Climate Change : जलवायु परिवर्तन रोकने के वार्षिक नाटक के बीच पनपता रहेगा पूंजीवाद और मरते रहेंगे लोग
महेंद्र पांडेय की टिप्पणी
Air pollution control and climate change negotiations are annual episodes of a long play. दिल्ली के वायु प्रदूषण नियंत्रण की तरह ही तापमान बृद्धि और जलवायु परिवर्तन रोकने के नाम पर वार्षिक नाटक का मंचन हरेक वर्ष पूरी तन्मयता से किया जाता है। दिल्ली के वायु प्रदूषण नियंत्रण में नाटक के पात्र न्यायालय, केंद्र सरकार, दिल्ली सरकार, पीएमओ के साथ ही केंद्र और राज्य सरकार के 10 से अधिक मंत्रालय और विभाग है, सभी काम करते हैं और प्रदूषण लगातार बढ़ता जाता है। इस नाटक के सभी पात्र बारी-बारी से पड़ोसी राज्यों के किसानों को और हवा की गति को प्रदूषण का जिम्मेदार बताते हैं। यही नाटक हरेक वर्ष आयोजित किया जाता है।
ठीक इसी तरह जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि को रोकने का अंतरराष्ट्रीय वार्षिक नाटक संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में आयोजित किया जाता है, जिसे कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज, यानी कॉप, कहा जाता है। इस वर्ष इस कॉप के 29वें संस्करण का आयोजन अज़रबैजान की राजधानी बाकू में आयोजित किया जा रहा है। इसमें लगभग सभी देश के राष्ट्राध्यक्ष या फिर उच्चस्तरीय प्रतिनिधि शामिल होते हैं। जलवायु परिवर्तन रोकने और इसके प्रभावों से निपटने की तमाम घोषणाएं की जाती हैं, मीडिया और वैज्ञानिक समुदाय में इन घोषणाओं की तारीफ़ों के पुल बांधे जाते हैं। अगले साल आते-आते दुनिया पहले से अधिक गरम हो चुकी है, चरम प्राकृतिक आपदाएं रिकॉर्ड विनाश करती हैं, पहले से अधिक क्षेत्र जंगलों की आग की चपेट में आ चुके होते हैं, ग्लेशियर पिघलते जाते हैं फिर भी कॉप सम्मेलनों में वही उत्साह और घोषणाएं की जाती हैं।
जलवायु से संबंधित नीतियों पर आधारित विशेषज्ञों के एक प्रभावी दल ने हाल में ही कहा है कि कॉप सम्मेलन अब अपनी गरिमा खो चुके हैं और अपना उद्देश्य भूल चुके हैं, यह आयोजन अब व्यर्थ हो चुका है और इससे कोई उम्मेद करना ही बेमानी है। इस दल में संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव बान की मून, आयरलैंड के पूर्व प्रधानमंत्री, संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन के पूर्व मुखिया के साथ ही अनेक वैज्ञानिक और शिक्षाविद शामिल हैं।
संयुक्त राष्ट्र को भेजे गए पत्र में इस दल ने कहा है कि कॉप का सबसे बाद मजाक तो इसका आयोजन स्थल ही रहता है। इसका आयोजन लगातार उन देशों में किया जा रहा है जो देश तापमान बृद्धि रोकने के लिए जरा भी प्रतिबद्धता नहीं दिखाते हैं और इसे एक मजाक की तरह समझते हैं। एक तरफ लगातार वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि जीवाश्म ईंधनों के उत्पादन और उपयोग को जल्दी से जल्दी रोकने की जरूरत है, तो दूसरी तरफ पता नहीं किस मजबूरी में कॉप का आयोजन ऐसे देशों में कराया जा रहा है, जो पेट्रोलियम उत्पादन को लगातार सार्वजनिक तौर पर बढ़ाते जा रहे हैं। इस वर्ष इसका आयोजन अज़रबैजान में किया जा रहा है, पिछले वर्ष इसका आयोजन संयुक्त अरब अमीरात में किया गया था – दोनों देशों की अर्थव्यवस्था का आधार ही पेट्रोलियम उत्पाद हैं, दिनों देश इसका उत्पादन लगातार बढ़ रहे हैं और सार्वजनिक तौर पर जीवाश्म ईंधनों की कमी या बंद किए जाने की घोषणाओं का मुखर विरोध करते हैं।
जीवाश्म ईंधन से जुड़ी कंपनियों के प्रतिनिधियों को तो ऐसे आयोजनों से प्रतिबंधित कर देना चाहिए, जिससे वे सदस्यों को या फिर निर्णयों को प्रभावित नहीं कर सकें। पर स्थिति इसके ठीक विपरीत है, जीवाश्म ईंधनों से जुड़े प्रतिनिधियों की संख्या वैज्ञानिकों, जनजातीय समुदायों और सबसे अधिक प्रभावित देशों के प्रतिनिधियों की सम्मिलित संख्या से भी अधिक रहती है। संयुक्त अरब अमीरात में भी ऐसी ही स्थिति थी, और वर्तमान कॉप-29 में भी वैज्ञानिकों, जनजातीय समुदायों और तापमान बृद्धि से सर्वाधिक प्रभावित देशों के प्रतिनिधियों की कुल संख्या, 1033, की तुलना में जीवाश्म ईंधन उत्पादक प्रतिनिधियों की संख्या 1773 है।
संयुक्त अरब अमीरात में आयोजित कॉप-28 के अध्यक्ष सुल्तान अल जबेर आयोजन के समय भी नेशनल आयल कंपनी, अडनोक, के मुखिया थे। अज़रबैजान में आयोजन समिति के एक सदस्य कॉप-29 के उद्घाटन समारोह के दौरान कैमरे के सामने जीवाश्म इंधनों की डील में व्यस्त दिखे। अज़रबैजान के राष्ट्रपति ने कॉप-29 के उद्घाटन के दौरान जीवाश्म इंधनों को ईश्वर का उपहार करार दिया। कॉप अधिवेशनों में विकासशील और गरीब देशों को अधिक समय देने की मांग भी लगातार की जाती रही है, पर ये सभी अधिवेशन अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों पर ही केंद्रित रहते हैं। यही देश तापमान बृद्धि के लिए जिम्मेदार हैं और यही देश इसे रोकने का पाठ भी पढ़ाते हैं।
अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति और पर्यावरणविद अल गोरे ने कहा है कि दुनिया को यह पता है कि तापमान बृद्धि को किसी भी स्थिति में 1.5 डिग्री सेल्सियस पर नहीं रोक जा सकता है, फिर भी सारी घोषणाएं और वार्ता इसी आधार पर की जा रही हैं, जाहिर है सारी कवायद ही व्यर्थ है। वार्षिक नाटक चलता रहेगा, पूंजीवाद पनपता रहेगा और लोग मरते रहेंगे।