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पर्यावरण

अंधाधुंध कटान के कारण 48 वर्षों में जीवों की संख्या हुई 69 प्रतिशत कम, प्रजातियों का विलुप्तीकरण मानव जाति के लिए जलवायु परिवर्तन से भी बड़ा खतरा

Janjwar Desk
21 Nov 2022 7:50 AM GMT
अंधाधुंध कटान के कारण 48 वर्षों में जीवों की संख्या हुई 69 प्रतिशत कम, प्रजातियों का विलुप्तीकरण मानव जाति के लिए जलवायु परिवर्तन से भी बड़ा खतरा
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तमाम वैज्ञानिक अध्ययनों के बाद भी मनुष्य अपनी कब्र खोदता ही जा रहा है, वैज्ञानिकों के अनुसार प्रजातियों का विलुप्तीकरण आज मानव जाति के लिए जलवायु परिवर्तन से भी बढ़ा खतरा बन चुका है....

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

Climate change is not only extreme climate events; it is in fact a threat to whole life on the Earth. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार 15 नवम्बर को दुनिया की आबादी 8 अरब पार कर गयी। इसके बाद कुछ दिनों तक हरेक मीडिया में पृथ्वी पर बढ़ती भीड़ और प्राकृतिक संसाधनों पर बढ़ाते बोझ पर खूब चर्चा की गयी, और भविष्य की एक भयानक तस्वीर पेश की गयी। मनुष्यों की संख्या को एक खलनायक जैसा प्रस्तुत किया गया। ठीक इसी दिन एक और वैज्ञानिक अध्ययन प्रकाशित किया गया था, जिसे दुनिया की बढ़ती आबादी की चर्चा के बीच पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया।

जर्नल ऑफ़ ह्यूमन रिप्रोडक्टिव अपडेट में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार वैश्विक स्तर पर वर्ष 1973 से वर्ष 2018 के बीच मानव स्पर्म सांद्रता में 51.6 प्रतिशत की कमी आ गयी है, जबकि स्पर्म काउंट के सन्दर्भ में यह कमी 62.3 प्रतिशत तक पहुँच गयी है। वर्ष 1973 में वैश्विक स्तर पर स्पर्म सांद्रता 10.12 करोड़ प्रति मिलिलीटर थी, जो वर्ष 2018 तक गिरकर 4.9 करोड़ प्रति मिलीलीटर तक ही रह गयी है।

इस अध्ययन को जेरुसलम स्थित हिब्रू यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर हगोई लेविने के नेतृत्व में एक वैज्ञानिक दल ने किया है| इसी दल ने वर्ष 2017 में यूरोप, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के आंकड़ों के आधार पर बताया था कि पिछले 40 वर्षों के दौरान स्पर्म सांद्रता में 50 प्रतिशत की कमी आ गयी है।

इस वैज्ञानिक दल ने वर्तमान अध्ययन को दुनिया के 53 देशों के आंकड़ों के आधार पर तैयार किया है, और इसमें सभी महाद्वीपों के देश शामिल हैं| मानव प्रजनन से सबंधित खतरा केवल यह नहीं है कि स्पर्म सांद्रता घट रही है, बल्कि बड़ा खतरा यह है वर्ष 2000 के बाद से इसकी दर में दुगुनी से अधिक तेजी आ गयी है। इस अध्ययन के अनुसार वर्ष 1972 से 2000 के बीच स्पर्म सांद्रता में कमी की दर 1.16 प्रतिशत प्रतिवर्ष थी, पर 2000 के बाद से यह दर 2.64 प्रतिशत प्रति वर्ष तक पहुँच गयी। वैज्ञानिकों के अनुसार स्पर्म सांद्रता 4 करोड़ प्रति मिलीलीटर से कम होने पर मानव प्रजनन प्रभावित हो सकता है, और हम संख्या के बहुत नजदीक, यानि 4.9 करोड़ प्रतिवर्ष तक पहुँच गए हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार 4.9 करोड़ का आंकड़ा वैश्विक औसत है, इसका सीधा सा मतलब यह है कि दुनिया की एक बड़ी आबादी में स्पर्म सांद्रता 4 करोड़ से नीचे पहुँच चुकी है।

इसका कारण वैज्ञानिकों ने पर्यावरण में मौजूद तमाम रसायनों और जलवायु परिवर्तन को बताया है। हाल में ही साइंटिफिक रिपोर्ट्स नामक जर्नल में प्रकाशित यूनिवर्सिटी ऑफ़ मेरीलैंड के वैज्ञानिकों द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार वर्ष 1970 के बाद से अब तक मधुमक्खियों की आयु में 50 प्रतिशत कमी आ चुकी है। इसका कारण भी जलवायु परिवर्तन और इसके प्रभाव हैं। वर्ष 1970 तक के अध्ययनों के अनुसार मधुमक्खियों की औसत आयु 34.3 दिन होती थी, पर अब यह 17.7 दिन ही रह गयी है। इससे पहले के अनेक अध्ययन यह बताते हैं कि मधुमक्खियों की संख्या पूरी दुनिया में तेजी से कम हो रही है, और इससे फसलों की उत्पादकता प्रभावित हो रही है क्योंकि परागण एन इनका महत्वपूर्ण योगदान रहता है।

जलवायु परिवर्तन केवल जंतुओं और मनुष्यों को ही प्रभावित नहीं कर रहा है, बल्कि नए अध्ययनों के अनुसार इससे वनस्पति भी प्रभावित हो रहे हैं। अर्थ्स फ्यूचर नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार पिछले 50 वर्षों के दौरान वनस्पतियों के जड़ों की औसत लम्बाई कम होती जा रही है, और इसके साथ ही मृदा संरचना में महत्वपूर्ण भागीदारी निभाने वाली जड़ों से जुड़ी मिट्टी की मात्रा कम हो रही है। वनस्पतियों की जड़ें केवल वनस्पतियों को खड़ा रखने में ही मदद नहीं करतीं, बल्कि ये प्राकृतिक तौर पर चट्टानों को तोड़ने, पानी और पोषक पदार्थों के परिवहन, मिटटी को जकड़ कर रखने और पृथ्वी के वर्त्तमान स्वरुप को बनाए रखने का काम भी करती हैं।

जड़ों वाले वनस्पतियों का विकास लगभग 42 करोड़ वर्ष पहले हुआ था और इसके विकास के बाद से पृथ्वी का ढांचा पूरी तरह से बदल गया। जड़ों की लम्बाई में कमी का सीधा सा मतलब है कि अब वनस्पति और मृदा पहले से कम कार्बन का भंडारण कर पायेंगे और मृदा की उत्पादकता प्रभावित होगी।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ केंसास की वैज्ञानिक एमा हौसेर के अनुसार इसका कारण जलवायु परिवर्तन और मनुष्यों द्वारा भू-उपयोग में व्यापक परिवर्तन है| इस अध्ययन के अनुसार पिछले 50 वर्षों के दौरान वनस्पतियों की जड़ों की लम्बाई में औसतन 8 सेंटीमीटर की कमी आई है और इससे लगभग 2 करोड़ घनमीटर मृदा प्रभावित हो रही है। अनुमान है कि वर्ष 2100 तक जड़ों की औसत लम्बाई में 30 सेंटीमीटर तक कमी आयेगी और लगभग 5 करोड़ घनमीटर मृदा प्रभावित होगी| जड़ों की लम्बाई में सबसे अधिक गिरावट उत्तरी अफ्रीका, मध्य-पूर्व, एशिया और ऑस्ट्रेलिया में दर्ज की गयी है।

हाल में ही वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फण्ड और जूलॉजिकल सोसाइटी ऑफ़ लन्दन द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित रिपोर्ट लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में जंतुओं की संख्या पिछले 48 वर्षों के दौरान औसतन 69 प्रतिशत कम हो गयी है। इसका सबसे बड़ा कारण जंगलों को बड़े पैमाने पर काटा जाना है, जबकि मानव की उपभोक्तावादी आदतें और सभी तरह के प्रदूषण दूसरे मुख्य कारण हैं| रिपोर्ट के अनुसार पक्षियों, मछलियों, उभयचरों और सरीसृप वर्ग के जंतुओं में वर्ष 1970 से 2018 के बीच दो-तिहाई की कमी आ गयी है। यह कमी महासागरों से लेकर अमेज़न के उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों तक – हरेक जगह देखी जा रही है।

इस रिपोर्ट को हरेक दो वर्ष के अंतराल पर प्रकाशित किया जाता है। नई रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में जंतुओं की संख्या में 69 प्रतिशत की कमी आ गयी गई, पिछले रिपोर्ट में यह कमी 68 प्रतिशत थी, जबकि 4 वर्ष पहले जंतुओं की संख्या में महज 60 प्रतिशत कमी ही आंकी गयी थी। इस रिपोर्ट को दुनियाभर के 89 वन्यजीव विशेषज्ञों ने तैयार किया है, और बताया है कि यह दौर पृथ्वी पर जैव-विविधता के छठे सामूहिक विलुप्तीकरण का है। इस विलुप्तीकरण और पहले के 5 विलुप्तीकरण के दौर में सबसे बड़ा अंतर यह है कि पहले के विलुप्तीकरण की घटनाएं प्राकृतिक कारणों से हुईं, जबकि इस दौर में प्रजातियाँ मनुष्यों की गतिविधियों के कारण संकट में हैं।

अधिकतर वैज्ञानिकों के अनुसार प्रजातियों का विलुप्तीकरण आज मानव जाति के लिए जलवायु परिवर्तन से भी बढ़ा खतरा बन चुका है। पृथ्वी पर सभी प्रजातियाँ एक-दूसरे पर निर्भर करती हैं, इसलिए प्रजातियों का विलुप्तीकरण पृथ्वी पर मानव अस्तित्व के लिए भी खतरा है। आश्चर्य यह है कि तमाम वैज्ञानिक अध्ययनों के बाद भी मनुष्य अपनी कब्र खोदता ही जा रहा है।

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