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अंधविश्वास

परम्परा या अंधविश्वास : सूर्य ग्रहण के दौरान ग्रामीण इलाकों में दुधारू जानवरों के शरीर पर क्यों लगाते हैं गेरू?

Janjwar Desk
26 Oct 2022 10:29 AM IST
परम्परा या अंधविश्वास : सूर्य ग्रहण के दौरान ग्रामीण इलाकों में दुधारू जानवरों के शरीर पर क्यों लगाते हैं गेरू?
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परम्परा या अंधविश्वास : सूर्य ग्रहण के दौरान ग्रामीण इलाकों में दुधारू जानवरों के शरीर पर क्यों लगाते हैं गेरू?

देश के ग्रामीण इलाकों में ग्रहण क़ो लेकर एक खास किस्म का प्रकाश देखने क़ो मिला। इसके दुष्प्रभाव से बचने के लिए लोगों ने अपने जानवरों की पीठ और सींगों पर गेरू का लेपन भी किया।

Surya Grahan 2022 : कल दीपावली की दूसरी शाम देश भर में सूर्य ग्रहण क़ो लेकर कौतुहल बना रहा। तो दूसरी तरफ इसे लेकर अफवाहों का बाजार भी गर्म रहा। देश के ग्रामीण इलाकों में ग्रहण क़ो लेकर एक खास किस्म का प्रकाश देखने क़ो मिला। जानवरों, गर्भवती महिलाओं क़ो लेकर भी तमाम सावधानियां बरतने की बातें भी सामने आयी।

ग्रामीण इलाकों में लोगों ने अपने जानवरों की पीठ और सींगों पर गेरू का लेपन किया। मीडिया में भी ग्रहण क़ो लेकर तरह तरह की खबरें निकलकर आती रहीं। तमाम मीडिया आउटलेट्स ने समुद्र से लेकर कीड़े मकोड़ो तक खबरें खोद निकली। जैसे मकड़ी का जाला तोड़ देना, समुद्री जानवर किनारे पर इकठ्ठा हो जाते हैं। लेकिन किसी ने भी इसका साईंटिफिक कारण नहीं बताया।



इस दौरान गाय और भैंस रखने वाले कुछ खेतीहर लोगों से जनज्वार संवाददाता ने बात की और यह टटोलने की कोशिश की कि, आखिर कैसे ग्रहण का जानवरों की पीठ पर लगी गेरू से सम्बन्ध है, और कैसे गेरू इन दुधारू पशुओं क़ो ग्रहण से सेफ रखती है।

शिवली के पास एक गांव में रहने वाले बिद्दू के पास 4 भैंसे हैं। जिनके पीठ के पिछले हिस्से में गेरू लगी हुई थी। पास ही बिद्दू नीम की दातुन कर रहे थे। हमनें बातों ही बातों में उनसे गेरू लगाने का महत्व मालूम किया। 56 वर्षीय बिद्दू ने हमें बताया की उनके पुरखों के समय से ग्रहण के दिन इस तरह की प्रथा चली आ रही है। यानि ग्रहण के दिन गेरू लगाने की। इनका मानना है की ग्रहण के वक़्त गर्भवती भैंस अथवा गाय के गेरू लगाने से ग्रहण का असर नहीं होता। इसके आगे वे कुछ नहीं बता पाए।

अब हमारे आगे यह सवाल बाकी था की ग्रहण के वक़्त गर्भवती भैंस अथवा गाय क़ो क्या नुकसान होता है, और इस नुकसान क़ो इन पशुओं क़ो गेरू कैसे बचाती है। अब तक की बातों से इतना जरूर साफ था की यह इन ग्रामीण इलाकों की एक पुरानी प्रथा है, जिसे लोग अपने पुरखों के समय से निभाते आ रहे हैं।

इन इलाकों में घूमते वक़्त हमनें ऐसे भी तमाम जानवर देखे जिनकी गिनती आवारा पशुओं में की जाती है। जिनमें गाय और सांड दोनों मौजूद हैं। वैसे भी आज के समय में गाय की अपेक्षा भैंस की मान्यता अधिक बढ़ चुकी है। इन आवारा पशुओं के गेरू लगाने वाला कोई नहीं है। अगर गर्भवती पशुओं के गेरू लगाने क़ो देखें तो किसे पता इतनी बड़ी तादाद में कौन सा पशु है जो गर्भधारण किये हुए है। अब ग्रहण में गेरू लगनी जरूरी है तो ऐसे में तो इनका बड़ा नुकसान होता होगा। बावजूद इसके इन इलाकों में सालों से न तो किसी जानवर के मरने की खबर है और ना ही इनके बच्चों क़ो कोई नुकसान हुआ।

इस बीच हमें हेतपुर गाँव की सबसे बुजुर्ग काकी मिली। नाम था राधारानी। उनकी उम्र उन्हें ठीक -ठीक याद नहीं। हमनें उनसे यह बात पूछी तो उन्होंने हमें बताया की, यह एक पुरानी मान्यता है। घरों में जो गर्भवती महिलाएं होती हैं, उन्हें सूर्यग्रहण देखने से मना किया जाता है। इस दौरान कुछ खाने -पीने तक की मनाही की जाती है। घर के खाने क़ो ढककर उसमें तुलसी के पत्ते रखे जाते हैं।

उन्होंने हमें बताया की 'तुमने सुना होगा कुछ बच्चे अपंग यानि अविकसित पैदा होते हैं। इनमें कटे तालु या अन्य विकलांगता आ जाती है। इन्हें कुदरती घटनाओं के तौर पर जोड़कर देखा जाता है। और जो कुदरती घटनाएं होती हैं उनमें ये ग्रहण भी शामिल हैं। यही बात घरों के उन जानवरों pr भी लागू होती है, जो दूध देते हैं। उन्होंने कहा इन जानवरों क़ो हम अपने घर के सदस्यों की तरह पालते रखते हैं, तो उसी तरह देखभाल भी करते हैं। लेकिन काकी हमें आखिरी तक गेरू और ग्रहण का सम्बन्ध नहीं बता सकी।

इस बारे में हमनें पेशे से डॉक्टर और तर्कशील सोसाइटी पंजाब के सदस्य डॉ. राम कुमार शर्मा से बात की तो उन्होंने हमें बताया कि, अलग -अलग राज्यों में ग्रहण क़ो लेकर अलग मान्यतायें हैं। कहीं दान इत्यादि किया जाता। सूर्य चंद्र ग्रहण क़ो समुद्र मंथन से निकले अमृत क़ो एक राक्षस के पी लेने कि घटना से जोड़कर देखा जाता है। वैज्ञानिक दृष्टि से सूर्य चंद्र और धरती का एक दूसरे के सामने आ जाने से जोड़ा जाता है। लेकिन यह सभी पूरी तरह से है अंधविश्वास, और कुछ नहीं।

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