युवा कवि सौम्य मालवीय की 2 कवितायें
कमी कहाँ है ऑक्सीजन की?
श्वसन हो या दहन
क्या फ़रक पड़ता है?
प्रक्रियाएँ तो दोनों
मूलतः एक सी हैं
देह के भीतर का ईंधन जले
या स्वयं देह ही जले
ईंधन की तरह
ऑक्सीजन की भूमिका तो वही है
यह विलक्षण बात
विज्ञान बूझ गया था सदियों पहले
सत्ता अब जाकर समझ रही है
कमी कहाँ है ऑक्सीजन की?
यदि होती
तो क्या संभव होता
ऐसा अद्भुत दाह-पर्व?
पृथ्वी पटी होती इस तरह
असँख्य चिता-पुष्पों से?
कमी है
तो उस सकारात्मक सोच की
जो धुएँ के इन बादलों का
कोई सार्थक उपयोग सुझाये
जो इस चिरायंध में शुद्धिकरण की
कोई चमत्कारी युक्ति सूंघ ले
जो अभिनंदन करे
इस मृत्यु-मंथन का
जनसँख्या नियंत्रण के
नये
किफ़ायती
और
अभूतपूर्व
कार्यक्रम की तरह।
सुनो बादशाह!
बादशाह
रियाआ फिर झूम उट्ठी है
तुम्हारे नए फ़रमान पर
तुम्हारी नई अदा
तुम्हारी नई पोशाक
तुम्हारे नंगेपन का नया रूप
फिर चौंधिया गया है आँखें
फ़रयादी इकट्ठ्ठा हैं
तुम्हारी एक झलक पाने को
भीड़ इतनी है कि तुम खुद ही खुद को पाओ जिधर देखो
सभी ने तुम्हारे चेहरे वाले मास्क पहने हैं
सबके भीतर तुम्हारे नाम का टाइम बम धड़क रहा है
इतना प्यार कहीं तुम्हें राजा से ऋषि न बना दे राजन!
तुम्हारी गिलगिलाई हुई मुस्कान तो यही कह रही है
ये और बात है हुज़ूर-ए-आली कि
ना ये राज-पाट का समय है
ना फ़क़ीरी का
जो खुद को रियाआ मान बैठा है
एक अभागा जम्हूर है
जिसे तुम अपनी सल्तनत समझ रहे हो
एक दम तोड़ रहा देश है
और जो तुम्हें अश्वमेध यज्ञ लग रहा है
आलम-ए-वबा की वीरानी है
ये चारों तरफ तुम्हारे घोड़े नहीं हैं चक्रवर्ती
एक वाइरस अपना अहद मुकम्मल कर रहा है
ज़िल्ले-सुब्हानी, दिलावरुलमुल्क़, शाहआलम
अगर सोचो कि यह तुम्हारी हुक़ूमत ही है
तो भी क्या ख़बर रखेगी आक़िबत तुम्हारी
कि वह सम्राट जो अपनी तहरीर से प्रजा के सीने में
नफ़रत का ख़मीर उठा सकता था
वही घुट रही साँसों को जान देने के लिए
ऑक्सीजन के दो बुलबुले तक ना उठा सका?
ओ माइटी किंग टेक अ डीप ब्रेथ
और उसे धीमे-धीमे छोड़ो
ये जो नक़्श उभरते देख रहे हो
ज़िन्दगी के नहीं ज़हर के हैं
पिछले कई हुक़्मरानों की तरह तुम भी
इसी मुग़ालते में हो कि तुम्हारी छोड़ी हुई हवा ही जीवन है
और लोग तभी तक ज़िंदा हैं
जब तक वे तुमसे गुहार लगा रहे हैं।