Begin typing your search above and press return to search.
पर्यावरण

अमीर देशों का उपभोक्तावादी रवैया कोविड 19 पनपने के लिए जिम्मेदार, शोध में हुआ खुलासा

Janjwar Desk
2 April 2021 1:37 PM IST
अमीर देशों का उपभोक्तावादी रवैया कोविड 19 पनपने के लिए जिम्मेदार, शोध में हुआ खुलासा
x
घने जंगलों में तमाम तरह के अज्ञात वैक्टीरिया और वायरस पनपते हैं, और जब जंगल नष्ट होते हैं तब ये वायरस मनुष्यों में पनपने लगते हैं। इनमें से अधिकतर का असर हमें नहीं मालूम पर जब सार्स, मर्स या फिर कोरोना जैसे वायरस दुनिया भर में तबाही मचाते हैं, तब ऐसे वायरसों का असर समझ में आता है....

वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जनज्वार। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार कोविड 19 चीन की किसी प्रयोगशाला से दुनियाभर में नहीं फैला, बल्कि इसके वायरस चमगादड़ों से किसी जंगली जानवर तक पहुंचे और फिर इसका मनुष्यों में विस्तार हुआ। इस रिपोर्ट के सार्वजनिक किये जाने के दिन ही नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोध के अनुसार अमीर देशों के उपभोक्तावादी रवैय्ये के कारण बड़े पैमाने पर वर्षा वन और उष्णकटिबंधीय देशों के जंगल काटे जा रहे हैं।

दुनिया के धनी देशों का एक समूह जी-7 है। अनुमान है की जी-7 के सदस्य देशों में चौकलेट, कॉफ़ी, बीफ, पाम आयल जैसे उत्पादों का इस कदर उपभोग किया जाता है कि इन देशों के प्रति नागरिकों के लिए हरेक वर्ष 4 पेड़ काटने पड़ते हैं। अमेरिकी नागरिकों के लिए यह औसत 5 पेड़ प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष है।

जंगलों में पेड़ों के कटने से जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि हो रही है, इससे वन्यजीव विलुप्त हो रहे हैं और वन्य जीव आबादी वाले जगहों पर पहुँचने लगे हैं। आबादी के बीच वन्य जीवों के पहुँचाने के कारण घने जंगलों में पनपने वाले वायरस अब मनुष्यों में पनप रहे हैं। इस शोध को क्योटो स्थित रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमैनिटी एंड नेचर के वैज्ञानिकों ने किया है।

इस अध्ययन के लिए जंगलों के कटने की दर का आकलन हाई रेसोल्यूशन मैप्स से किया गया है और उपभोक्ता उत्पादों की बिक्री के आंकड़े दुनिया की 15000 बहुराष्ट्रीय कंपनियों से लिए गए हैं। इस शोध के लेखकों का दावा है कि यह पहला अध्ययन है जिससे उत्पादों की बिक्री का सीधा सम्बन्ध जंगलों के कटने से स्थापित किया गया है।

शोध के अनुसार यूनाइटेड किंगडम और जर्मनी में चॉकलेट की भारी मांग को पूरा करने के लिए आइवरी कोस्ट और घाना में बड़े पैमाने पर जंगल काटे जा रहे हैं। अमेरिका, यूरोपीय संघ के देशों और चीन में बीफ और सोयाबीन की मांग को पूरा करने के लिए ब्राज़ील में जंगल काटे जा रहे हैं। अमेरिका, जर्मनी और इटली में कॉफ़ी के लिए मध्य विएतनाम के जंगल और चीन, दक्षिण कोरिया और जापान में फर्नीचर की लकड़ी की मांग को पूरा करने के लिए उत्तरी वियतनाम के जंगल काटे जा रहे हैं।

अमेरिका के फलों और बादाम की खपत को पूरा करने के लिए ग्वाटेमाला के जंगल, रबर की आपूर्ति के लिए लाइबेरिया के जंगल और फर्नीचर की लकड़ी के लिए कम्बोडिया के जंगल कट रहे हैं। चीन के पाम आयल की मांग को पूरा करने के लिए मलेशिया में बड़े पैमाने पर जंगल काटे जा रहे हैं।

इस अध्ययन से इतना तो स्पष्ट है कि वैश्विक व्यापार के इस दौर में अमीर देशों की उपभोक्ता संस्कृति अपने देश के जंगलों को नहीं बल्कि विकासशील देशों के जंगलों को बर्बाद कर रही हैं। यूनाइटेड किंगडम, जापान, जर्मनी, फ्रांस और इटली जैसे देशों के बाजार में जो उत्पाद बिक रहे हैं, उनके उत्पादन के लिए जितने जंगल काटे जा रहे हैं उसमें से 90 प्रतिशत गरीब देशों में में हैं और इसमें भी आधे से अधिक उष्णकटिबंधीय देशों में हैं।

जी-7 समूह के देशों, भारत और चीन में वर्ष 2000 से वनक्षेत्र लगभग एक सा बना है, कुछ देशों में तो यह क्षेत्र बढ़ भी गया है, पर इन देशों का उपभोक्तावाद दुनिया के वन क्षेत्र को लगातार कम करता जा रहा है। यूनिवर्सिटी ऑफ़ यॉर्क के डॉ क्रिस वेस्ट के अनुसार अमीर देशों का उपभोक्तावाद पूरी दुनिया के वन क्षेत्र पर असर कर रहा है, इसलिए ऐसे देशों को वनों को बचाने की नीतियाँ केवल अपने देशों तक सीमित नहीं रखनी चाहिए। इन देशों को अपने बाजार का व्यापक अध्ययन कर देखना चाहिए को उत्पाद किन देशों से आ रहे हैं, और फिर उन देशों के जंगल बचाने में भी मदद करनी चाहिए।

अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कण्ट्रोल एंड प्रिवेंशन के अनुसार वर्ष 1960 के बाद से पनपी नई बीमारियों और रोगों में से तीन-चौथाई से अधिक का सम्बन्ध जानवरों, पक्षियों या पशुओं से है, और यह सब प्राकृतिक क्षेत्रों के विनाश के कारण हो रहा है। दरअसल दुनियाभर में प्राकृतिक संसाधनों का विनाश किया जा रहा है और जंगली पशुओं और पक्षियों की तस्करी बढ़ रही है और अब इन्हें पकड़कर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में खरीद-फरोख्त में तेजी आ गयी है।

प्राकृतिक संसाधनों के नष्ट होने पर या फिर ऐसे क्षेत्रों में इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट का जाल बिछाने पर जंगली जानवरों का आवास सिमटता जा रहा है और ये मनुष्यों के संपर्क में तेजी से आ रहे है, या फिर मनुष्यों से इनकी दूरी कम होती जा रही है। घने जंगलों में तमाम तरह के अज्ञात वैक्टीरिया और वायरस पनपते हैं, और जब जंगल नष्ट होते हैं तब ये वायरस मनुष्यों में पनपने लगते हैं। इनमें से अधिकतर का असर हमें नहीं मालूम पर जब सार्स, मर्स या फिर कोरोना जैसे वायरस दुनिया भर में तबाही मचाते हैं, तब ऐसे वायरसों का असर समझ में आता है।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण की प्रमुख इंगेर एंडरसन ने कहा है कि प्रकृति हमें लगातार सन्देश दे रही है, और जलवायु, वनों तथा वन्यजीवों के विनाश के कारण मानव जाति कोविड-19 से प्रभावित हो रही है। हम प्रकृति पर असहनीय बोझ डाल रहे हैं, और प्रकृति हमें यह बता रही है कि उसकी उपेक्षा हमारी अपनी उपेक्षा होगी।

संभव है कि कोविड-19 से भी अधिक खतरनाक वायरस वन्यजीवों में हों और पर्यावरण का लगातार विनाश उन्हें हम तक पहुंचा सकता है। हमेशा मानव के रवैये से ही रोगों को पनपने का मौका मिलता है। भविष्य में ऐसे रोगों को पनपने से रोकने के लिए आवश्यक है कि हम पर्यावरण का और विनाश न करें, वन्यजीवों को बचाएं और तापमान बृद्धि को नियंत्रित करें। पर्यावरण का लगातार विनाश ही हमें वन्यजीवों के नजदीक लाता है, और फिर इनसे वायरस फ़ैलने की सम्भावना बढ़ जाती है। जिन्दा वन्य जीवों का अवैध व्यापार भी इन रोगों को पनपने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

ऐसी महामारी को भविष्य में पनपने से रोकने के लिए दीर्घकालीन रणनीति में जैव-विविधता, वनों और पर्यावरण को बचाने के उपाय शामिल करने होंगे। नए रोगों में से तीन-चौथाई से अधिक पर्यावरण के विनाश की देन हैं। वन्यजीवों से मनुष्यों तक वायरस के पहुँचने का रास्ता कभी इतना आसान नहीं रहा है जितना आज है।

प्राकृतिक जगहों को हम इतने बड़े पैमाने पर नष्ट कर रहे हैं कि अब जंगली जानवरों और मनुष्य की दूरी ख़त्म हो चली है। इंगेर एंडरसन के अनुसार प्रकृति हमें जंगलों की आग, तापमान का बढ़ता दायरा और टिड्डियों के अभूतपूर्व हमले और अब कोविड 19 के माध्यम से सन्देश दे रही है, पर हम इस सन्देश को सुनने को तैयार ही नहीं हैं। हमें भविष्य में प्रकृति को सुरक्षित कर के ही आगे बढ़ना पड़ेगा, तभी हम सुरक्षित रह सकते हैं।

लन्दन स्थित जूलॉजिकल सोसाइटी के प्रोफ़ेसर एंड्रू कनिंघम के अनुसार पहले से ही और खतरनाक वायरसों के फ़ैलने के बारे में वैज्ञानिकों ने आगाह किया था। सार्स वायरस के सन्दर्भ में वर्ष 2017 के एक अध्ययन के निष्कर्ष में कहा गया था कि हॉर्सशू नामक प्रजाति के चमगादड़ में सार्स जैसे वायरसों का भण्डार है, इसके साथ ही दक्षिणी चीन में वन्यजीवों का बाजार आने वाले वर्षों में अनेक नए रोगों को जन्म देने में सक्षम है।

चमगादड़ों से इबोला वायरस और निपाह वायरस का विस्तार हुआ था और इसमें मृत्यु दर क्रमशः 50 प्रतिशत और 70 प्रतिशत थी। इस बार कोविड 19 के मामले में हम भाग्यशाली हैं क्योंकि इससे मृत्यु दर 10 प्रतिशत से भी कम है। जिन्दे वन्य जीव पिंजड़े में बिकने आते हैं, और इनका मल मूत्र बाजार में ही फैलता रहता है। इसके संपर्क में बाजार के लोग आते हैं और वायरस से संक्रमित होते हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार जिस तेजी से प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट किया जा रहा है, उससे तो यही लगता है की ऐसे वायरस आगे भी पनपते रहेंगे, महामारी का स्वरुप लेते रहेंगे और दुनिया की अर्थव्यवस्था को संकट में डालते रहेंगे।

Next Story

विविध