बड़ी खबर : मशहूर पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा का निधन, चिपको आंदोलन के रहे हैं प्रणेता

जनज्वार। मशहूर पर्यावरणविद और चिपको आंदोलन के प्रणेता सुंदरलाल बहुगुणा का अभी कुछ देर पहले ऋषिकेश स्थित एम्स में इलाज के दौरान निधन हो गया है।
सुंदरलाल बहुगुणा डायबिटीज के साथ—साथ कोरोना और निमोनिया से भी पीड़ित थे। 94 वर्षीय बहुगुणा को कोरोना होने के बाद आठ मई को एम्स में भर्ती कराया गया था। गुरुवार 20 मई को एम्स के जनसंपर्क अधिकारी हरीश थपलियाल ने मीडिया को जानकारी दी थी, 'उनका उपचार कर रही चिकित्सकों की टीम ने इलेक्ट्रोलाइट्स व लीवर फंक्शन टेस्ट समेत ब्लड शुगर की जांच और निगरानी की सलाह दी है। उनके टेस्ट कराए जा रहे हैं।' मगर उनकी हालत में कोई सुधार नहीं हो रहा था।
आज ही उनके निधन से लगभग घंटे भर पहले उनके बेटे राजीव नयन बहुगुणा ने उनकी एक पुरानी तस्वीर सोशल मीडिया पर साझा करते हुए लिखा था, 'अपने पिता सुंदर लाल बहुगुणा का यह लगभग 75 साल पुराना चित्र मैंने इस बेला में इस लिए डाला है कि एक नदी अपने निष्पत्ति एवं विसर्जन बिंदु पर समान रूप से रवां दवां रहती है। अजल और अबद का सुकूत लगभग एक जैसा होता है। अपने उद्गम पर पर नदी जितनी शांत होती है, विसर्जन विंदु पर भी उसी तरह निःशब्द हो जाती है। वह ऋषिकेश के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में बगैर किसी हाय तौबा के निश्चेष्ट हैं। हम 4 परिजन मेरी मां, बहन, जीजा, स्वयं मैं तथा हमारे निकटस्थ समीर रतूड़ी उनके निकट हैं। हमने नियति को अपने अभिलेख की पूर्णाहुति के इंगित दे दिए हैं। उर्वर मिट्टी बनने हेतु महावृक्ष का स्वाभाविक पतन हमेशा अवश्यम्भावी रहा है। हम प्रकृति के पुजारी उसके विधान की अवज्ञा कैसे कर सकते हैं। उनकी दशा पर पल पल चिंतित सर्व श्री हरीश रावत, महामहिम श्री भगत सिंह कोश्यारी, श्री सुरजीत किशोर दास एवं श्रीमती राधा रतूड़ी एवं श्री संजय गुंज्याल समेत सभी शुभेच्छुओं को विनम्र कृतज्ञता। कामये दुःख तप्तानाम, प्राणिनां आर्त नाशनम।।।'
सुंदरलाल बहुगुणा का नाम पर्यावरण के क्षेत्र में बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है, निश्चित तौर पर उनके निधन से न सिर्फ उत्तराखंड बल्कि देश को भी बहुत बड़ी क्षति पहुंची है। सुंदरलाल बहुगुणा ने 1972 में चिपको आंदोलन को धार दी और देश-दुनिया को वनों के संरक्षण के लिए प्रेरित किया। इसी के बाद चिपको आंदोलन की गूंज पूरी दुनिया में सुनायी दी और इतिहास में दर्ज हो गया।।
सुंदरलाल बहुगुणा का नदियों, वनों और प्रकृति से गहरा जुड़ाव था। वह प्रकृति को सबसे बड़ी आर्थिकी मानते थे। यही वजह भी है कि वह उत्तराखंड में बिजली की जरूरत पूरी करने के लिए छोटी-छोटी परियोजनाओं के पक्षधर थे, मगर वो टिहरी बांध जैसी बड़ी परियोजनाओं के पक्षधर नहीं थे। इसे लेकर उन्होंने वृहद आंदोलन शुरू कर अलख जगाई थी, उनका नारा था-'धार ऐंच डाला, बिजली बणावा खाला-खाला।' यानी ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पेड़ लगाइये और निचले स्थानों पर छोटी-छोटी परियोजनाओं से बिजली बनाइये।
सुंदरलाल बहुगुणा गांधी के पक्के अनुयायी थे और जीवन का एकमात्र लक्ष्य पर्यावरण की सुरक्षा था। उनका जन्म 9 जनवरी, 1927 को उत्तराखंड के टिहरी में हुआ था। सुंदरलाल ने 13 वर्ष की उम्र में राजनीतिक करियर शुरू किया था। 1956 में शादी होने के बाद राजनीतिक जीवन से उन्होंने संन्यास ले लिया। उसके बाद उन्होंने गांव में रहने का फैसला किया और पहाड़ियों में एक आश्रम खोला। बाद में उन्होंने टिहरी के आसपास के इलाके में शराब के खिलाफ मोर्चा खोला। 1960 के दशक में उन्होंने अपना ध्यान वन और पेड़ की सुरक्षा पर केंद्रित किया।
वर्ष 1980 की शुरुआत में सुंदरलाल बहुगुणा ने हिमालय की 5000 किलोमीटर की यात्रा की। इस यात्रा में उन्होंने गांवों का दौरा किया और लोगों के बीच पर्यावरण सुरक्षा का संदेश फैलाया। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भेंट की और इंदिरा गांधी से 15 सालों तक के लिए पेड़ों के काटने पर रोक लगाने का आग्रह किया। इसके बाद पेड़ों के काटने पर 15 साल के लिए रोक लगा दी गई। बहुगुणा ने टिहरी बांध के खिलाफ आंदोलन में भी अहम भूमिका निभाई थी। उन्होंने कई बार भूख हड़ताल की। तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहा राव के शासनकाल के दौरान उन्होंने डेढ़ महीने तक भूख हड़ताल की थी, मगर सालों तक शांतिपूर्ण प्रदर्शन के बाद 2004 में बांध पर फिर से काम शुरू किया गया था।
उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता चारु तिवारी उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखते हैं, 'उनका नाम हम बचपन से ही सुनते रहे थे। मैं समझता हूं कि हमारी पीढ़ी ने उन्हें एक आइकन के रूप में देखा। कई संदर्भो में। कई पड़ावों में। उन्हें भले ही एक पर्यावरणविद के रूप में लोगों ने पहचाना हो, लेकिन उनका सामाजिक, राजनीतिक चेतना में भी बड़ा योगदान रहा है। पर्यावरण को बचाने की अलख या हिमालय के हिफाजत के सवाल तो ज्यादा मुखर सत्तर-अस्सी के दशक में हुये। ये सवाल हालांकि अंग्रेजों के दमनकारी जंगलात कानूनों और लगान को लेकर आजादी के दौर में भी उठते रहे है, लेकिन उन्हें बहुत संगठित और व्यावहारिक रूप से जनता को समझाने और अपने हकों को पाने के लिये उसमें शामिल होने का रास्ता उन्होंने दिखाया।'
वे आगे लिखते हैं, 'आजादी के आंदोलन में पहाड़ से बाहर उनकी भूमिका लाहौर-दिल्ली तक रही। टिहरी रियासत की दमनकारी नीति के खिलाफ उन्होंने आवाज उठाई। एक दौर में उत्तराखंड की कोई हलचल ऐसी नहीं थी, जिसमें उनकी केन्द्रीय और नेतृत्वकारी भूमिका न रही हो। विशेषकर जल,जंगल और जमीन के सवालों को प्रमुखता से उठाने और हिमालय को बचाने की जो समझ विकसित हुई उसकी अगुवाई में वह रहे। सत्तर के दशक में जब पूरे पहाड़ के जंगलों को एकमुश्त बड़े ईजारेदारों को देने की साजिश हो रही थी, ऐसे समय में पहाड़ के आलोक में पूरी दुनिया को पर्यावरण की चिंता से अवगत कराने वाले मनीषी का नाम है- सुन्दरलाल बहुगुणा।'
बकौल चारु तिवारी, 'तीन-चार पीढ़ियां उन्हें अपना आदर्श मानती हैं। उनके व्यक्तित्व का फैलाव दुनिया भर में था। आम लोगों से लेकर विश्वविद्यालयों तक। बड़े संस्थानों से लेकर गाड़-गधेरों तक। जैसा वह हिमालय को देखते थे वैसा ही उनका जीवन भी था दृढ़, विशाल और गहरा। यही वजह है कि आजादी के आंदोलन, टिहरी रियासत के खिलाफ संघर्ष और आजाद भारत में जन मुद्दों के साथ खड़े होकर उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिनों तक इन्हें कसकर पकड़े रखा। हिमालय की हिफाजत की जिम्मेदारी का एक बडा समाज खड़ा करने वाले हिमालय प्रहरी सुन्दरलाल बहुगुणा का अनंत यात्रा के लिये निकलना हम सबके लिये पीडादायक है। विनम्र श्रद्धांजलि।'