जीडीपी को जानने के लिए पहले समझें सरकारी बाजीगरी का खेल, फिर पता चलेगी अर्थव्यस्था की असलियत
प्रो. अरुण कुमार का विश्लेषण
विश्लेषक आश्चर्यचकित हैं कि जीडीपी में 2020-21 की दूसरी तिमाही में वास्तविक रूप से केवल 7.5 प्रतिशत तक गिरावट आयी है, जबकि यह पहली तिमाही में 23.9 प्रतिशत तक गिर गया था। इस स्वागत योग्य समाचार ने सर्दियों के महीने में जब कोविड की दूसरी लहर नहीं है तो शीघ्र पुनरुद्धार की उम्मीद जगायी है। ऐसा होता है या नहीं यह सिर्फ इस पर निर्भर करता है कि त्रैमासिक संख्या अर्थव्यवस्था की स्थिति को कितनी सही तरह से दर्शाती हैं। इस आंकड़े पर संदेह कई स्तरों पर उठाया गया है।
वित्त मंत्रालय ने उच्च आवृत्ति डाटा जैसे माल ढुलाई, बिजली की खपत, जीएसटी संग्रह एवं वसूली के आधार पर तर्क दिया है कि अर्थव्यवस्था तेजी से ठीक हो रही है। सरकार ने प्रेस नोट में क्वार्टर - 2 जीडीपी नंबरों की घोषणा में इस तरह की तालिका है। पर, सब ठीक ह के बीच कम संतोषजनक समाचार वह है जो आधिकारिक घोषणाओं में निहित नहीं है।
प्रणाली संबंधी मुद्दे
प्रेस रिलीज में प्वाइंट 9 एवं 10 में बताया गया है कि आमतौर पर त्रौमासिक विकास दर को प्रोजेक्ट करने के लिए उपयोग किए जाने वाले पूर्ण डाटा उपलब्ध नहीं थे, इसलिए कुछ अन्य डाटा स्रोत का उपयोग किया गया था। यह स्वीकार करता है कि यह स्पष्ट रूप से सीमित था और कहता है कि अनुमान में संशोधन की संभावना है। प्रेस नोट में यह भी कहा गया था कि क्वार्टर - 1 नंबर की घोषणा की गई थी। यह स्पष्ट नहीं है कि जून के बाद अर्थव्यवस्था के खुलने के बावजूद डाटा अभी भी सीमित है या वैकल्पिक डाटा का क्यों उपयोग करना पड़ा।
जैसा कि हो सकता है, इन बयानों के दो निहितार्थ हैं। पहला, क्वार्टर 1 और क्वार्टर 2 का डाटा न केवल एक दूसरे के साथ तुलनात्मक हैं, बल्कि 2019-20 के डाटा के साथ भी तुलनात्मक हैं। डाटा में त्रुटियों को बाद में ठीक नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह डाटा उपलब्ध या संग्रहित ही नहीं है। इसलिए उन्हें बाद में प्राप्त नहीं किया जा सकता है। इसलिए अर्थव्यवस्था में सुधारों की गति को लेकर सुनिश्चितता नहीं हो सकती है।
दूसरा कि त्रैमासिक विकास दर की गणना का तरीका पहले से ही त्रुटिपूर्ण था। सवाल उठता है कि क्या यह गड़बड़ी नियमित डाटा की कमी के कारण बढ रही है? सबसे बड़ा दोष यह है कि कृषि को छोड़ कर असंगठित क्षेत्र का कोई भी आंकड़ा अर्थव्यवस्था के इस घटक के सकल घरेलू उत्पाद में योगदान की गणना करने के लिए उपलब्ध नहीं है। यह अनुमान लगाने की विधि में निहित था कि इन घटक को अर्थव्यवस्था के संगठित क्षेत्रों के डाटा द्वारा अनुमानित किया जा सकता है। यह कभी अच्छी धारणा नहीं है। लाॅकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था को झटका लगने के बाद यह और भी कम वैध है। 2016 की नोटबंदी या विमुद्रीकरण ने पहले ही संगठित और असंगठित क्ष्ज्ञेत्रों के बीच इस लिंक को बाधित कर दिया था। अब विघटन बहुत अधिक है।
अनुमान लगाने के तरीके पर आघात का असर
गैर कृषि असंगठित क्षेत्र विमुद्रीकरण से अत्यधिक व असंगत रूप से प्रभावित हुआ था। यह इसका परिणाम था कि इस क्षेत्र में छोटी इकाइयां नकदी के साथ काम करने वाली हैं। इसलिए नकदी की कमी ने इसे संगठित क्षेत्र की तुलना में कहीं अधिक प्रभावित किया जो औपचारिक मुद्रा बाजारों का उपयोग करते हैं, जैसे बैंक और डिजिटल ट्रांजेक्शन का उपयोग कर सकते हैं। इसलिए दोनों क्षेत्रों के बीच अनुपातिकता बाधित हो गई। इसके अलावा, छोटी पूंजी वाली छोटी इकाइयां जल्द बंद हो जाती हैं। यदि वे एक सप्ताह के लिए भी काम करना बंद कर देती हैं तो ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है। ऐसे में उन्हें फिर से शुरू करना मुश्किल होता है।
इसका असर यह हुआ कि संगठित क्षेत्र जब रिकवर करने लगे तब असंगठित क्षेत्र में गिरावट आने लगी। त्रुटिपूर्ण वस्तु एवं सेवा कर, जीएसटी लागू होने से यह प्रवृत्ति और बढ गई जो संगठित क्षेत्र को फेवर करता था। इससे मांग असंगठित क्षेत्र से संगठित क्षेत्र में स्थानांतरित हो गई। ऐसा नहीं है कि असंगठित क्षेत्र इससे औपचारिक क्षेत्र में तब्दील हो गया, बल्कि यह मुरझा गया।
विमुद्रीकरण के बाद से संगठित क्षेत्र की वृद्धि असंगठित क्षेत्र की कीमत पर हुई है। अर्थव्यवस्था में उच्च विकास दर वास्तव में असंगठित क्षेत्र में गिरावट का कारण बनती है। उदारहण, के लिए उच्च जीएसटी संग्रह संगठित क्षेत्र की वृद्धि दर्शाता है। जैसा कि पूर्व वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि पांच प्रतिशत इकाइयां 95 प्रतिशत जीएसटी का भुगतान करती हैं। स्पष्ट रूप से अर्थव्यवस्था की वृद्धि उस आंकड़े से बहुम कम रही है जो आधिकारिक जीडीपी संख्याओं में दरशायी गई हैं।
लाॅकडाउन ने सकल घरेलू उत्पाद के ओवर-स्टीमेशन यानी अधिमूल्यांकन की प्रवृत्ति को बढा दिया है। लाॅकडाउन का तात्पर्य है कि आर्थिक गतिविधियों की एक स्वैच्छिक बंदी। इसने अर्थव्यवस्था के संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों को प्रभावित किया। अधिकृत छोटी व सूक्ष्म इकाइयांे ने अपनी कार्यशील पूंजी को गंवा दिया और उनके लिए उन्हें पुनर्जीवित करना मुश्किल हो रहा है। पर, यह आधिकारिक डाटा में सम्मिलित नहीं किया गया है जो सीमित संगठित क्षेत्र के डाटा - आधिकारिक एजेंसियों द्वारा उल्लेखित उच्च आवृत्ति डाटा पर आधारित हंै।
कई दृष्टांतों में संगठित क्षेत्र असंगठित क्षेत्र की कीमत पर अच्छा कर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर ई-काॅमर्स ईंट-पत्थर से बने स्टोर की कीमत पर तेजी से बढे हैं, क्योंकि लोगों के बाहर जाने के डर के कारण मांग में बदलाव आया है। इसलिए जब कारोबार में गिरावट आयी है, डाटा वृद्धि का संकेत देगा क्योंकि वह केवल ई-काॅमर्स और बड़े स्टोरों पर आधारित है। वास्तव में, आधिकारिक आंकड़े में जितना अधिक विकास दिखाया गया है, उतना ही यह छोटे खुदरा स्टोरों के पतन का संकेत देता है।
अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में एक संगठित और एक असंगठित घटक हैं। उदाहरण के लिए, कोई ब्रांडेड पारले बिस्कुट या फिर लोकल बैकरी से भी बिस्कुट खरीद सकता है। कपड़ा के क्षेत्र में ब्रांडेड उत्पाद और पाॅवर लूम व हैंड लूम के उत्पाद भी हैं। इस क्षेत्र में क्षमता का उपयोग 70 से 80 प्रतिशत होने की सूचना है। बड़ी इकाइयों ने जबकि अपना परिचालन शुरू कर दिया है, वहीं छोटी इकाइयां कार्यशील पंूजी की कमी के कारण सुस्त हैं। इसलिए डाटा केवल बड़ी इकाइयों से लिया जाता है, तो सामान्य स्थिति दिखाई देगी और उसमें 20 से 30 प्रतिशत की गिरावट को शामिल नहीं किया जाएगा।
सभी डाटा सम्मिलित नहीं किए गए हैं
चूंकि लाॅकडाउन में ढील दी गई थी, इसलिए संगठित क्षेत्र के अधिकतर व्यवसाय खुद को फिर से शुरू करने में सक्षम थे, लेकिन असंगठित क्षेत्र के इसमें सक्षम नहीं थे। संगठित क्षेत्र की कई कारोबार पिछले साल के स्तर तक नहीं जा सके हैं, जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, होटल, एयरलाइंस, यात्रा व पर्यटन। इससे हर प्रकार के छोटे उत्पादकों पर असर पड़ता है। इससे रोजगार पर चोट पहुंचती है और इसका मतलब यह है कि अर्थव्यवस्था में मांग भी ठीक नहीं हो रही है और खासकर असंगठित क्षेत्र के उत्पादकों के लिए। इसमें अधिकांश को सम्मिलित नहीं किया गया है, क्योंकि उपयोग किए गए डाटा बड़ी इकाइयों और स्टाॅक मार्केट से ली गईं कार्पाेरेट सेक्टर के डाटा हंै। संक्षेप में लाॅकडाउन के झटके के कारण तिमाही वृद्धि दर की संख्या मजबूत नहीं है और लाॅकडाउन के कारण अधिक सदमे है। इसलिए जब अर्थव्यवस्था रिकवर हो रही है, तब बिना तुलनात्मकता के यह कहना मुश्किल है कि ऐसा कितनी तेजी से हो रहा है। सामान्य हालात की ओर लौटते हुए यह धारणा बनायी जा रही है कि संकट नागरिकों के बड़े वर्ग के जीवन पर बना रहता है।
(लेखक अर्थशास्त्री हैं और इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस में प्रोफेसर हैं। उन्होंने 'इंडियन इकोनामिक ग्रेटेस्ट क्राइसिस: इंपेक्ट ऑन द कोरोनावायरस एंड द रोड अहेड' नामक किताब लिखी है।)