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शिक्षा

UP में 95 फीसदी कॉलेजों में उच्च शिक्षा देने वाले प्रोफेसरों को नहीं मिलता न्यूनतम वेतन

Janjwar Desk
2 Jun 2021 10:32 AM GMT
UP में 95 फीसदी कॉलेजों में उच्च शिक्षा देने वाले प्रोफेसरों को नहीं मिलता न्यूनतम वेतन
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मुख्यमंत्री कार्यालय का वेतन भुगतान संबंधित आदेश : इसे भी नहीं मानते अधिकांश वित्तविहीन व स्ववित्त पोषित महाविद्यालय

वित्तविहीन महाविद्यालयों के कई शिक्षक कुपोषण और अवसाद में मर चुके हैं, अभाव एवं और असुरक्षा के कारण देवरिया जिले के एक स्ववित्तपोषित पीजी कॉलेज के प्राचार्य ने पोखरी में डूबकर आत्महत्या भी कर ली थी, उन्हें प्राचार्य होने के बावजूद मात्र 3000 रुपए वेतन मिलता था...

जितेंद्र उपाध्याय की रिपोर्ट

जनज्वार, ब्यूरो। उच्च शिक्षा में सुधार के तमाम सरकारी दावे के बाद भी उत्तर प्रदेश के शिक्षण संस्थानों की स्थिति काफी खराब है। राज्य के ऐसे संस्थानों में अध्ययनरत तकरीबन 48 लाख से अधिक छात्र में से 95 फीसद वित्तविहीन मान्यता प्राप्त महाविद्यालय व स्ववित्त पोषित पाठ्यक्रम आधारित महाविद्यालय में पढ़ते हैं। जहां के अधिकांश शिक्षकों को सरकार के द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी दर भी नहीं मिल पाती है तो जिनसे बेहतर गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की गारंटी कैसे की जा सकती है।

उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने की बात करने वाले हों या सबका साथ सबका विकास की दुहाई देनेवाली सरकार। सबने शिक्षा व शिक्षकों की व्यवस्था में सुधार करने के नाम पर मात्र कागजी घोड़ा दौड़ाने का ही कार्य किया है। जिसका नतीजा है कि व्यवस्था में सुधार के बजाय हालात बदतर होते चले गए।

शिक्षकों को मनरेगा जैसी मजदूरी भी नहीं मिलती

वित्तविहीन महाविद्यालयों एवं वित्तपोषित पाठ्यक्रम आधारित महाविद्यालयों में कार्यरत प्राचार्य व शिक्षकों को नेट, जेआरएफ, पीएचडी करने के बाद भी योगी सरकार मनरेगा मजदूर के बराबर भी मजदूरी,हक एवं सुरक्षा नहीं दिला पा रही है। वित्तविहीन महाविद्यालय व स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों के शिक्षकों के हितों के लिए संघर्षरत डॉ अरविंद पांडे कहते हैं कि

गोरखपुर में लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान के समय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दिग्विजय नाथ स्नातकोत्तर महाविद्यालय में आयोजित शिक्षक सम्मेलन को संबोधित किया था। सम्मेलन में 3% सरकारी वेतन पाने वाले शिक्षकों के साथ 97 % निजी महाविद्यालयों के अनुमोदित और वित्तविहीन शिक्षक भी थे|

मजेदार बात यह है कि इसके मुख्य आयोजक स्ववित्तपोषित कालेजों के वे प्राचार्य थे, जिन्होंने शिक्षकों से अलग अपना 'प्राचार्य परिषद' ही बना रखा है। ये शिक्षकविहीन महाविद्यालयों में परीक्षा कराने में माहिर हैं। इस सम्मेलन में मुख्यमंत्री ने शिक्षकों को चाणक्य बनने की नसीहत तो जरुर दी थी, लेकिन इन शिक्षकों के दशा में सुधार को लेकर कुछ भी नहीं बोला। सरकारों की उदासीनता के चलते स्ववित्तपोषित शिक्षक अब सरकार को शिकायत के काबिल भी नहीं मानते।

जाहिर है वह अवसाद में हैं। कई कुपोषण और अवसाद में मर चुके हैं। अभाव एवं और असुरक्षा के कारण देवरिया जिले के एक स्ववित्तपोषित पीजी कॉलेज के प्राचार्य ने तीन साल पूर्व पोखरी में डूबकर आत्महत्या भी कर ली थी। उन्हें प्राचार्य होने के बावजूद मात्र 3000 रुपए वेतन मिलता था।

मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के कार्यकाल में ऐसे कॉलेजों की हुई शुरुआत

मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के कार्यकाल में ग्रामीण स्तर पर उच्च शिक्षा मुहैया कराने के नाम पर वित्तविहीन मान्यता के साथ महाविद्यालय खोलने की शुरुआत की गई। अखिल भारतीय विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय शिक्षक महासंघ उत्तर प्रदेश उत्तराखंड के क्षेत्रीय सचिव डॉक्टर राजेश मिश्रा कहते हैं कि तत्कालीन सरकार ने अशासकीय महाविद्यालयों में भी नए पाठ्यक्रम शुरू करने पर सरकार द्वारा कोई अनुदान देने के बजाय छात्रों से आए फीस से ही शिक्षकों का वेतन भुगतान करने का निर्देश दिया था।

यही प्रावधान वित्तविहीन मान्यता प्राप्त महाविद्यालयों के लिए भी लागू किया गया। इसके बाद यह व्यवस्था बना दी गई कि नामांकित छात्रों से आई फीस का 75% हिस्सा शिक्षकों के वेतन पर खर्च किया जाएगा, जिसके चलते यह प्रावधान आगे चलकर एक बड़ी भी विसंगति के रूप में सामने आई। प्रबंधन की मनमानी व छात्रों के कम नामांकन के चलते महाविद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों को जहां नियमित वेतन का भुगतान नहीं होता है वहीं आमतौर पर 10000 से 12000 रुपए तक मिलते हैं, जबकि कुछ संस्थान तो 5000 रुपए से भी कम भुगतान करते हैं।

वित्तविहीन महाविद्यालयों में अध्ययनरत 95 प्रतिशत छात्र

उत्तर प्रदेश में उच्च शिक्षण संस्थानों की संख्या पर गौर करें तो विश्वविद्यालयों की संख्या 15, राजकीय महाविद्यालय की 157 और अशासकीय महाविद्यालय की 331 (स्ववित्त पोषित पाठ्यक्रम वाले महाविद्यालय 272) व वित्तविहीन/स्ववित्त पोषित मान्यता वाले महाविद्यालयों की संख्या 6500 से अधिक है। राज्य के इन स्थानों में पंजीकृत 48 लाख से अधिक छात्रों में से एक अनुमान के मुताबिक 95% छात्र स्ववित्त पोषित महाविद्यालय व वित्तविहीन मान्यता वाले महाविद्यालयों में पढ़ते हैं। ये अधिकांश संस्थान ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित हैं। यहां अध्ययनरत अधिकांश छात्र ग्रामीण परिवेश से आते भी हैं, जहां उचित वेतन नहीं मिलने से बेहतर शिक्षण व्यवस्था की भी उम्मीद करना बेईमानी है।

अव्यवस्था के साथ ही बढ़ती गई मनमानी

स्ववित्त पोषित पाठ्यक्रम संचालित होने वाले अशासकीय महाविद्यालय में भवन व फर्नीचर की स्थिति आमतौर पर संतोषजनक है, लेकिन वित्तविहीन मान्यता वाले महाविद्यालयों में उचित कमरा व अन्य संसाधन तक नहीं दिखते।

अब्दुल समद, विशेष सचिव, उत्तर प्रदेश शासन का वेतन भुगतान करने संबंधित आदेश : इसे भी नहीं मानते राज्य के अधिकांश वित्तविहीन व स्ववित्त पोषित महाविद्यालय

अनुदानित महाविद्यालय विश्वविद्यालय स्ववित्तपोषित अनुमोदित शिक्षक संघ उत्तर प्रदेश के प्रदेश मंत्री डॉ जितेन्द्र कुमार त्रिपाठी का कहना है कि यहां शिक्षण कार्य करने वाले अपने मानदेय की अगर बात करते हैं तो प्रबंधन विभिन्न प्रकार का बहाना बनाकर सेवा समाप्त करने की धमकी देने लगता है। दूसरी तरफ महाविद्यालय प्रबंधन विश्वविद्यालय द्वारा जिन शिक्षकों का अनुमोदन कराता है, उनसे कार्य न लेकर योग्यता विहीन शिक्षकों से शिक्षण कार्य करा रहे हैं। ऐसे में इन्हें कम मानदेय देना पड़ता है।

इस पर रोक के लिए अनुमोदित शिक्षकों की सूची महाविद्यालय व विश्वविद्यालय के पोर्टल पर प्रदर्शित करने की मांग हमेशा उठती रही है, जिस पर विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा आदेश तो जारी किए जाते हैं पर कभी अमल नहीं होता।

अव्यवस्था के आलम को बयान करते हुए एक असिस्टेंट प्रोफेसर कहते हैं कि मैं केंद्रव्यवस्थापक बनकर एक वित्तविहीन महाविद्यालय में परीक्षा कराने गया था। उस केंद्र के प्रबंधक से अनुमोदित शिक्षकों की हमने सूची मांगी। लेकिन परीक्षा के दो दिवस बीतने के बाद भी वे सूची नहीं उपलब्ध करा सके। इसकी शिकायत मैंने विश्वविद्यालय प्रशासन से की। जहां से कोई ठोस जवाब देने के बजाय हमें किसी तरह परीक्षा करा लेने की सलाह दी गई। लिहाजा यह कह सकते हैं कि महाविद्यालय व विश्वविद्यालय प्रशासन के मिलीभगत से ही यह अव्यवस्था व मनमानी का खेल चल रहा है।

योग्यता समान पर वेतन असमान

उच्च शिक्षा संस्थानों में चयन का मानदंड यूजीसी द्वारा निर्धारित किया जाता है। सामान्य योग्यता के आधार पर और अशासकीय महाविद्यालय में आयोग द्वारा व स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों में विश्वविद्यालय के अनुमोदन पर शिक्षकों की तैनाती होती है। हाल यह है कि अशासकीय महाविद्यालय में न्यूनतम वेतन 57 हजार 700 रुपए व स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों में चंद हजार रुपए ही मिलते हैं।

हालांकि समान वेतन की मांग करने पर शासन द्वारा आदेश तो कर दिए जाते हैं लेकिन उस पर अमल नहीं कराए जाते। वित्तविहीन महाविद्यालयों के दिहाड़ी मजदूर से भी कम सेलरी पाने वाले शिक्षकों के अधिकारों को लेकर संघर्षरत कानपुर के मांधना स्थित ब्रह्मवर्त पीजी कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. नीरज श्रीवास्तव कहते हैं, प्रयागराज हाईकोर्ट ने कई बार यूजीसी द्वारा निर्धारित वेतनमान देने का आदेश जारी किया है, लेकिन इस पर अमल करने के बजाए कागजी आदेश जारी होते रहे हैं।

डॉ. श्रीवास्तव कहते हैं कि सरकार से मदद मिले बिना प्रबंधन द्वारा न्यूनतम वेतनमान देना संभव नहीं है। ऐसे महाविद्यालय आमतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित हैं, जहां अध्यनरत छात्रों के लिए संपूर्ण फीस तक देना संभव नहीं हो पाता है। इसके अलावा पारंपरिक विषयों में अब छात्र नामांकन कराना भी नहीं चाहते हैं, जिसके कारण पर्याप्त फीस नहीं मिल पाती है। ऐसे संकट से उबरने के लिए सरकार द्वारा नीति गत फैसला करना चाहिए।

वित्तविहीन/स्व वित्तपोषित महाविद्यालय शिक्षक एसोसिएशन के उपाध्यक्ष डॉ. विवेकानंद उपाध्याय का कहना है कि समान काम समान वेतन का सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को भी ऐसे महाविद्यालयों द्वारा नहीं माना जा रहा है, जिसके चलते दिहाढ़ी मजदूरों से भी बुरा हाल शिक्षकों का है। खास बात है कि इन महाविद्यालयोंं को संचालित करने वाले लोग ऊंची पहुंच वाले हैं, जिन पर हाथ डालने से विश्वविद्यालय प्रशासन भी कतराता है।

वेतन भुगतान का आदेश भी नहीं मानते महाविद्यालय

कोरोना काल में शिक्षकों का वेतन भुगतान सुनिश्चित करने संबंधित शासनादेश भी अमल में आते नहीं दिखता है। 19 मई को मुख्यमंत्री कार्यालय से प्रमुख सचिव ने अनिवार्य रूप से वेतन भुगतान करने का देश जारी किया। इसी दिन विशेष सचिव उत्तर प्रदेश शासन अब्दुल समद ने भी निदेशक उच्च शिक्षा प्रयागराज उत्तर प्रदेश व क्षेत्रीय शिक्षा अधिकारियों को पत्र जारी किया, जिसके तहत प्रारंभिक से लेकर उच्च शिक्षा संस्थानों से वेतन भुगतान करने का आदेश दिया गया है।

उधर आदेश के विपरीत कई महाविद्यालय वेतन भुगतान करने के बजाए सेवा पर ही रोक लगाने पर तुले हैं। 28 मई को गन्ना उत्पादक स्नातकोत्तर महाविद्यालय बहेड़ी बरेली के कार्यवाहक प्राचार्य डॉ सचिंद्र मोहन शर्मा ने एक पत्र जारी कर कहा है कि महाविद्यालय के समस्त स्व वित्तपोषित अनुमोदित शिक्षकों को सूचित किया जाता है कि पिछले वर्ष की भांति आपकी सेवा अवधि मई माह में पूर्ण हो रही है। अतः आपसे आगामी सत्र प्रारंभ होने पर सेवाओं के लिए पुनः सूचित किया जाएगा। अर्थात जून माह से उनकी सेवा समाप्त कर दी गई है, जबकि विश्वविद्यालय द्वारा शिक्षकों के अनुमोदन के दौरान 12 माह के वेतन भुगतान की नियमावली है। वेतन भुगतान पर रोक लगाने या सेवा समाप्त कर देने की शिकायतें ऐसे कई महाविद्यालयों से आ रही है। खास बात यह एक कि इन शिकायतों को शासन भी संज्ञान लेकर कोई कारवाई करते नहीं दिखता। ऐसे में यह आरोप लग रहे हैं कि शासन भी आदेश के नाम पर मात्र औपचारिकता पूर्ण करने में लगा है।

हालात के लिए गलत सरकारी नीतियां भी जिम्मेदार

प्राइवेट महाविद्यालयों में जहां सर्वाधिक छात्र पढ़ रहे हैं, वही यूजीसी अपने बजट का 65% केंद्रीय विश्वविद्यालय व उनके कॉलेज को देती है। 35% धनराशि राज्य विश्वविद्यालय व उनके कॉलेजों को दी जाती है। जबकि स्ववित्त पोषित महाविद्यालय को स्वयं के खर्चे से चलाने को कहा जाता है। छात्रों की संख्या के लिहाज से देखा जाए तो भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था अमेरिका और चीन के बाद तीसरे नंबर पर आती है। दूसरी तरफ विश्व के शिखर के विश्वविद्यालयों की 200 की सूची में भारत के कोई विश्वविद्यालय नहीं आते हैं। हमारे यहां उच्च शिक्षा में 11 प्रतिशत छात्रों का रजिस्ट्रेशन होता है, जबकि अमेरिका में यह संख्या 83 प्रतिशत है।

गन्ना उत्पादक स्नातकोत्तर महाविद्यालय बहेड़ी, बरेली के कार्यवाहक प्राचार्य डॉ सचिंद्र मोहन शर्मा द्वारा जारी पत्र : जून माह से लगा दी गयी शिक्षकों की सेवा पर रोक

राष्ट्रीय मूल्यांकन व प्रत्यायन परिषद का शोध बताता है कि भारत के 90 प्रतिशत कॉलेज और 70 प्रतिशत विश्वविद्यालय का स्तर कमजोर है, जिसका कारण है कि प्रतिवर्ष भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए 7 अरब डॉलर अर्थात करीब 43 हजार करोड़ रुपए खर्च करते हैं। देश में खराब शैक्षिक माहौल का परिणाम है कि दुनियाभर में विज्ञान व इंजीनियरिंग के क्षेत्र में हुए शोध में से एक तिहाई अमेरिका में होते हैं, इसके ठीक विपरीत भारत में सिर्फ तीन प्रतिशत शोधपत्र प्रकाशित हो पाते हैं।

यूजीसी का शिक्षा के प्रति नजरिया

यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन ( यूजीसी) शिक्षा को लेकर गाइडलाइन तय करती है। इसके मुताबिक गुणवत्ता वाली शिक्षा के लिए व्यक्तिगत उपलब्धि और ज्ञान, रचनात्मक सार्वजनिक सहभागिता और समाजोपयोगी योगदान को सक्षम करना चाहिए। छात्रों को अधिक सार्थक और संतोषजनक जीवन और कार्य की भूमिकाओं के लिए तैयार करना चाहिए और आर्थिक स्वतंत्रता को सक्षम करना चाहिए।

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