चरम मानव निर्मित आपदाएं बनीं सामान्य, कनाडा में 500 और अमेरिका में 200 से अधिक नागरिकों अत्यधिक गर्मी से मौत
(कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत के छोटे कस्बे लेटन में पारा 49.6 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच गया)
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार ब्यूरो। पहले बाढ़, सूखा, चक्रवात इत्यादि प्राकृतिक आपदाओं की श्रेणी में आती थीं, पर आज के दौर में ऐसी आपदाएं मानव निर्मित हैं और इनकी आवृत्ति पहले से कई गुना बढ़ चुकी है। पिछले दो दशकों से वैज्ञानिक लगातार जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के प्रभावों से दुनिया को आगाह कर रहे हैं, और अब तो साल-दर-साल इनका प्रभाव भी दुनिया झेल रही है। मानव निर्मित तापमान वृद्धि के प्रभाव से चक्रवात, अत्यधिक गर्मी, बाढ़ और सूखा जैसी आपदाएं किसी विशेष क्षेत्र में नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में सामान्य घटनाएं हो चली हैं।
पिछले दो महीनों के भीतर ही यूरोप, अमेरिका और एशिया के देशों ने बाढ़, चक्रवात और अत्यधिक गर्मी का कहर देख लिया है। हाल में ही कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत के छोटे कस्बे लेटन में पारा 49.6 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच गया था और लगभग एक सप्ताह तक तापमान लगातार 45 डिग्री सेल्सियस पार करता रहा।
अमेरिका के अनेक शहरों में तापमान 46 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच गया था। अनुमान है कि केवल अत्यधिक गर्मी के कारण कनाडा में 500 और अमेरिका में 200 से अधिक नागरिकों की मौत हो गयी। दुनियाभर के पर्यावरण और जलवायु वैज्ञानिक इस आपदा का कारण मानव निर्मित जलवायु परिवर्तन बता रहे हैं। इन वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी समय-समय पर अनेक तरीकों से जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के बारे में दुनिया को आगाह कर रही है, पर हम सुनने को तैयार ही नहीं हैं।
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाईडेन ने इसे जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित आपदा बताया, जबकि कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने भी इन घटनाओं के लिए तापमान वृद्धि को ही जिम्मेदार बताया। ट्रूडो ने कहा कि ऐसी घटनाएं एक सबक हैं, जिससे सीखकर भविष्य में तापमान वृद्धि का बेहतर ढंग से मुकाबला किया जा सकेगा। इन सबके बीच भीषण गर्मी के कारण कनाडा और अमेरिका के शुष्क जंगल अब आग की चपेट में हैं और अनेक शहर घने काले धुएं से भर गए हैं।
जून के मध्य में यूरोप के अनेक देशों में तापमान के रिकॉर्ड ध्वस्त हो रहे थे। रूस के ओय्म्यको शहर को पृथ्वी पर स्थित सबसे ठंडा शहर कहा जाता है, क्योंकि साल के अधिकतर समय यहाँ का तापमान शून्य से नीचे ही रहता है। इस शहर का तापमान इस वर्ष जून के मध्य में लगभग 32 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच गया था। अब तो साइबेरिया भी गर्मी की चपेट में रहता है और अत्यधिक गर्म होने पर वहां के जंगलों में आग भी लगती है।
इस वर्ष जून में यूरोप में मास्को, हेलसिंकी, बेलारूस और एस्तोनिया के तापमान से सम्बंधित अनेक रिकॉर्ड ध्वस्त हो चुके हैं। अमेरिका के वाशिंगटन में लू से मौतें दर्ज की जा रही हैं। कनाडा, अमेरिका और यूरोप में गर्मी से सड़कें पिघल रही हैं, जंगलों में आग लग रही है, बिजली के तार पिघल रहे हैं और मौतें तो हो ही रही हैं। यूरोप में वर्ष 2019 में अत्यधिक गर्मी के कारण लगभग 4000 से अधिक मौतें दर्ज की गईं थीं।
इसी वर्ष इटली के कुछ क्षेत्रों में अत्यधिक गर्मी के कारण खेतों में दोपहर में काम करने वाले अनेक मजदूरों की मृत्यु हो गयी, इसके बाद एक सरकारी आदेश के तहत खेतों में दोपहर 12.30 से 4.30 तक काम करना प्रतिबंधित कर दिया गया। अप्रैल में केवल दो दिनों की अत्यधिक गर्मी के कारण बांग्लादेश में 68000 हेक्टेयर में खडी धान की फसल बर्बाद हो गई, इससे 3 लाख किसान प्रभावित हुए और आर्थिक तौर पर लगभग 4 करोड़ डॉलर का नुकसान हुआ।
इन सभी आपदाओं से अब जलवायु वैज्ञानिकों को कोई आश्चर्य नहीं होता, क्योंकि पिछले दो दशकों से वैज्ञानिक लगातार ऐसी आपदाओं की चेतावनी दे रहे हैं। अब तो जलवायु परिवर्तन और जलवायु आपदा दुनियाभर में रोजमर्रा का शब्द हो गया है। ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी ने "जलवायु आपातकाल" को वर्ष 2019 का सबसे प्रचलित शब्द घोषित किया था। इसके अनुसार वर्ष 2018 की तुलना में जलवायु आपातकाल के उपयोग में 100 गुणा से भी अधिक की बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी है।
जलवायु आपातकाल एक ऐसी स्थिति है, जिसमें जलवायु परिवर्तन को रोकने या फिर कम करने की तत्काल आवश्यकता है जिससे इसके कारण होने वाले प्रभावों को कम किया जा सके। अनेक भाषाविदों ने यह सवाल उठाया कि यह एक शब्द नहीं बल्कि दो शब्द है, पर दूसरे भाषा विशेषज्ञों के अनुसार यह एक शब्द है जिसके दो हिस्से है और आमतौर पर "हार्ट अटैक" या फिर "फेक न्यूज़" जैसे शब्द एक ही शब्द मान लिए जाते हैं। जलवायु परिवर्तन किस हद तक जनता के बीच पहुँच गया है, "जलवायु आपातकाल" को वर्ष 2019 का शब्द माना जाना ही बता देता है। कहा जा रहा है कि अब इसका इस्तेमाल जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि की तुलना में भी अधिक किया जा रहा है। दरअसल जलवायु आपातकाल शब्द आपातकाल की एक नयी कड़ी है। इससे पहले राजनैतिक आपातकाल और स्वास्थ्य आपातकाल की ही चर्चा की जाती थी।
हाल में ही अमेरिका के नासा और नेशनल ओसानोग्रफिक एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा संयुक्त तौर पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी द्वारा सूर्य की गर्मी को अवशोषित करने की दर वर्ष 2005 से अब तक दुगुनी से भी अधिक हो चुकी है। तापमान वृद्धि का मुख्य कारण पृथ्वी द्वारा गर्मी को अवशोषित करने की दर का बढ़ना ही है। सूर्य से जो किरणें पृथ्वी पर पहुँचती हैं, उनका एक हिस्सा पृथ्वी अवशोषित करती है और शेष किरणें परावर्तित होकर अंतरिक्ष में पहुँच जाती हैं। नए अध्ययन के अनुसार पृथ्वी में अवशोषित होने वाली किरणों का असर तो बढ़ रहा है, पर परावर्तन में कमी आ गयी है, और इस असमानता के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है।
वर्ष 2019 में दुनिया के 153 देशों के 11258 वैज्ञानिकों ने एक रिपोर्ट प्रकाशित कर जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि को दुनिया के लिए आपातस्थिति घोषित कर दिया और कहा इसके ऐसे प्रभाव पड़ेंगे जिसके बारे में हम सोच भी नहीं सकते। इसमें भारत के 65 वैज्ञानिक भी शामिल थे जो विभिन्न शोध संस्थानों और शिक्षण संस्थानों से जुड़े हैं। यह रिपोर्ट प्रसिद्ध विज्ञान जर्नल, बायोसाइंस, के अंक में "वर्ल्ड साइंटिस्ट्स वार्निंग ऑफ़ ए क्लाइमेट इमरजेंसी" शीर्षक से प्रकाशित की गई थी। इन वैज्ञानिकों ने पिछले 40 वर्षों के सम्बंधित आंकड़ों का विश्लेषण करने के बाद इस रिपोर्ट को प्रस्तुत किया है। रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन रोकने में नाकाम सरकारों के विरुद्ध जन-प्रदर्शनों की सराहना भी की गई थी।
आश्चर्य यह है कि इस गर्मी और जलवायु परिवर्तन के बीच मानव शरीर का सामान्य तापमान कम होता जा रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार पिछले लगभग 150 वर्षों के दौरान मानव शरीर का सामान्य तापमान 98.6 डिग्री फारेनहाईट (37 डिग्री सेल्सियस) से घटकर 97.5 डिग्री फारेनहाईट (36.41 डिग्री सेल्सियस) तक आ गया। इसका सीधा सा मतलब है कि यदि पृथ्वी का औसत तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है तो मानव शरीर को केवल एक डिग्री बढ़े तापमान से नहीं निपटना है, बल्कि 1.6 डिग्री सेल्सियस तापमान के अंतर से जूझना पड़ेगा। यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है, पर इस बारे में वैज्ञानिक जगत में कोई चर्चा नहीं की जा रही है।