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शिक्षा

Conversation With Yogendra Yadav & Kuldeep Kumar : क्‍या विश्‍वविद्यालयों को विवादास्‍पद पाठों को पढ़ाने से बचना चाहिए ?

Janjwar Desk
14 Oct 2021 2:54 PM IST
Conversation With Yogendra Yadav & Kuldeep Kumar : क्‍या विश्‍वविद्यालयों को विवादास्‍पद पाठों को पढ़ाने से बचना चाहिए ?
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(विश्वविद्यालयों में शिक्षा पर योगेंद्र यादव और कुलदीप कुमार)

Yogendra Yadav : वर्तमान सत्‍ता को गोला-बारुद मुहैया कराता है जो अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता से जुड़े सभी प्रकार के विचारों का गला घोटने में यकीन रखती है

Yogendra Yadav। पाठ्यक्रम में रखे गए पाठों के ऊपर विवाद फूट पड़ने के बाद कन्‍नूर विश्‍वविद्यालय (Kannu University) ने प्रशासन और राजनीति विषय के अपने परास्‍नातक के पाठ्यक्रम में वी.डी. सावरकर (V.D.Savarkar) और एम.एस. गोलवलकर (M.S.Golwalkar) की रचनाओं पर आधारित अध्‍यायों को बनाए रखना तय किया है। ये रचनाएँ हैं - सावरकर रचित 'हिंदुत्‍व: हू इज ए हिंदू?' और गोलवलकर रचित 'बंच ऑफ़ थोट्स'। द हिंदू के लिए अनुराधा रमन द्वारा संचालित एक बातचीत में कुलदीप कुमार और योगेंद्र यादव अकादमिक पाठों पर अंकुश लगाने की व्‍यापक परिणतियों पर विचार-विमर्श करते हैं। कुलदीप कुमार एक द्विभाषी पत्रकार और हिंदी कवि हैं। ये राजनीति और संस्‍कृति पर लिखते हैं। योगेंद्र यादव स्‍वराज इंडिया के सदस्‍य हैं और इसके पूर्व अध्‍यक्ष भी रहे हैं।

सवाल: अगर कन्‍नूर विश्‍वविद्यालय हिंदुत्‍व के विचारकों के लेखन को पाठ्यक्रम से बाहर कर देता, तो क्‍या इसे न्‍यायोचित ठहरा दिया गया होता ?

कुलदीप कुमार: विचारों का सामना विचारों से किया जाना चाहिए। विचारों को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। द्वितीय, परास्‍नातक स्‍तर के विद्यार्थी यह समझने और तय करने के लिए पर्याप्‍त परिपक्‍व होते हैं कि किस विचार का समर्थन करना है और किस विचार का विरोध करना है। अत: कुछ भी पाठ्यचर्या से बाहर नहीं रखना चाहिए। अगर कोई पाठ्यचर्या चीजों को जल्‍द ग्रहण करने वाली उम्र के स्‍कूली विद्यार्थियों के लिए संरचित हो रही है, तो शिक्षाविद् यह तय कर सकते हैं कि विषय को कैसे विद्यार्थियों के सामने पेश करना है। लेकिन परास्‍नातक स्‍तर पर इन विचारकों का मूल लेखन विचार-विमर्श के लिए उपलब्‍ध करवाया जाना चाहिए। हम उन्हें पसंद या नापसंद कर सकते हैं लेकिन कोई इससे इनकार नहीं कर सकता कि ये महत्‍वपूर्ण चिंतक हैं, विशेषत: आज के भारत में जहाँ उनके द्वारा समर्थित विचारधारा देश पर शासन कर रही है। यह विचारधारा केंद्र में और कुछ राज्‍यों में शासनरत है। विद्यार्थियों को समझना होगा कि यह विचारधारा है क्‍या, इसकी परिणतियाँ क्‍या हैं और फिर स्‍वयं के लिए चीजें तय करनी होंगी।

सवाल: हमने बहुत सारे उदाहरण देखे हैं जहाँ विद्यालय और महाविद्यालय की पाठ्यचर्या एक ही विचारधारा के वशीभूत हो गई हो। योगेंद्र जी, जब आपने एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्‍तकों को संपादित किया, तो आपने इसका सामना किया था। विचारों का विचारों से विरोध करना कैसे महत्‍वपूर्ण होता है ?

योगेंद्र यादव: मेरे दिमाग के अनुसार, जो कुछ वहाँ घटित हुआ, वह तीन आधारभूत सिद्धांतों की अवहेलना करता है। पहला, यह अकादमिक स्‍वायत्‍तता के सिद्धांत की अवहेलना करता है। यह विश्‍वविद्यालय का काम है कि वह क्‍या पढ़ाना चाहता है, न कि आज की सरकार का काम है (इस मामले में राजनीतिक दलों की ओर से इन कृतियों को छोड़ देने का दबाव था)। दूसरा सिद्धांत आलोचनात्‍मक शिक्षाशास्‍त्र से संबद्ध है - विद्यार्थियों को सभी प्रकार के विचारों से मुख़ातिब किया जाना चाहिए और आलोचनात्‍मक परीक्षण के लिए उन्‍हें प्रोत्‍साहित किया जाना चाहिए। मैं मानता हूँ कि विद्यार्थियों के मानस को लेकर हमारी राय बहुत घटिया है और ये तो परास्‍नातक के विद्यार्थी हैं। लेकिन मैं कक्षा 12 के विद्यार्थियों पर भी इसे लागू करूँगा। अंत में, यह अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता (Freedom Of Expression) के आधारभूत लोकतांत्रिक सिद्धांत का अतिक्रमण करता है।

आज के संदर्भ में यह ढीठता भी है क्‍योंकि यह वर्तमान सत्‍ता को गोला-बारुद मुहैया कराता है जो अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता से जुड़े सभी प्रकार के विचारों का गला घोटने में यकीन रखती है। यह सत्‍ता किसी दूसरे विश्‍वविद्यालय में इसी प्रकार की कोई चीज करने और यह कहने के लिए गोला-बारुद पा सकती है कि 'देखिए, एलडीएफ ने कन्‍नूर में क्‍या किया था।'

आपने एनसीईआरटी (NCERT) की पाठ्यपुस्तकों से जुड़े पूर्ववर्ती प्रकरण का जिक्र किया। ये कक्षा 9, 10 और 12 के लिए थीं। प्रोफेसर सुहास पलशीकर और मैं उन पुस्‍तकों के मुख्‍य संपादक थे। उस वक्‍त एक घटिया विवाद ने जन्‍म ले लिया जिसकी शुरुआत एक कार्टून से हुई थी जिसे अंबेडकर विरोधी के रूप में देखा गया था। यह विवाद दूसरे सभी कार्टूनों को भी अपने लपेटे में लेता गया जिन्‍हें राजनेता विरोधी और सत्‍ता विरोधी देखा गया। कांग्रेस उस वक्‍त सत्‍ता में थी। तब भी इन्‍हीं सिद्धांतों का अतिक्रमण किया गया था। एक संस्‍था के रूप में एनसीईआरटी की स्‍वायत्‍तता का कोई सम्‍मान नहीं किया गया।

सच्‍चाई यह है कि उन पाठ्यपुस्‍तकों के लेखन से पूर्व संवीक्षण के कई स्‍तर रहे थे। संसद ने इसे लेकर एक शासकीय दृष्टि अपनाई। मंत्री जी ने तय कर लिया कि उन्‍हें क्‍या निकाल फेंकना है और सीधे-सीधे अपने मंतव्‍य के क्रियान्‍वयन के लिए उन्‍होंने एक बिल्‍कुल ही लचीली समिति बना दी। उस पूरी बहस में आलोचनात्‍मक शिक्षाशास्‍त्र पर बहुत ही कम ध्‍यान दिया गया था। हर किसी को विश्‍वास था कि विद्यार्थी खाली बर्तन होते हैं। हर किसी को विश्‍वास था कि उन कार्टूनों को देखने मात्र से उनके दिमाग दूषित हो जाएँगे। यह परीक्षण करने में किसी की रुचि न थी कि असल में अंबेडकर के योगदान के बारे में बताने के लिए पाठ्यपुस्‍तक में क्‍या है और कि उन पुस्‍तकों का समग्र आशय क्‍या है। अभिव्‍यक्ति की आज़ादी को लेकर कोई गंभीर तर्क-वितर्क वहाँ न था।

सवाल: कुलदीप जी, आपने अपने एक लेख में बहस की भारतीय परंपरा के विषय में लिखा था और इस परंपरा के खोने पर खेद व्‍यक्‍त किया था।

कुलदीप कुमार: योंगेंद्र जी ने अभी जो कहा, उसमें मैं एक-दो वाक्‍य और जोड़ूँगा। वह कार्टून तब आया था जब नेहरू और अंबेडकर, दोनों जीवित थे। उन दोनों में से किसी को उस कार्टून से कोई समस्‍या न थी। नेहरू का प्रसिद्ध उद्धरण है जहाँ वे कार्टूनिस्‍ट शंकर से स्‍वयं को न छोड़ने के लिए कहते हैं। इस प्रकार के लोकतांत्रिक मूल्‍य (Democratic Values) के साथ आज़ाद राष्‍ट्र के रूप में भारत ने अपनी यात्रा शुरु की थी। हमारी लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों ने खुली छूट की वह जमीन तैयार की जिस पर खड़ा होकर हिंदुत्‍व असहमतियों का गला घोटने का काम करता है। आम जन में शास्‍त्रार्थ के रूप में प्रसिद्ध बौद्धिक बहस की यह परंपरा सिर्फ धवल अतीत तक सीमित न थी। विधवा विवाह के समर्थकों और विरोधियों के बीच में गहन बहस हुई थी।

यहाँ तक कि बीसवीं सदी में जब छोटी लड़कियों की विवाह योग्‍य उम्र को बढ़ाया गया और इसे लेकर बहस हुई तो समाज के कट्टरपंथी तबके और सुधारवादियों के बीच में विचार-विमर्श हुआ था। मुगलों के बहु निंदित दरबारों तक में विभिन्‍न धर्मों के विद्वानों के बीच में नियमित रूप से दार्शनिक तर्क-वितर्क हुआ करते थे। मेरा आशय यही है कि किसी को बहस से क्‍यों झिझकना चाहिए ? लेकिन विगत कई दशकों से हम धार्मिक भावनाओं के कंधों पर बंदूक रखकर शिकायत किए जाने की परंपरा देखते आ रहे हैं। यह खेदजनक है कि आज़ाद भारत में हम इस प्रकार की स्थिति झेल रहे हैं जो अपने मूल में दो टूक लोकतंत्र विरोधी है।

सवाल: असल में आज़ाद भारत में प्रत्‍येक सरकार इस या उस चीज को अपराध मानती हुई प्रतीत होती है। क्‍या यह वक्‍त अब भारतीय संदर्भ में अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता पर विचार करने का है ?

योगेंद्र यादव: यह बात सिर्फ केरल की वाम मोर्चा सरकार या आज केंद्र में बैठी भाजपा (BJP) की नहीं है। इन सभी सिद्धांतों पर कांग्रेस (Congress) के शासनों का कीर्तिमान एक प्रकार से मिश्रित ही रहा है। वाम मोर्चा सरकारों का विशेषत: पश्चिम बंगाल की सरकारों का प्रदर्शन भी काफी लज्‍जाजनक रहा है। इसलिए जब हम आज यह कहते हैं कि भाजपा यह कर रही है, तो यह पार्टी हमेशा पलटकर कह सकती है कि 'अच्‍छा ! तुम्‍हीं ने तो इसकी शुरुआत की थी।'

मेरा मानना है कि वास्‍तविक समस्‍या हमारी सार्वजनिक संस्‍कृति में है, जिन तीन सिद्धांतों का जिक्र मैंने किया, उनमें से किसी के लिए हमारे पास कोई गुंजाइश नहीं है। मुझे शंका है कि अकादमिक स्‍वायत्‍तता के सिद्धांत में कोई विश्‍वास नहीं करता है।

इसलिए जब आप अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता (Freedom Of Expression) के बारे में बोलते हैं और कहते हैं कि 'खैर, मैं इस फिल्‍म को नापसंद करता हूँ किंतु इसे प्रतिबंधित करने या सेंसर करने का कोई कारण नहीं है', तो आप एक त्रुटि के प्रति उदार प्रतीत होते और कुछ सुधार की जरूरत महसूस करते नज़र आते हैं। अफसोस की बात है कि पाश्‍चात्‍य लोकतंत्रों के उलट हम लोकतांत्रिक रूप से कमजोर और दरिद्र हैं। हम लोकतंत्र के इस आधारभूत सिद्धांत का विकास करने में असफल रहे हैं। 'द आर्ग्‍युमेंटेटिव इंडियन' में शास्‍त्रार्थ की इसी परंपरा को अमर्त्‍य सेन ने प्रसिद्ध बना दिया।

लेकिन पिछले 100 से ज्‍यादा सालों से हम इसे एक मूल्‍य के रूप में विकसित करने में असफल रहे हैं। हमारा संविधान (Indian Constitution) इसका उल्‍लेख करता है लेकिन इसे बहुत लोकप्रिय समर्थन हासिल नहीं है और यह जमीनी धरातल पर संवैधानिक मूल्‍यों में आई एक और गहन टूट-फूट का उदाहरण है। हम एक ऐसी चीज का परीक्षण कर रहे हैं जो व्‍यवस्‍था विशेष तक सीमित नहीं रहती है, यह एक विश्‍वविद्यालय, एक कुलपति और एक प्रकरण से परे चली जाती है।

सवाल: क्‍या अब हम संरचनागत रुग्‍णता देख रहे हैं ?

कुलदीप कुमार: हाँ, अंबेडकर के कार्टून वाले मसले पर लगभग सभी राजनीतिक दल (Political Parties) संसद में एक हो गए थे। हम एक समाज के रूप में लोगों का आदर्शीकरण करते हैं। हम उन्‍हें इतनी ऊँची चौकी पर रख देते हैं कि वे अर्द्ध देवता बन जाते हैं। दलित विरोधी होने का तमगा दे दिए जाने के डर से इन दिनों कोई खुलकर अंबेडकर (Dr. Bhimrao Ambedkar) की आलोचना नहीं कर सकता। अंबेडकरवादी अंबेडकर की कोई भी आलोचना बर्दाश्‍त नहीं करते। यह तो भक्ति है। अंबेडकर ने खुद लिखा था कि भक्ति धर्म में ठीक है किंतु राजनीति में यह तानाशाही की ओर ले जाती है। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र के विरुद्ध जाती है। जब आप विचारों का विरोध विचारों से नहीं करते हैं और असल में लेखन को ही प्रतिबंधित कर देते हैं, तो यह किसका नुकसान होता है ? कई तरह से यह उनकी मदद करता है जिनकी विचारधारा के साथ वर्तमान को समझने के लिए आपको टकराने की जरूरत पड़ती है। अगर आप ऐसे विवादास्‍पद मुद्दों पर विचार-विमर्श रोक देते हैं, तो परिणम बहुत दूरगामी होते हैं।

योगेंद्र यादव: स्‍पष्‍ट रूप से यह समाज की क्षति है। यह बात ऑन लिबर्टी (On Liberty) में जॉन स्‍टूअर्ट मिल द्वारा अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के पक्ष में दिए गए क्‍लासिक उदाहरण तक जाती है। उनका तर्क था कि कुतर्कों को भी फलने-फूलने देना चाहिए; झूठी चीजों को भी कहने देना चाहिए। कारण कि झूठ के विरुद्ध तर्क देकर ही आप सत्‍य को प्रतिष्ठित करते हैं। झूठ को सामने न आने देकर आप इस संदेह को बढ़ावा देते हैं कि जिस झूठ को यकायक बाहर का रास्‍ता दिखाया गया है, वह झूठ भी कुछ मूल्‍यवान है। मुझे संदेह है कि हमारे देश में सेकूलर शिक्षा जगत के वर्चस्‍व के दौर में यही वास्‍तव में घटित हुआ था।

यद्यपि आज बहस में इसकी कोई सार्थकता नहीं है, लेकिन मुझे लगता है कि अपनी चिंता और अति उत्‍साह में हम यह मान्‍यता रखते हुए इतिहास के कुछ पहलुओं के साथ खिलवाड़ करते हैं कि अगर हमारे विद्यार्थी इसे जान गए तो वे सांप्रदायिक बन सकते हैं। इतिहास के अप्रिय पहलुओं को छिपाने की इस प्रवृत्ति ने लंबी दौड़ में भाजपा की मदद ही की थी। कारण कि यह हमेशा कह सकती थी कि 'देखिए, आपको इस बारे में कभी नहीं बताया गया।' भाजपा इसे यों बढ़ाकर दिखाएगी जैसे कि मानो यही इतिहास में एकमात्र चीज हो। अत: लंबी दौड़ में समाज, लोकतंत्र और सद् विचारों को कष्‍ट झेलना पड़ता है, कारण कि बुरे विचारों को कहने नहीं दिया जा रहा होता है।

सवाल: जब विवादास्‍पद विचारधाराओं को सार्वजनिक दायरे में प्रस्‍तुत नहीं किया जाता है, तो आपके अनुसार किस सीमा तक प्रतिबंध उन विचारधाराओं को कसकर थामे हुए लोगों को फायदा पहुँचाता है ?

कुलदीप कुमार: चाहे यह विश्‍वविद्यालय की पाठ्यचर्या हो या मुक्‍त बाज़ार हो जहाँ से पुस्‍तक खरीदी जा सकती है, मुझे नहीं लगता कि किसी पुस्‍तक को प्रतिबंधित करना किसी को भी फायदा पहुँचाने वाला है। राष्‍ट्रीय नागरिकता रजिस्‍टर (NRC) पर हुई पूरी बहस को या उत्‍तर प्रदेश सरकार द्वारा बदले जा रहे सार्वजनिक वितरण के नए नियमों को देख लीजिए। अगर आप गोलवलकर की पुस्‍तक या तथाकथित भारतीयकरण पर बलराज मधोक (Balraj Madhok) की पुस्‍तक नहीं पढ़ते हैं तो आप नहीं समझ पाएँगे कि ये निर्णय सीधे इन विचारकों के लेखन और विचारों से निकलते हैं।

योगेंद्र यादव: मेरी समझ से कहानी सिर्फ भगवाकरण (Saffronisation) की नहीं है। मेरा मानना है कि जो भाजपा ने किया है और जो कन्‍नूर विश्‍वविद्यालय (Kannur University) ने किया है, उससे हमें व्‍यापक संदर्भ नहीं भूल जाना चाहिए। कारण कि विश्‍वविद्यालयों, महाविद्यालयों और विद्यालयों में जो कुछ आज घटित हो रहा है, पाठ्यक्रमों और पाठ्यचर्याओं के साथ जो छेड़छाड़ की जा रही है, वह सिर्फ पक्षपात मात्र नहीं है। एक बात तो यह अकादमिक गतिविधि का पूर्ण ह्रास है। दूसरी बात, इन पाठ्यपुस्‍तकों में से बहुतों में जो परोसा जा रहा है, वह तथ्‍यात्‍मक रूप से बिल्‍कुल गलत है। यह एक काल्‍पनिक इतिहास है। और तीसरी बात कि यह जो किया जा रहा है, वह संवैधानिक मूल्‍यों का विरोधी है।

सत्‍ता में होने पर राजनीतिक दल जो पक्षपातपूर्ण खेल खेलते हैं, अब यह उससे कहीं ज्‍यादा गंभीर चीज है। जो चीजें संवैधानिक मूल्‍यों के खिलाफ जाती है, उन्‍हें करने की अनुमति किसी भी निज़ाम को नहीं दी जानी चाहिए और जो अभी कायम किया जा रहा है, वह यही चीज है। और खेद की बात है कि कन्‍नूर विश्‍वविद्यालय का यह प्रकरण इस विश्‍वविद्यालय द्वारा किए गए अपराध से कहीं ज्‍यादा बदतर अपराधों को कायम रखने के लिए भाजपा और उन लोगों को गोलाबारुद ही मुहैया कराएगा जो शिक्षा के क्षेत्र में इस पार्टी की तरफ से कार्यरत हैं।

(इस साक्षात्कार के अनुवादक डॉ. प्रमोद मीणा महात्‍मा गाँधी केंद्रीय विश्‍वविद्यालय मोतिहारी में पढ़ाते हैं।)

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