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पर्यावरण

एक इंसान के शरीर में हर साल भोजन और सांस के साथ पहुंचते हैं लगभग सवा लाख प्लास्टिक के टुकड़े, पक्षियों में भी पनप रही खूब बीमारी

Janjwar Desk
10 March 2023 8:07 AM GMT
एक इंसान के शरीर में हर साल भोजन और सांस के साथ पहुंचते हैं लगभग सवा लाख प्लास्टिक के टुकड़े, पक्षियों में भी पनप रही खूब बीमारी
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file photo

प्लास्टिक खाने वाले पक्षियों के आँतों के शुरुआती भाग प्रोवेंटरीक्युलस में सूजन आ जाती है और इसके टूब्युलर ग्लांड्स काम करना बंद कर देते हैं, इससे पक्षी दूसरी बीमारियों से और परजीवियों से आसानी से संक्रमित हो जाते हैं, इनकी भोजन अवशोषित करने की क्षमता प्रभावित होती है...

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

Scientists have found first evidence that plastics cause disease in sea-birds. प्लास्टिक के कचरे से पूरी दुनियाभर गयी है। पहाड़ों की चोटियों से लेकर महासागर की गहराइयों तक प्लास्टिक पहुँच चुका है। प्लास्टिक का कचरा महासागर के जीवों से लेकर वन्यजीवों के पेट तक पहुँच रहा है। इन सबकी खूब चर्चा भी की जाती है। एक अनुसन्धान यह बताता है कि एक औसत मनुष्य प्रतिवर्ष भोजन के साथ और सांस के साथ प्रतिवर्ष लगभग सवा लाख प्लास्टिक के टुकड़े को अपने शरीर के अन्दर पहुंचा रहा है। यह अनुसंधान एनवायर्नमेंटल साइंस एंड टेक्नोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया था।

प्लास्टिक प्रदूषण और मानव स्वास्थ्य पर चर्चा के बीच लन्दन के नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम के वैज्ञानिकों ने प्लास्टिक खाने के कारण समुद्री पक्षियों में पनपने वाली बीमारी के बारे में बताया है, और इस बीमारी को प्लास्टिकोसिस का नाम दिया है। यह अनुसंधान ऑस्ट्रेलिया के लार्ड हॉवे आइलैंड पर मिलने वाले “फ्लेश-फूटेड शियरवाटर्स” नामक पक्षियों पर किया गया है और समुद्री पक्षियों के स्वास्थ्य पर प्लास्टिक के प्रभाव से सम्बंधित पहला व्यापक अध्ययन है। इस अध्ययन को जर्नल ऑफ़ हजार्डोस मटेरियल में प्रकाशित किया गया है।

अध्ययन के अनुसार प्लास्टिक खाने वाले पक्षियों के आँतों के शुरुआती भाग प्रोवेंटरीक्युलस में सूजन आ जाती है और इसके टूब्युलर ग्लांड्स काम करना बंद कर देते हैं, इससे पक्षी दूसरी बीमारियों से और परजीवियों से आसानी से संक्रमित हो जाते हैं, इनकी भोजन अवशोषित करने की क्षमता प्रभावित होती है और कुछ विटामिनों के अवशोषण पर भी असर पड़ता है। इसके बाद आंतें अपना आकार बदलने लगती हैं और इनपर घाव हो जाता है। इससे इन पक्षियों की सामान्य बृद्धि प्रहावित होती है और इनका जीवन खतरे में पड़ जाता है।

नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम के वैज्ञानिक डॉ अलेक्स बांड और सहयोगी डॉ जेनिफर लावेर्स के अनुसार इन पक्षियों में प्लास्टिक की मात्रा का ग्रहण और इससे पनपने वाली बीमारी के स्तर का आकलन किया गया, जिसके अनुसार इन दोनों का सीधा सम्बन्ध है। महासागरों और द्वीपं पर प्लास्टिक कचरा इतना सामान्य है कि इन पक्षियों में मादा अपने बच्चों को भी चोंच से जो खाना खिलाती है, उसमें भी प्लास्टिक मौजूद रहता है। इस कारण बच्चे पक्षी भी इस रोग का शिकार हो रहे हैं। अनुसंधान के दौरान यह तथ्य स्पष्ट हुआ कि इन पक्षियों के भोजन में दूसरे पदार्थों, जैसे पुमिक स्टोन या रेत की उपस्थिति से पक्षियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह प्रभाव केवल प्लास्टिक से ही पड़ता है, इसीलिए इस रोग को प्लास्टिकोसिस का नाम दिया गया है।

सवाल यह है कि प्लास्टिक के ये टुकड़े आते कहाँ से हैं? प्लास्टिक अपशिस्ट, जो इधर-उधर बिखरा पड़ा होता है वह समय के साथ और धूप के कारण छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँट जाता है, फिर और छोटे टुकड़े होते हैं और अंत में पाउडर जैसा हो जाता है। यह हल्का होता है, इसलिए हवा के साथ दूर तक फैलता है और अंत में खाद्य-चक्र का हिस्सा बन जाता है। यह हवा में मिलकर श्वांस के साथ फेफड़े तक भी पंहुंच जाता है।

प्लास्टिक के छोटे टुकड़ों को माइक्रो-प्लास्टिक कहा जाता है, जबकि बहुत छोटे टुकड़े जो आँखों से नहीं दिखाते हैं, वे नैनो-प्लास्टिक हैं। यही नैनो-प्लास्टिक सारी समस्या की जड़ हैं और ये अब पूरी दुनिया की हवा और पानी तक पहुँच चुके हैं। यही खाद्य पदार्थों में, पानी में और हवा में फ़ैल गए हैं। अब इनसे मुक्त न तो हवा है, न ही पानी और न ही खाने का कोई सामान।

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