सूखे से इस सदी में 1.5 अरब लोग हुए प्रभावित और उठाना पड़ा 124 अरब डॉलर से अधिक का नुकसान
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। ब्रुसेल्स की एक अदालत ने बेल्जियम सरकार को जलवायु परिवर्तन और तापमान वृृद्धि को नियंत्रित करने के अपने ही संकल्प का पालन नहीं करने पर मानवाधिकार हनन का दोषी करार दिया है। यह मुकदमा एक गैर-सरकारी संगठन क्लिम्मात्जाक द्वारा बेल्जियम सरकार की जलवायु परिवर्तन और तापमान वृृद्धि रोकने में नाकामयाबी के सन्दर्भ में दाखिल किया गया था। न्यायालय के आदेश के अनुसार जलवायु परिवर्तन को रोकने की प्रतिबद्धता पूरी नहीं करने पर सरकार ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों के साथ ही यूरोपीय संघ के मानव अधिकार समझौते का उल्लंघन किया है। यह जीवन के मौलिक अधिकार के विरुद्ध है।
क्लिम्मात्जाक डच भाषा का एक शब्द है, जिसका मतलब है, पर्यावरण सम्बंधित। इसके अध्यक्ष सरगी डेघेल्डेरे के अनुसार यह फैसला अभूतपूर्व है, क्योंकि इसमें सीधे नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन की चर्चा है। इसके अतिरिक्त अन्य ऐसे मुकदमों में जर्मनी, नीदरर्लैंड और फ्रांस की अदालतों ने सरकारों के विरुद्ध वक्तव्य तो दिए और जलवायु परिवर्तन रोकने में सरकार को जिम्मेदार तो ठहराया, पर इसे कभी मौलिक अधिकारों से नहीं जोड़ा।
यूरोपीय संघ के अनुसार सभी सदस्य देशों को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वर्ष 2030 तक 55 प्रतिशत की कटौती करनी है, और वर्ष 2050 तक इसका उत्सर्जन शून्य करना है। बेल्जियम की पर्यावरण मंत्री ज़किया खत्ताबी ने कहा है कि सरकार न्यायालय के आदेश का सम्मान करती है, और यूरोपीय संघ के निर्देशों पर अमल करने की दिशा में तेजी से काम किया जा रहा है।
कुछ समय पहले पेरिस की एक अदालत ने फ्रांस सरकार को जलवायु परिवर्तन नियंत्रित करने में नाकामयाब करार दिया है और कहा है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने की सभी सरकारी घोषणाएं अधूरी हैंI इस याचिका को फ्रांस के चार गैर-सरकारी संगठनों ने दायर किया था, और इस फैसले को ऐतिहासिक बताया जा रहा है। ग्रीनपीस फ्रांस के निदेशक जीन फ़्रन्कोइस जुलियार्ड के अनुसार यह फैसला वैज्ञानिकों के जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि के आकलन की पुष्टि करता है, और साथ ही जनता की आशाओं की प्रतिध्वनि है। यह फैसला केवल फ्रांस के लिए ही ऐतिहासिक नहीं है, बल्कि इसे आधार बनाकर दुनियाभर की जनता अपनी सरकारों को जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में जिम्मेदार बना सकतीं हैं।
ऐसे समय जब विभिन्न देशों के न्यायालय जलवायु परिवर्तन रोकने में नाकामयाब बता रहे हैं, दुनियाभर में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ता जा रहा है, और इसका असर भी। हाल में ही अमेरिका के नासा और नेशनल ओसानोग्रफिक एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा संयुक्त तौर पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी के सूर्य की गर्मी को अवशोषित करने की दर वर्ष 2005 से अब तक दुगुनी से भी अधिक हो चुकी है। तापमान वृृद्धि का मुख्य कारण पृथ्वी द्वारा गर्मी को अवशोषित करने की दर का बढ़ना ही है। सूर्य से जो किरणें पृथ्वी पर पहुँचती हैं, उनका एक हिस्सा पृथ्वी अवशोषित करती है और शेष किरणें परावर्तित होकर अंतरिक्ष में पहुँच जाती हैं। नए अध्ययन के अनुसार पृथ्वी में अवशोषित होने वाली किरणों का असर तो बढ़ रहा है, पर परावर्तन में कमी आ गयी है, और इस असमानता के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है।
वैज्ञानिकों के अनुसार यह एक गंभीर स्थिति है और इससे पृथ्वी पर ऊर्जा अन्संतुलन बढ़ता जा रहा है। इस दल ने यह अध्ययन अंतरिक्ष यानों से प्राप्त आंकड़ों और सागरों की सतह के वास्तविक तापमान में साल-दर-साल आने वाले अंतर के आधार पर किया है। सूर्य की जितनी किरणें पृथ्वी पर पहुँचती हैं, उनमें से लगभग 90 प्रतिशत महासागरों में अवशोषित होती हैं, इसलिए पृथ्वी के बढ़ते तापमान का सबसे अच्छा सूचक सागरों की सतह का तापमान है। नासा के वैज्ञानिक नार्मन लोएब के अनुसार पृथ्वी द्वारा पहले से अधिक ऊर्जा के अवशोषण का कारण वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों का बढ़ता उत्सर्जन है, जो सूर्य की गर्मी को अवशोषित करते हैं।
तापमान वृृद्धि भी एक बड़ा कारण है। इसके कारण महासागरों के पानी के वाष्पीकरण की दर बढ़ने लगी है, इससे वायुमंडल में वाष्प की सांद्रता बढ़ रही है। वाष्प भी ग्रीनहाउस गैसों जैसा असर दिखाता है, और सूर्य की ऊर्जा को अवशोषित कर पृथ्वी का तापमान बढाता है। तापमान वृृद्धि के कारण पृथ्वी के दोनों ध्रुवों और पहाड़ों की चोटियों पर जमा ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, और पृथ्वी के बर्फीले आवरण का क्षेत्र कम होता जा रहा है। पृथ्वी पर जमा बर्फ सूर्य की ऊर्जा को अंतरिक्ष में परावर्तित करती है, पर अब यह क्षेत्र भी कम हो गया है।
संयुक्त राष्ट्र की एक नई रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन, तापमान वृृद्धि, जल और भूमि संसाधनों के अवैज्ञानिक प्रबंधन के कारण सूखे का क्षेत्र पूरी दुनिया में किसी महामारी की तरह फ़ैलाने लगा है, पर समस्या यह है कि इसकी रोकथाम के लिए कोई टीका नहीं है। संयुक्त राष्ट्र ने सूखे को अगली महामारी के तौर पर प्रस्तुत किया है। सूखे का सामना पहले अफ्रीकी और भारत जैसे गरीब एशियाई देश करते थे, पर अब इसका विस्तार अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और यूरोपीय देशों में भी हो गया है।
अनुमान है कि इस सदी में सूखे से अब तक 1.5 अरब से अधिक आबादी और दुनिया की अर्थव्यवस्था को 124 अरब डॉलर से अधिक का नुकसान उठाना पड़ा है। अनुमान है कि सूखे के चलते अमेरिका में प्रतिवर्ष 6 अरब डॉलर का आर्थिक नुकसान होता है, जबकि यूरोप में यह नुकसान 9 अरब यूरो का है।
सूखे से केवल फसलों की उत्पादकता ही कम नहीं होती, बल्कि इससे पूरी अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है। यूरोप में 2850 किलोमीटर लम्बी नदी डेनुबे रूस की वोल्गा के बाद यूरोप की दूसरी सबसे लम्बी नदी है। यह जर्मनी, रोमानिया, हंगरी, ऑस्ट्रिया, सर्बिआ, बुल्गारिया, स्लोवाकिया, उक्रेन और क्रोएशिया से गुजरती है। इस नदी के अवैज्ञानिक प्रबंधन के कारण अब इसके किनारे का एक बड़ा भूभाग सूखा से प्रभावित है। इससे इस क्षेत्र में फसलों की उपज में कमी तो आई ही, साथ ही आवागमन, पर्यटन, उद्योगों और ऊर्जा के क्षेत्र पर भी असर पड़ने लगा है। दुनिया की अधिकतर नदियों की हालत ऐसी ही है।
हाल में ही एक अध्ययन के अनुसार दुनिया की आधी से अधिक नदियाँ अब पूरे साल नहीं बहतीं, क्योंकि साल भर में कभी न कभी इनका कोई हिस्सा सूख जाता है।