बाढ़ और सूखे जैसी स्थितियों के कारण दुनिया में बढ़ रही भुखमरी, 10 देशों में मात्र 6 सालों में अत्यधिक भूखों की संख्या में 123 प्रतिशत बढ़ोत्तरी
4 बच्चों और पति की मौत के बाद भीख मांगकर दो बेटियों के साथ गुजारा करती मुसहर महिला को नहीं मिलता किसी सरकारी योजना का लाभ, मगर ये नहीं किसी मीडिया के लिए खबर (file photo janjwar)
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
Acute hunger is increasing in worst climate crisis hotspots in the world. बाढ़ और भयानक सूखा जैसी चरम पर्यावरणीय आपदाएं अब दुनिया के लिए सामान्य स्थिति है, क्योंकि पूरे साल कोई ना कोई क्षेत्र इनका सामना कर रहा होता है। जब ऐसी स्थितियां यूरोप, अमेरिका या एशिया के कुछ देशों में पनपती हैं तब दुनियाभर का मीडिया इन्हें दिखाता है, पर अफ्रीका और दक्षिण अमेरिकी देशों के मामले में मीडिया चुप्पी साध लेता है। वैश्विक मीडिया के लिए पूरी दुनिया गोरे और अमीर आबादी में सिमट कर रह गयी है। चरम पर्यावरणीय आपदाएं भी जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि के सन्दर्भ में एक गलत नाम है, क्योंकि इन चरम घटनाओं का कारण प्रकृति और पर्यावरण नहीं है, बल्कि मनुष्य की गतिविधियाँ हैं, जिनके कारण बेतहाशा ग्रीनहाउस गैसों का वायुमंडल में उत्सर्जन हो रहा है।
पिछले कुछ महीनों से दुनिया में खाद्य संकट और भुखमरी पर जब भी चर्चा की गयी, उसे हमेशा रूस-यूक्रेन युद्ध से जोड़ा गया और चरम पर्यावरणीय आपदाओं पर कम ही चर्चा की गयी। ऑक्सफेम की एक नई रिपोर्ट, "हंगर इन अ हीटिंग वर्ल्ड" के अनुसार बाढ़ और सूखा जैसी स्थितियों के कारण दुनिया में भुखमरी बढ़ रही है और इसका सबसे अधिक असर उन देशों पर पड़ रहा है जो जलवायु परिवर्तन की मार से पिछले दशक से लगातार सबसे अधिक प्रभावित हैं।
रिपोर्ट के अनुसार सबसे अधिक प्रभावित 10 देशों – सोमालिया, हैती, जिबूती, केन्या, नाइजर, अफ़ग़ानिस्तान, ग्वाटेमाला, मेडागास्कर, बुर्किना फासो और ज़िम्बाब्वे - में पिछले 6 वर्षों के दौरान अत्यधिक भूखे लोगों की संख्या 123 प्रतिशत बढ़ गयी है। इन सभी देशों पिछले एक दशक से भी अधिक समय से सूखे का संकट है। इन देशों में अत्यधिक भूख की चपेट में आबादी तेजी से बढ़ रही है – वर्ष 2016 में ऐसी आबादी 2 करोड़ से कुछ अधिक थी थी, अब यह आबादी लगभग 5 करोड़ तक पहुँच गयी है और लगभग 2 करोड़ लोग भुखमरी की चपेट में हैं।
चरम पर्यावरणीय आपदाओं से कृषि किस तरह प्रभावित हो रही है, इसका उदाहरण हमारा देश भी है। पर, विश्वगुरु बनने की राह पर और आजादी के अमृत महोत्सव में डूबे देश में ऐसी खबरें पूरी तरीके से उजागर नहीं होतीं। यहाँ ऐसी खबरों के लिए छोटी-छोटी खबरों को जोड़ना पड़ता है। केंद्र सरकार के आंकड़ों के अनुसार इस वर्ष, यानि 2022 में चावल सहित पैडी फसलों की बुवाई के क्षेत्र पिछले वर्ष की तुलना में 12.3 प्रतिशत कम रहा है और इस कारण अनुमान है कि चावल की पैदावार में 1.2 करोड़ टन की कमी आयेगी।
पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष चावल की बुवाई का क्षेत्र लगभग 38 लाख हेक्टेयर कम है और इस कमी का कारण देश में असमान बारिश और कुछ क्षेत्रों में भयानक सूखा है। इसी वर्ष हमारे देश में मार्च के महीने से ही चरम तापमान के रिकॉर्ड ध्वस्त होने लगे थे। तापमान बृद्धि का सबसे चर्चित प्रभाव चरम तापमान की घटनाएं ही हैं। तापमान में यह बृद्धि सामान्य तापमान से औसतन 8 से 10 डिग्री सेल्सियस तक अधिक थी, जिसके प्रभाव से गेहूं सहित सभी रबी फसलों, सब्जियों, फलों और मवेशियों पर पड़ा।
इंडियन कौंसिल ऑफ़ एग्रीकल्चरल रिसर्च की एक रिपोर्ट के अनुसार चरम तापमान का सर्वाधिक प्रभाव पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में देखा गया। इसके कारण गेहूँ के उत्पादन में 15 से 25 प्रतिशत, मक्के में 18 प्रतिशत और चने में 20 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की गयी है। चरम तापमान के असर से अंडे के उत्पादन में 4 से 7 प्रतिशत और दूध में 15 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की गयी। हाल में हमारे पड़ोसी देश, पाकिस्तान में अभूतपूर्व बाढ़ के कारण एक-तिहाई देश डूब गया था। जाहिर है, इन क्षेत्रों में खेतों में खडी फसलें भी नष्ट हो गयी होंगी। पाकिस्तान भी मार्च के महीने से ही चरम गर्मी की चपेट में था और अनेक इलाके सूखे का सामना कर रहे थे।
ऑक्सफेम की रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन का दुनिया में असमानता बढ़ा रहा है। जलवायु परिवर्तन अमीर और औद्योगिक देशों द्वारा किये जा रहे ग्रीनहाउस गैसों के कारण बढ़ रहा है, पर इससे सबसे अधिक प्रभावित गरीब देश हो रहे हैं। इसीलिए, ऐसी परिस्थितियों में यदि अमीर देश गरीब देशों की मदद करते हैं तब उसे आभार नहीं कहा जा सकता, बल्कि ऐसी मदद अमीर देशों का नैतिक कर्तव्य है।
रिपोर्ट के अनुसार इन 10 देशों को भुखमरी से बाहर करने के लिए कम से कम 49 अरब डॉलर के मदद की तत्काल आवश्यकता है। दूसरी तरफ अमीर देशों की पेट्रोलियम कम्पनियां केवल 18 दिनों के भीतर ही 49 अरब डॉलर से अधिक का मुनाफा कमा लेती हैं, इसके लिए ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कर पृथ्वी को गर्म कर रही हैं और इसका खामियाजा गरीब देश भुगत रहे हैं। अमीर देशों के समूह, जी-20 के सदस्य दुनिया के कुल ग्रीनहाउस गैसों का तीन-चौथाई से अधिक उत्सर्जन करते हैं, जिससे जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि बढ़ता जा रहा है – दूसरी तरफ दुनिया में जलवायु परिवर्तन की सबसे अधिक मार झेलने वाले 10 देशों का सम्मिलित ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन महज 0.13 प्रतिशत है।
दुनिया में भुखमरी का कारण अनाज की कमी नहीं, बल्कि गरीबी है। दुनिया में चरम पर्यावरण की मार झेलने के बाद भी जितना खाद्यान्न उपजता है, उससे दुनिया में हरेक व्यक्ति को प्रतिदिन 2300 किलोकैलोरी का पोषण मिल सकता है, जो पोषण के लिए पर्याप्त है, पर समस्या खाद्यान्न के असमान वितरण की है, और गरीबी की है। गरीबी के कारण अब बड़ी आबादी खाद्यान्न उपलब्ध होने के बाद भी इसे खरीदने की क्षमता नहीं रखता है।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने वर्ष 1943 के दौरान बंगाल में पड़े अकाल का भी विस्तृत विश्लेषण कर बताया था कि उस समय अधिकतर मृत्यु अनाज की कमी से नहीं, बल्कि गरीबी के कारण हुई थी। जाहिर है, वर्ष 1943 से आज तक इस सन्दर्भ में दुनिया में जरा भी बदलाव नहीं आया है – उस समय भी गरीबी से लोग भुखमरी के शिकार होते थे और आज भी हो रहे हैं।
यूगांडा की पर्यावरण एक्टिविस्ट वनेस्सा नकाते ने हाल में ही एक साक्षात्कार में कहा है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का असर सबसे अधिक अफ्रीका के देशों में हो रहा है, पर वैश्विक मीडिया में यह उपेक्षित है। उन्होंने आगे कहा कि यदि किसी समुदाय को वैश्विक मीडिया जानबूझ कर नजर अंदाज करता है तब दुनिया उस क्षेत्र की समस्याओं और स्थानीय समाधानों से अनजान रहती है – हमारी आवाज को दबाना दरअसल हमारे इतिहास को नष्ट करने जैसा है।
वनेस्सा नकाते के अनुसार काले और भूरे लोगों की आवाजों को वैश्विक मीडिया जानबूझ कर नकारता है। वनेस्सा नकाते को पहली बार दुनिया ने वर्ष 2020 के दौरान दावोस में वर्ल्ड इकनोमिक फोरम के कार्यालय के सामने प्रदर्शन में देखा था, जब एसोसिएटेड प्रेस के एक फोटोग्राफर ने ग्रेटा थनबर्ग के साथ तीन अन्य गोरी पर्यावरण एक्टिविस्ट की तस्वीर खींच कर पोस्ट की, पर शायद गलती से उस तस्वीर में वनेस्सा नकाते में भी नजर आ रही थीं।
संयुक्त राष्ट्र के फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2021 में पिछले वर्ष की तुलना में 19.3 करोड़ अधिक लोग भुखमरी की चपेट में आ गए – इसका कारण गृह युद्ध और अराजकता, जलवायु परिवर्तन और आर्थिक संकट है। गृह युद्ध और अराजकता के कारण 24 देशों में लगभग 14 करोड़ आबादी, आर्थिक कारणों से 21 देशों में 3 करोड़ आबादी और चरम पर्यावरणीय आपदाओं के कारण अफ्रीका के 8 देशों में 2 करोड़ से अधिक आबादी भुखमरी की श्रेणी में शामिल हो गयी। वर्ष 2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की एक-तिहाई से अधिक आबादी आर्थिक तौर पर इतनी कमजोर है कि पर्याप्त भोजन खरीद नहीं सकती।