नई बीमारियों में से तीन-चौथाई से अधिक का सम्बन्ध जानवरों से, कोरोना के बारे में भी यही दावा
कोरोना की तीसरी लहर बतायी जा रही है बच्चों के लिए बहुत खतरनाक
मानव स्वास्थ्य के लिए कैसे खतरनाक बनता जा रहा है पर्यावरण संकट बता रहे हैं महेंद्र पाण्डेय
Change in environment and destruction of natural resources may spread future global pandemics. तापमान वृद्धि के कारण दुनियाभर के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और इनके पिघलने से कोविड 19 जैसे नए वैश्विक महामारी का खतरा बढ़ता जा रहा है। अब तक लगभग सभी अध्ययनों में केवल घने और प्राकृतिक जंगलों के विनाश से नई महामारी का अंदेशा जताया जाता था, पर इस नए अध्ययन में तेजी से पिघलते ग्लेशियर को भी भविष्य में मानव स्वास्थ्य के लिए खतरनाक बताया गया है।
प्रोसीडिंग्स ऑफ़ रॉयल सोसाइटी नामक जर्नल में यूनिवर्सिटी ऑफ़ ओटावा के वैज्ञानिकों द्वारा प्रकाशित अध्ययन के अनुसार बहुत सारे वायरस और बैक्टीरिया बर्फ के आवरण में ग्लेशियर में हजारों वर्षों से दबे थे, और जैविक दृष्टि से सुषुप्तावस्था में थे, पर अब तापमान वृद्धि के कारण पूरी दुनिया के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और इनके साथ ही इनमें निष्क्रिय पड़े वायरस भी सक्रिय होते जा रहे हैं। ऐसे अधिकतर बैक्टीरिया और वायरस के बारे में वैज्ञानिक नहीं जानते, जाहिर है इनके प्रभावों से हम अनजान हैं।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ ओटावा के वैज्ञानिकों के दल ने डॉ स्तेफाने अरिस ब्रोसोऊ के नेतृत्व में उत्तरी ध्रुव के ऊपरी क्षेत्र में मृदु पानी की सबसे बड़ी झील, लेक हजेन, में आरएनए और डीएनए की सिक्वेंसिंग की और इसमें अनेक नए वायरस और बैक्टीरिया की खोज की, जिनके बारे में वैज्ञानिकों को अबतक कुछ भी पता नहीं था। इन वायरस और बैक्टीरिया का विस्तृत अध्ययन किया जा रहा है, पर वैज्ञानिकों के अनुसार हजारों वर्षों से सुषुप्तावस्था में पड़े बैक्टीरिया और वायरस का सक्रिय होने पर असर घातक हो सकता है। संभव है, इनमें से कुछ वायरस अपने आसपास के जीवों को संक्रमित करने में सक्षम हो जाएँ और फिर इन जीवों से संक्रमण मनुष्यों तक पहुँच जाए।
वर्ष 2016 में साइबेरिया में इसी तरह ऐन्थ्रेक्स नामक रोग फैला था, जिससे एक बच्चे की मृत्यु हो गयी थी और लगभग 10 व्यक्ति संक्रमित हो गए थे। उस वर्ष साइबेरिया में अत्यधिक गर्मी के कारण ग्लेशियर तेजी से पिघले और इसमें से हजारों वर्षों से दबे रेंडीयर का वायरस संक्रमित कंकाल पानी के साथ बहकर आबादी के बीच पहुँच गया था। इसके संपर्क में आनेवाला हरेक व्यक्ति संक्रमित हो गया था। वर्ष 2014 में फ्रांस के नेशनल सेंटर फॉर साइंटिफिक रिसर्च के वैज्ञानिकों ने दल ने साइबेरिया के बर्फीले क्षेत्र से 30000 वर्ष पुराना वायरस खोज निकाला था।
बर्फ में दबे वायरस और बैक्टीरिया केवल ध्रुवीय प्रदेशों में ही नहीं मिल रहे हैं, बल्कि तिब्बत और चीन में स्थित हिमालय की चोटियों पर स्थित ग्लेशियर में भी मिल रहे हैं। हाल में ही ऑहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के एक दल ने इन ग्लेशियरों से 33 वायरस की खोज की थी, जिनमें से 28 ऐसे हैं जो आसपास के जानवरों को संक्रमित कर अनुश्यों में महामारी फैलाने में सक्षम हैं। इनमें से एक वायरस पिछले 15000 वर्षों से सुषुप्तावस्था में था, पर अब सक्रिय है।
अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कण्ट्रोल एंड प्रिवेंशन के अनुसार वर्ष 1960 के बाद से पनपी नई बीमारियों और रोगों में से तीन-चौथाई से अधिक का सम्बन्ध जानवरों, पक्षियों या पशुओं से है, और यह सब प्राकृतिक क्षेत्रों के विनाश के कारण हो रहा है। कोरोना वायरस के लिए भी यही कहा जा रहा है। दरअसल दुनियाभर में प्राकृतिक संसाधनों का विनाश किया जा रहा है और जंगली पशुओं और पक्षियों की तस्करी बढ़ रही है और अब इन्हें पकड़कर अंतरराष्ट्रीय व्यापार में खरीद-फरोख्त में तेजी आ गयी है।
प्राकृतिक संसाधनों के नष्ट होने पर या फिर ऐसे क्षेत्रों में इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट का जाल बिछाने पर जंगली जानवरों का आवास सिमटता जा रहा है और ये मनुष्यों के संपर्क में तेजी से आ रहे है, या फिर मनुष्यों से इनकी दूरी कम होती जा रही है। घने जंगलों और ग्लेशियर में तमाम तरह के अज्ञात वैक्टीरिया और वायरस पनपते हैं, और जब ये नष्ट होते हैं तब ये वायरस मनुष्यों में पनपने लगते हैं। इनमें से अधिकतर का असर हमें नहीं मालूम पर जब सार्स, मर्स या फिर कोरोना जैसे वायरस दुनिया भर में तबाही मचाते हैं, तब ऐसे वायरसों का असर समझ में आता है।
इसी को ध्यान में रखकर अब वैज्ञानिक पूरे पृथ्वी के स्वास्थ्य की बात करने लगे हैं क्योंकि मानव का स्वास्थ्य केवल मनुष्य के रहन-सहन, दूसरे मनुष्य के साथ सम्बन्ध या फिर आस-पास के परिवेश पर ही निर्भर नहीं करता बल्कि पूरे पर्यावरण पर निर्भर करता है।
न्यूयॉर्क टाइम्स के सम्पादकीय पृष्ठ पर अपने लेख में डेविड कुँममें ने लिखा था, हम पेड़ काट रहे हैं, हम जानवरों को मार रहे हैं या फिर इन्हें पिंजरे में डाल कर बाजार में बेच रहे हैं – इससे हम पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर रहे हैं और विभिन्न वायरस को प्रभावित कर रहे हैं और उसके परम्परागत होस्ट से अलग कर रहे हैं, इन्हें नया होस्ट चाहिए और अधिकतर मामलों में यह मनुष्य होता है जो पृथ्वी पर हरेक जगह है. जानवरों से फैले कुछ रोग, रैबीज और प्लेग, को सभी जानते हैं पर नए रोगों के बारे में जानकारी कम है।
वर्ष 1996 में गबोन नामक अफ्रीकी देश में कुछ बच्चे शिकारी कुत्तों के साथ जंगल गए, जहां कुत्तों ने एक चिम्पांजी को मार डाला। बच्चे मरे चिम्पांजी को उठा लाये और फिर पूरे गाँव में इसके मांस की दावत दी गई। इस मांस को साफ़ करने वाले, काटने वाले, पकाने वाले और बाद में खाने वाले सभी लोगों को एक नया और रहस्यमय रोग हो गया और अधिकतर आबादी इससे मर गयी। अनुसंधान के बाद दुनिया को यह पता चला कि इसका कारण चिम्पांजी में पनपने वाला एबोला वायरस था।
मध्य-पूर्व में ऊंटों से मर्स वायरस फैला था, नाइजीरिया से लस्स फीवर, मलेशिया से निपाह वायरस, चीन से सार्स वायरस औए अफ्रीका से जिका और वेस्ट नाइल वायरस पनपे। कोरोना वायरस भी इसी श्रेणी में आता है जिसकी उत्पत्ति चीन से हुई। वैज्ञानिकों के अनुसार जिस तेजी से प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट किया जा रहा है, उससे तो यही लगता है की ऐसे वायरस आगे भी पनपते रहेंगे, महामारी का स्वरूप लेते रहेंगे और दुनिया की अर्थव्यवस्था को संकट में डालते रहेंगे।
अब तक तो नई महामारी के सन्दर्भ में वैज्ञानिकों का ध्यान केवल जंगलों को काटने पर केन्द्रित था, पर अब नए अध्ययन ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने को उतना ही बड़ा खतरा बता रहे हैं। जाहिर है, तापमान वृद्धि के प्रभावों में मानव स्वास्थ्य पर खतरा भी जुड़ गया है, पर क्या दुनिया की सरकारें तापमान वृद्धि को रोकने के लिए कोई सार्थक पहल करेंगी?