका मिल गया। बुनकरों का प्रतिरोध कमजोर हो गया। 89 के दंगे ने इस पेशे को और नुकसान पहुंचाया और फिर इस पेशे में जो हिंदू थे वे हिंदू बुनकर हो गए और जो मुसलमान थे वे मुसलमान बुनकर हो गए।

अविश्वास के माहौल में संगठन खड़ा नहीं हो पाया, सबौर में जो सिल्क प्रोसेसिंग यूनिट खुली वह भी 20-25 साल से बंद है। चंद्रेश बुनकरी की भाषा में ही इस पेशे की व्याख्या करते हैं : हिंदू-मुसलमान तानी-भरनी धागों की तरह इस पेशे में गुथे हुए थे, वे अब बिखर गए हैं।

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