दुनियाभर में कृषि उत्पादकता में आ रही कमी, तापमान में वृद्धि न होती तो 21 प्रतिशत अधिक होती उत्पादकता
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वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
दुनियाभर में कृषि उत्पादन भले ही बढ़ता दिखाई देता हो, पर सच तो यह है कि कृषि उत्पादकता में कमी आ रही है। नेचर क्लाइमेट चेंज नामक जर्नल में कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों द्वारा प्रकाशित एक शोधपत्र का निष्कर्ष है कि वर्ष 1961 के बाद से जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से कृषि उत्पादकता में 21 प्रतिशत की कमी आ गयी है। इस शोधपत्र में कृषि उत्पादकता का आंकलन अनाज उत्पादन में शामिल मानव श्रम, कीटनाशकों, रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक और खेती में इस्तेमाल की जाने वाली मशीनों के सन्दर्भ में किया गया है। इसके अनुसार यदि तापमान में वृद्धि नहीं होती तो वर्तमान में अनाज उत्पादन में जितना मानव श्रम, रसायन और मशीनों का उपयोग किया जा रहा है, उसके कारण उत्पादकता 21 प्रतिशत अधिक होती।
यह अध्ययन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वर्ष 2050 तक दुनिया की आबादी 9 अरब तक पहुंच जायेगी। संयुक्त राष्ट्र के फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन के आकलन के अनुसार इतनी बड़ी आबादी के लिए 70 प्रतिशत अधिक खाद्यान्न की जरूरत होगी, यानि हरेक वर्ष कृषि उत्पादों में 1 अरब टन और मांसाहारी उत्पादों में 20 करोड़ टन की बढ़ोत्तरी करनी पड़ेगी। इन सबके बीच कृषि उत्पादकता में कमी निश्चित तौर पर चिंता का विषय है।
इस दौर में खेती का लागत मूल्य बढ़ता जा रहा है और उत्पादन भी सतही तौर पर बढ़ रहा है। पर, जल्दी ही हम उस हद को पार कर चुके होंगें जहां उत्पादकता बढ़ाना असंभव होगा क्योंकि अत्यधिक खेती और रसायनों के अंधाधुंध उपयोग से जमीन पूरी तरह से बंजर होती जायेगी। दूसरी तरफ इस दौर में खेती की भूमि के विस्तार के लिए बड़े पैमाने पर जंगलों को काटा जा रहा है। जंगलों के कटने से जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि को बढ़ावा मिल रहा है और दूसरी तरफ वन्य जीवों पर संकट भी बढ़ रहा है। हाल में ही एक शोध से पता चला है कि अमीर देशों के उपभोक्तावाद के कारण प्रति व्यक्ति की दर से प्रति वर्ष 4 पेड़ काटे जा रहे हैं।
इन्टर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के अनुसार तापमान वृद्धि के साथ-साथ जीवन को संभालने की पृथ्वी की क्षमता ख़त्म होती जा रही है। तापमान वृद्धि से सूखा, मिट्टी के हटने (मृदा अपरदन) और जंगलों में आग के कारण कहीं कृषि उत्पादों का उत्पादन कम हो रहा है तो कहीं भूमि पर जमी बर्फ तेजी से पिघल रही है। इन सबसे भूख बढ़ेगी, लोग विस्थापित होंगे, युद्ध की संभावनाएं बढेंगी और जंगलों को नुकसान पहुंचेगा। भूमि का विनाश एक चक्र की तरह असर करता है – जितना विनाश होता है उतना ही कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ता है और वायुमंडल को पहले से अधिक गर्म करता जाता है।
आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार भूमि और जंगलों को स्वतः पनपने का मौका दिया जाना चाहिए, जिससे अधिक मात्रा में कार्बन को वायुमंडल में मिलने से रोका जा सके, मांसहार के बदले लोगों को शाकाहार अपनाना चाहिए और भोजन को नष्ट नहीं करना चाहिए। इन सबसे मनुष्य का स्वास्थ्य सुधरेगा, गरीबी कम होगी और जंगलों की आग पर काबू पाया जा सकेगा।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ एडिनबर्ग के प्रोफ़ेसर डेव रे के अनुसार पृथ्वी का क्षेत्र वही है पर निर्बाध गति से जनसंख्या बढ़ती जा रही है और दूसरी तरफ इसके चारों तरफ का वायुमंडल घुटन भरा हो गया है। कुल मिलाकर ऐसी स्थिति है जिसे जलवायु आपातकाल कहा जा सकता है। हालत ऐसे हैं कि पृथ्वी भी अब छोटी पड़ने लगी है और इसका पारिस्थितिकी तंत्र और वातावरण कभी इतने खतरे में नहीं था।
एक अध्ययन के अनुसार भारत में यदि भविष्य की दृष्टि से पोषण का ध्यान रखना है तो चावल उत्पादन का क्षेत्र को कम करना होगा और मोटे अनाज, जो पर्यावरण की दृष्टि से अनुकू ल हैं, के उत्पादन के क्षेत्र को बढ़ाना होगा। प्रोसिडिंग्स ऑफ़ नेशनल अकादमी ऑफ़ साइंस नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार भारत को जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभावों को कम करते हुए यदि पोषण के स्तर को कायम रखना है तब रागी। बाजरा और जई जैसे फसलों का उत्पादन बढ़ाना होगा। इस अध्ययन को कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के डाटा साइंस इंस्टिट्यूट ने किया है।
कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के डाटा साइंस इंस्टिट्यूट के वैज्ञानिक डॉ कैले डेविस ने भारत में जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभावों, पोषण स्तर, पानी की कमी, घटती कृषि उत्पादकता और कृषि विस्तार के लिए भूमि के अभाव पर गहन अध्ययन किया है और इस सन्दर्भ में अनेक शोधपत्र प्रकाशित किये हैं। इनके अनुसार भारत में तापमान वृद्धि के कारण कृषि में उत्पादकता घट रही है और साथ ही पोषत तत्व भी कम होते जा रहे हैं। भारत को यदि तापमान वृद्धि के बाद भी भविष्य के लिए पानी बचाना है और साथ ही पोषण स्तर भी बढ़ाना है तो गेंहू और चावल पर निर्भरता कम करनी होगी। इन दोनों फसलों को पानी की बहुत अधिक आवश्यकता होती है और इनसे पूरा पोषण भी नहीं मिलता।