लॉकडाउन इफेक्ट : देश की 16 लाख लड़कियां स्कूली शिक्षा से वंचित, 1 करोड़ बच्चियां माध्यमिक स्कूलों से बाहर
नई दिल्ली, जनज्वार। राइट टू एजुकेशन (आरटीई) फोरम ने अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा दिवस एवं राष्ट्रीय बालिका दिवस के अवसर पर 24 जनवरी को बालिका शिक्षा पर एक पॉलिसी ब्रीफ़ जारी करते हुए कहा है कि भारत में 15-18 वर्ष की आयु वर्ग की लगभग 40 प्रतिशत लड़कियां स्कूल से बाहर हो जाती हैं।
कोविड-19 महामारी ने न केवल शिक्षा के मौजूदा पैटर्न को बढ़ाया है, बल्कि लड़कों की तुलना में लड़कियों को और ज्यादा प्रभावित कर रहा है। एक अनुमान के मुताबिक, भारत में लगभग 10 मिलियन माध्यमिक स्कूल की लड़कियां कोविड महामारी से उपजी परिस्थितियों के कारण स्कूलों से बाहर हो जा सकती हैं। इन लड़कियों की जल्दी शादी होने का खतरा है और उनके किशोर उम्र में गर्भावस्था, मानव-तस्करी, बाल श्रम, गरीबी एवं हिंसा के शिकार होने की संभावना है। गौरतलब है कि इस समय दुनिया भर में गैरबराबरी के खिलाफ ग्लोबल एक्शन वीक के तहत भी लैंगिक असमानता समेत समाज के भीतर व्याप्त हर किस्म के भेदभाव के विरुद्ध मुहिम जारी है।
बालिका शिक्षा पर केन्द्रित इस पॉलिसी ब्रीफ़ को 300 से ज्यादा प्रतिभागियों की उपस्थिति में लांच किया गया। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के पूर्व अध्यक्ष और रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित शांता सिन्हा ने लड़कियों को शिक्षित करने के महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि स्कूली शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का साधन बनना चाहिए। यह स्कूल और लोकतंत्र के बीच एक कड़ी है। शांता सिन्हा ने कई उदाहरणों के जरिये स्कूलों में लैंगिक असमानता का जिक्र करते हुए इसे समाप्त करने पर जोर दिया। उन्होंने यह भी कहा कि बालिका शिक्षा को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। स्कूल प्रणाली और सुरक्षा तंत्र को मजबूत करने की आवश्यकता है, ताकि वे लोकतंत्र, समानता, न्याय की एक धुरी बन जाएं, जो एक समावेशी समाज के नवनिर्माण को नई दिशा दे सके।
आरटीई फोरम के राष्ट्रीय संयोजक अम्बरीष राय ने शिक्षा क्षेत्र में बढ़ती असमानताओं पर गहरी चिंता जारी करते हुए शिक्षा के बाजारीकरण और तेजी से बढ़ते निजीकरण पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि देश में बच्चों का बहुतायत हिस्सा सरकारी स्कूलों में है और सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था पर निर्भर है। जाहिर है, शिक्षा का निजीकरण जितना बढ़ेगा, बच्चों के लिए शिक्षा पाना उतना ही कठिन हो जाएगा। उन्होंने कहा कि पहले से ही अधिकांश लड़कियां शिक्षा से वंचित है। कोरोना महामारी ने स्कूल जाने वाली लड़कियों की शिक्षा पर एक और बड़ा प्रहार कर दिया है।
उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय शिक्षा दिवस और राष्ट्रीय बालिका दिवस के अवसर पर हम इस मुद्दे पर अपनी प्रतिबद्धता को दोहराना चाहते हैं। समान स्कूल प्रणाली अगर इस देश में लागू होती है तो प्रवासियों, दलितों, आदिवासियों, दिव्यांगों, गरीबों एवं अन्य वंचित समाज के अधिकांश बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिलेगी। उन्होंने कहा कि फोरम ने वित्त मंत्री से बजट में शिक्षा को कैटगरी "सी" श्रेणी में नहीं रखने का अनुरोध किया है। उन्होंने बताया कि फोरम की तरफ से शिक्षा पर बजट बढ़ाने के संदर्भ में एक पेटीशन (petition) की भी शुरुआत की गई है, जिस पर तकरीबन 75000 हस्ताक्षर हो चुके हैं।
अम्बरीश राय ने कहा, 'हम बार–बार यह दोहराते रहे हैं कि शिक्षा पर जीडीपी का न्यूनतम 6% और वार्षिक बजट का 10% खर्च किए बगैर और प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा को बेहतर किये बिना उज्जवल भविष्य की कल्पना बेमानी है।'
इसके बाद दो पैनलों के जरिये चर्चा हुई। ऑनलाइन संवाद के इस सत्र का संचालन करते हुए गैरबराबरी के खिलाफ जारी मुहिम की लीड विशेषज्ञ और ऑक्सफैम इंडिया की एंजेला तनेजा ने कहा कि कोरोना काल में ऑनलाइन एवं डिजिटल शिक्षा का एक बड़ा कारोबार शुरू हुआ है। एक खास वर्ग ने डिजिटल शिक्षा को अपनाया है, लेकिन अधिकांश बच्चे ऐसी शिक्षा व्यवस्था से वंचित है। सच तो यह है कि स्कूली शिक्षा का कोई विकल्प ही नहीं है। दरअसल देश के पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए ऑनलाइन एवं डिजिटल शिक्षा पर जोर दिया जा रहा है।
उन्होंने एक आंकड़ा देते हुए कहा कि 69 शीर्ष पूँजीपतियों के पास राष्ट्रीय बजट से भी ज्यादा धन है। ऐसे में क्यों नहीं बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए प्रोग्रेसिव टैक्सेशन के जरिये संसाधन इकट्ठे किए जा सकते हैं। (wealth of the 69 top billionaires was more than the national budget)
बिहार राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एससीपीसीआर) की सदस्य सुनन्दा पांडे ने कहा कि समाज में बच्चियों और महिलाओं के प्रति भेदभाव को खत्म करने और उन्हें सम्मान देने की जरूरत है। लड़कियों की पढ़ाई और समाज में विभिन्न स्तरों पर उनकी सहभागिता बढ़ाए जाने की जरूरत है और इसके लिए सरकार के अलावे समुदाय और अभिभावकों को भी सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।
उत्तर प्रदेश एससीपीसीआर की सदस्य जया सिंह ने इस बात पर प्रकाश डाला कि लड़कियों को सशक्त बनाने के साथ-साथ लड़कों और माता-पिता के साथ भी काम करना चाहिए। ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि लड़कियों को उनके अधिकारों का उपयोग करने और कार्रवाई करने के लिए एक सशक्त एसएमसी (स्कूल प्रबंधन समिति) समूहों की भूमिका मिल सके।
एनआईपीएफपी (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फ़ाइनेंस एंड पॉलिसी) से सुकन्या बोस ने कहा कि 'लड़कियां ज़्यादातर सार्वजनिक शिक्षा पर अधिक निर्भर हैं और इसलिए कम संसाधनों से उनकी शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।'
एसएसए-एससीईआरटी लखनऊ के संयुक्त निदेशक अजय कुमार सिंह ने इस बीच, शिक्षकों को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता को दोहराया, ताकि वे कक्षा में लैंगिक समानता की अवधारणा पर कुशलतापूर्वक काम करते हुए लैंगिक संवेदनशीलता को बढ़ावा दे सकें।
केयर इंडिया की निधि बंसल कहा, 'जब शिक्षा की बात की जाती है, तो एक व्यवस्थागत दृष्टिकोण अपनाया जाना महत्वपूर्ण है। उन्होंने लैंगिक समानता को लेकर कई महत्वपूर्ण बातों का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि लड़कियों को समाज की मुख्यधारा में समावेशित करने के लिए जरूरी है कि उनके भीतर हौसले और आत्मविश्वास का संचार किया जाए एवं उन्हें केंद्र में रखते हुए समाज की एक स्वतंत्र, जीवंत व चेतनशील इकाई के बतौर उनके विकास पर ध्यान दिया जाये। याद रहे कि किसी भी समस्या का निदान सहभागितापूर्ण रवैये से ही संभव है।'