प्रधानमंत्री मोदी को मिला पर्यावरण पुरस्कार लेकिन देश में पर्यावरण का तेजी से हो रहा विनाश
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
आई एच एस मार्किट नामक एक निजी अंतर्राष्ट्रीय कंपनी ने हमारे देश के प्रधानमंत्री जी को सेरावीक ग्लोबल एनर्जी एंड एनवायरनमेंट लीडरशिप पुरस्कार से नवाजा है और प्रधानमंत्री जी इसके द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस, जो 1 से 5 मार्च तक आयोजित किया जाएगा, में प्रमुख वक्ता भी हैं। इस कांफ्रेंस में कुछ दूसरे मुख्य वक्ता, जैसे सऊदी अरब की पेट्रोलियम कंपनी सऊदी अरामको के सीईओ अमिन नासर, ऐसे भी हैं जिनकी जलवायु परिवर्तन बढ़ाने में अग्रणी भूमिका के लिए पूरी दुनिया में भर्त्सना की जाती है। आई एच एस मार्किट एक निजी कंपनी है, जिसके वेबसाइट के अनुसार इसका मुख्य काम डाटा विश्लेषण और उद्योगों से सम्बंधित विशेषज्ञ मुहैय्या कराना है।
इसके दुनिया में लगभग 50000 कस्टमर हैं जो 140 देशों में फैले हैं, फार्च्यून ग्लोबल 500 के तहत आने वाली लगभग 80 प्रतिशत कम्पनियां और अमेरिका की सबसे बड़ी 100 कंपनियों में से 94 इसकी कस्टमर हैं। आई एच एस मार्किट ने यह पर्यावरण पुरस्कार प्रधानमंत्री को आर्थिक विकास, गरीबी उन्मूलन और वैश्विक ऊर्जा के भविष्य में योगदान के लिए दिया है। हमारे प्रधानमंत्री जी को वर्ष 2018 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का पर्यावरण संरक्षण से सम्बंधित पुरस्कार भी दिया जा चुका है।
अब जरा पुरस्कारों से हटकर अपने देश के पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के उपायों पर चर्चा करते हैं। हाल में ही ऋषिगंगा नदी की त्रासदी ने हिमालय के ग्लेशियर से निकलने वाली नदियों का भविष्य बता दिया है। ऋषिगंगा नदी में हाल में ही ग्लेशियर के बड़ा टुकड़ा गिरा और फिर बाढ़ आने के कारण दो पन-बिजली परियोजनाएं बह गईं। वैज्ञानिक लम्बे समय से नदियों से अत्यधिक छेड़छाड़ का विरोध और ऐसी आपदाओं की चेतावनी देते रहे हैं, पर सरकारें हरेक नदी से बस मुनाफा कमाना चाहती है।
वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद तो ऐसा लगा मानो अब सरकारें सचेत हो गईं हैं और पर जल्दी ही हिमालय पर इंफ्रास्ट्रक्चर और सड़क परियोजनाओं की बाढ़ सी आ गयी। हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों पर देश के सारे नियम-क़ानून ताक पर रखकर हाईवे बनाए जाने लगे और प्रधानमंत्री हिमालय का नाशकर हाईवे बनाने वाले नितिन गडकरी को आधुनिक श्रवण कुमार बताने लगे। ऋषिगंगा नदी की त्रासदी एक सरकार-निर्मित आपदा थी जिसमें सरकार की पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों के प्रति लापरवाही ने सैकड़ों लोगों की जान ले ली।
पर्यावरण विनाश और जलवायु परिवर्तन किसी भी स्तर पर समाज और मानवाधिकार से अलग नहीं है, पर इनका विरोध आपको बिना किसी अपराध और सबूत के ही जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा सकता है। यदि यकीन नहीं होता तो आप बंगलुरु की एक्टिविस्ट दिशा रवि को याद कर लीजिये। देश में पर्यावरण विनाश का विरोध करने वालों के साथ ऐसा ही सलूक किया जाता है, यह एक नई परंपरा है। दिशा रवि अकेली नहीं हैं, इससे पहले स्वामी सानंद और इसके बाद कुछ और लोगों ने हिमालय और गंगा को बचने के लिए आमरण अनशन किया और सरकार ने उन्हें मर जाने दिया।इन मौतों को यदि आप केवल एक दो मौत मान रहे हैं तो आप निःसंदेह गलत हैं, यदि स्वामी सानन्द की हिमालय से सम्बंधित मांगों पर सरकार ने ध्यान दिया होता तो निश्चित तौर पर हाल की ऋषिगंगा नदी की बाढ़ में सैकड़ों लोगों की जान नहीं गयी होती।
वर्ष 2012 से ब्रिटेन के एक गैर-सरकारी संगठन, ग्लोबल विटनेस, नामक संस्था ने हरेक वर्ष पर्यावरण के विनाश के विरुद्ध आवाज उठाने वालों की हत्या के सभी प्रकाशित आंकड़ों को एकत्रित कर एक वार्षिक रिपोर्ट को तैयार करने का कार्य शुरू किया था। वर्ष 2019 की हाल में ही प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में हरेक सप्ताह चार से अधिक पर्यावरण संरक्षकों की ह्त्या कर दी जाती है। वर्ष 2019 के दौरान दुनिया में कुल 212 पर्यावरण संरक्षकों की हत्या कर दी गयी। मारे गए लोगों की संख्या किसी भी वर्ष की तुलना में सर्वाधिक है। सबसे अधिक ऐसी हत्याएं, कोलंबिया में 64, फिलिपिन्स में 43, ब्राज़ील में 24, मेक्सिको में 18, होंडुरास में 14, ग्वाटेमाला में 12, वेनेज़ुएला में 8 और भारत में 6 हत्याएं की गयीं।भले ही भारत का स्थान 21 देशों की इस सूची में 6 हत्याओं के कारण 8वां हो, पर हमारे देश और पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों पर अपनी पैनी नजर रखने वाले इन आंकड़ों पर कभी भरोसा नहीं करेंगें।
पर्यावरण संरक्षण का काम भारत से अधिक खतरनाक शायद ही किसी देश में हो। यहाँ के रेत और बालू माफिया हरेक साल सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार देते हैं, जिसमें पुलिस वाले और सरकारी अधिकारी भी मारे जाते हैं। पर, इसमें से अधिकतर मामलों को दबा दिया जाता है और अगर कोई मामला उजागर भी होता है तो उसे पर्यावरण संरक्षण का नहीं बल्कि आपसी रंजिश या सड़क हादसे का मामला बना दिया जाता है। इसी तरह अधिकतर खनन कार्य जनजातियों या आदिवासी क्षेत्रों में किये जाते हैं।
स्थानीय समुदाय जब इसका विरोध करता है, तब उसे माओवादी, नक्सलाईट या फिर उग्रवादी का नाम देकर एनकाउंटर में मार गिराया जाता है। बड़े उद्योगों से प्रदूषण के मामले को भी उजागर करने वाले भी किसी न किसी बहाने मार डाले जाते हैं। अब तो हालत यहाँ तक खराब हो चुके हैं की पर्यावरण विनाश और प्रदूषण फैलाने वाले पुलिस और नेताओं के संरक्षण में विरोध-प्रदर्ष और आन्दोलनकारियों की सरे आम ह्त्या करने से भी नहीं चूकते।तमिलनाडु के तूतीकोरिन स्थित वेदान्त ग्रुप की कंपनी स्टरलाईट कॉपर के सामने विरोध करने वाले ग्रामीणों को गोलियों से भून दिया गया था।इन सभी हत्याओं में सरकार, नेताओं और पुलिस की सहमति भी रहती हैI
वर्ष 2020 के 30 सितम्बर को संयुक्त राष्ट्र, अमेरिका के न्यूयॉर्क में जैवविविधता को बचाने से सम्बंधित वर्चुअल सत्र को आयोजित किया था, अनुमान है कि दुनिया के 116 देशों के मुखिया या फिर उनके प्रतिनिधि जुड़े। इससे पहले 28 सितम्बर को कुल 64 देशों के मुखियाओं और यूरोपियन यूनियन ने सम्मिलित तौर पर "लीडर्स प्लेज टू नेचर – यूनाइटेड टू रिवर्स बायोडायवर्सिटी लौस बाई 2030 फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट" नामक संकल्प पत्र को जारी किया।इसमें हस्ताक्षर करने वालों में फ्रांस, जर्मनी, कनाडा, न्यूज़ीलैण्ड, ग्रेट ब्रिटेन, मेक्सिको और इजराइल के साथ ही भारत के पड़ोसी देश बांग्लादेश, भूटान, नेपाल, पाकिस्तान और श्री लंका भी सम्मिलित थे।
आश्चर्य यह है कि पांच हजार सालों से चली आ रही पर्यावरण संरक्षण की परंपरा की दुहाई और वसुधैव कुटुम्बकम का बार-बार अंतर्राष्ट्रीय मंच से नारा लगाने के बाद भी भारत ने इस संकल्प पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। भारत के साथ ही अमेरिका, ब्राज़ील, चीन, रूस, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश भी इससे बाहर हैं और यही सारे देश पर्यावरण का सबसे अधिक विनाश भी कर रहे हैंI
जर्मनवाच नामक संस्था हरेक वर्ष "ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स" प्रकाशित करता है। हाल में वर्ष 2021 का इंडेक्स प्रकाशित किया गया है, जिसके अनुसार चरम मौसम, यानि चक्रवात, बाढ़ और अत्यधिक गर्मी के कारण वर्ष 2019 के दौरान सबसे अधिक मौतें और सबसे अधिक आर्थिक नुकसान भारत में हुआ है। वर्ष 2019 के सन्दर्भ में वैसे तो मोजांबिक, ज़िम्बाब्वे और बहमास का स्थान नुकसान के सन्दर्भ में सबसे आगे है और भारत सातवें स्थान पर है, पर इनसे मौत और आर्थिक नुकसान में हम सबसे आगे हैं।
इस इंडेक्स के अनुसार वर्ष 2019 के दौरान चरम प्राकृतिक आपदाओं के कारण भारत में 2267 व्यक्तियों की अकाल मृत्यु हो गई, जो दुनिया के किसी भी देश की अपेक्षा सर्वाधिक है और प्रति एक लाख आबादी में 0.17 व्यक्तियों की मृत्यु इस तरह हुई। इसी वर्ष चरम प्राकृतिक आपदाओं के कारण भारत को 6881.2 करोड़ डॉलर का बोझ अर्थव्यवस्था पर पड़ा जो सकल घरेलु उत्पाद का 0.72 प्रतिशत है।
ग्रीनपीस साउथ ईस्ट एशिया की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के सर्वाधिक आबादी वाले 5 शहरों में वायु प्रदूषण के कारण वर्ष 2020 के दौरान 1,60,000 व्यक्तियों की असामयिक मृत्यु हो गयी। इसका कारण हवा में भारी मात्रा में मौजूद पीएम् 2.5 के कण हैं जो सीधा फेफड़े तक पहुँच जाते हैं।
रिपोर्ट के अनुसार सबसे अधिक ऐसी मौत, 54000 मौत, दिल्ली में दर्ज की गयी और वायु प्रदूषण के जानकार लोगों के लिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि दिल्ली हमेशा ही वायु प्रदूषण के खतरनाक स्तर से घिरी रहती है।इसके बाद जापान की राजधानी टोक्यो का स्थान है, जहां 40000 असामयिक मौतें दर्ज की गईं हैं। इसके बाद चीन के शंघाई, ब्राज़ील के साओ पाउलो और फिर मेक्सिको के मेक्सिको सिटी का स्थान हैI
मरकाम इंडिया रिसर्च की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2020 में सौर ऊर्जा से 3239 मेगावाट बिजली उत्पादन की परियोजनाएं स्थापित की गईं, जो पिछले 5 वर्षों के दौरान किसी भी एक वर्ष में स्थापित क्षमता से बहुत कम है। वर्ष 2019 के दौरान सौर ऊर्जा से 7346 मेगावाट बिजली उत्पादन की परियोजनाएं स्थापित की गईं थीं, जिसमें वर्ष 2020 में 56 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी। वर्ष 2020 के दौरान सौर ऊर्जा से बनाने वाली कुल बिजली में से 78 प्रतिशत यानि 2520 मेगावाट बड़ी परियोजनायों के हिस्से में आयीं, जिनकी भागेदारी पिछले वर्ष से 60 प्रतिशत कम है।इसी तरह रूफ-टॉप सौर ऊर्जा उपकरणों को स्थापित करने में 22 प्रतिशत की कमी आंकी गयीI
देश में सौर ऊर्जा से दिसम्बर 2020 तक कुल 39 गिगावाट बिजली का उत्पादन किया जा सकता है, पर इसमें से 17 से 18 गीगावाट बिजली के वितरण का करार किसी भी विद्युत् वितरण कंपनी से नहीं हुआ है, इसका सीधा मतलब यह है की इतनी बिजली उत्पादन के बाद भी बर्बाद की जा रही है। हाल में ही संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के तीन बड़े देशों – भारत, चीन और अमेरिका – ने अबतक जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित पेरिस समझौते के अंतर्गत नेशनली डीटरमाइंड कॉन्ट्रिब्यूशन प्रस्तुत नहीं किया है।
दरअसल पेरिस समझौते के तहत हरेक देश को वर्ष 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन कम करने की कार्य योजना प्रस्तुत करनी है, जिसे नेशनली डीटरमाइंड कॉन्ट्रिब्यूशन कहा जाता है। पेरिस समझाते पर हस्ताक्षर करने वाले कुल 197 देशों में से अब तक महज 75 देशों ने ही इसे प्रस्तुत किया हैI जाहिर है हमारे देश के पर्यावरण का विनाश तेजी से किया जा रहा है और जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए हमारे पास लच्छेदार भाषणों का पुलिंदा से अधिक कुछ भी नहीं है।