विकास के नाम पर सबसे पहले पर्यावरण का किया जाता है विनाश, जिसके बाद बढ़ जाता है विकास का आर्थिक मूल्य
(कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत के छोटे कस्बे लेटन में पारा 49.6 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच गया)
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
Only 6 percent countries are on the path of ecologically sustainable development. ऑहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा मॉडल तैयार किया है, जिसके आधार पर बताया जा सकता है कि कोई देश सतत विकास की राह पर है या नहीं। सतत विकास की चर्चा पर्यावरण विनाश के इस दौर में खूब की जाती है, तमाम देश इसके दावे भी करते हैं – पर हकीकत ठीक विपरीत है। सतत विकास ऐसा विकास है, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग उनके विकास की दर से कम किया जाता है और इसमें उपयोग से उत्पन्न प्रदूषण या ग्रीनहाउस गैसों का प्रबंधन इस तरह किया जाता है, जिससे प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़े। ऑहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने कुल 178 देशों के विकास का आकलन कर बताया है कि इनमें से 6 प्रतिशत से भी कम देश अपनी जनता को पर्याप्त बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने के बाद भी जल संसाधनों और ग्रीनहाउस गैसों का पर्यावरण-अनुकूल प्रबंधन कर रहे हैं, यानि सही मायने में सतत विकास कर रहे हैं।
इस अध्ययन को वन अर्थ नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है। अधिकतर देश अपनी जनता को पर्याप्त खाद्यान्न, उर्जा और पानी उपलब्ध कराने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उनके पुनर्विकास की क्षमता से अधिक दोहन कर रहे हैं। इन 178 देशों में से 67 प्रतिशत देश जल-संसाधनों का पर्यावरण-अनुकूल दोहन कर रहे हैं, पर महज 9 प्रतिशत देश ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने के लिए कदम उठा रहे हैं। अमेरिका जैसे समृद्ध देश भी पानी के प्रबंधन में तो आगे हैं, पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन कम करने के लिए प्रतिबद्धता नहीं दिखा रहे हैं।
इस अध्ययन के मुख्य लेखक ऑहियो स्टेट यूनिवर्सिटी में केमिकल एंड बायोमॉलिक्यूलर इंजीनियरिंग की प्रोफ़ेसर भाविक बक्षी हैं। इनके अनुसार अब समय आ गया है, जब देशों को पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर आत्म-निर्भर होना पड़ेगा, पर इसके साथ ही जनता को बुनियादी सुविधाएं भी मुहैया करानी पड़ेंगी। अधिकतर देश जनता को सुविधाएं तो दे रहे हैं, पर इसके अनुपात से अधिक पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों का विनाश कर रहे हैं। इंजीनियरिंग आधारित अधिकतर परियोजनाएं और योजनायें हमें सतत विकास से दूर करती हैं, अब दुनिया को सतत इंजीनियरिंग की जरूरत है।
अधिकतर देशों में आबादी को बुनियादी सुविधाएं प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करते हुए भी उपलब्द्ध कराई जा सकती हैं, पर सकारों की नीतियों में यह शामिल नहीं रहता और इसके लिए इच्छाशक्ति का अभाव है। पर, अनेक देश ऐसे भी हैं जहां प्राकृतिक संसाधनों का अभाव है। ग्रीनहाउस गैसों के अवशोषण के लिए वनों का होना आवश्यक है, पर 37 प्रतिशत देशों – जो मध्यपूर्व, उत्तरी अफ्रीका और अफ्रीका में सहारा क्षेत्र के देशों में रेगिस्तान के कारण वनस्पतियों का अभाव है। दुनिया के 10 प्रतिशत देश ऐसे भी हैं जहां जल संसाधन इतने कम हैं कि नागरिकों के पानी की बुनियादी जरूरत भी पूरी नहीं की जा सकती है।
इस अध्ययन से पहले वर्ष 2021 में यूनिवर्सिटी ऑफ़ लीड्स के वैज्ञानिकों ने बताया था कि पिछले 30 वर्षों के दौरान हरेक देश में उपलब्द्ध प्राकृतिक ससाधनों से अधिक दोहन किया गया है, और इस मामले में कोई भी देश आत्मनिर्भर नहीं है। इसी अध्ययन में यह भी कहा गया था कि वर्तमान खपत को देखते हुए यह भी स्पष्ट है कि अगले 30 वर्षों के दौरान भी कोई भी देश प्राकृतिक संसाधनों के सन्दर्भ में आत्मनिर्भर नहीं बन सकेगा। इस अध्ययन को नेचर सस्टेनेबिलिटी नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया था।
मानव विकास का पर्यावरणीय मूल्य बढ़ता जा रहा है। विकास के नाम पर सबसे पहले पर्यावरण का ही विनाश किया जाता है, और इसके बाद विकास का आर्थिक मूल्य भी बढ़ जाता है। नवीनीकृत उर्जा, वनस्पति आधारित भोजन और अपशिष्ट प्रबंधन से सम्बंधिर सर्कुलर इकॉनमी को बढ़ावा देकर आबादी के जीवन स्तर में अपेक्षित सुधार लाया जा सकता है और इससे पर्यावरण भी सुरक्षित रहेगा।