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पर्यावरण

भारत में 1.2 करोड़ टन चावल की पैदावार इस साल होगी कम, पर्यावरण असंतुलन से और बिगड़ेंगे हालात

Janjwar Desk
14 Sept 2022 11:52 AM IST
भारत में 1.2 करोड़ टन चावल की पैदावार इस साल होगी कम, पर्यावरण असंतुलन से और बिगड़ेंगे हालात
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file photo

Global Warming : वर्तमान में भारत समेत 20 देशों की कृषि तापमान वृद्धि की भयानक मार झेल रही है, पर अनुमान है कि वर्ष 2045 तक 64 देश इसकी चपेट में होंगे। इन देशों में दुनिया के कुल खाद्यान्न का 71 प्रतिशत से अधिक उपजता है

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

Extreme risk to agriculture and farm labours due to global warming and climate change. हाल में ही केंद्र सरकार के आंकड़ों के अनुसार इस वर्ष, यानि 2022 में, चावल सहित पैडी फसलों की बुवाई के क्षेत्र पिछले वर्ष की तुलना में 12.3 प्रतिशत कम रहा है और इस कारण अनुमान है कि चावल की पैदावार में 1.2 करोड़ टन की कमी आयेगी। पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष चावल की बुवाई का क्षेत्र लगभग 38 लाख हेक्टेयर कम है और इस कमी का कारण देश में असमान बारिश और कुछ क्षेत्रों में भयानक सूखा है।

दुनियाभर के वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के प्रभाव से ऐसी असमानता और बारिश में कमी की बात लगातार करते रहे हैं। पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष धान की बुवाई में कमी के सन्दर्भ में सबसे आगे झारखण्ड है जहां यह अंतर 9.8 लाख हेक्टेयर है, इसके बाद 63 लाख हेक्टेयर के साथ मध्य प्रदेश, 4.5 लाख हेक्टेयर के साथ पश्चिम बंगाल, 3.9 लाख हेक्टेयर के साथ छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश 2.6 लाख हेक्टेयर और बिहार 2.2 लाख हेक्टेयर का स्थान है।

इसी वर्ष मार्च के महीने से ही चरम तापमान के रिकॉर्ड ध्वस्त होने लगे थे। तापमान वृद्धि का सबसे चर्चित प्रभाव चरम तापमान की घटनाएं ही हैं। तापमान में यह वृद्धि सामान्य तापमान से औसतन 8 से 10 डिग्री सेल्सियस तक अधिक थी, जिसके प्रभाव से गेहूं सहित सभी रबी फसलों, सब्जियों, फलों और मवेशियों पर पड़ा। अत्यधिक तापमान के कारण खर पतवार और फसलों में रोग फैलाने वाले कीड़ों का प्रकोप भी बढ़ गया।

हिमाचल प्रदेश और जम्मू और कश्मीर में सब्जियों की उत्पादकता में 50 प्रतिशत तक कमी दर्ज की गयी। इंडियन कौंसिल ऑफ़ एग्रीकल्चरल रिसर्च की एक रिपोर्ट के अनुसार चरम तापमान का सर्वाधिक प्रभाव पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में देखा गया। इसके कारण गेहूँ के उत्पादन में 15 से 25 प्रतिशत, मक्के में 18 प्रतिशत और चने में 20 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की गयी है। चरम तापमान के असर से अंडे के उत्पादन में 4 से 7 प्रतिशत और दूध में 15 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की गयी।

जलवायु परिवर्तन से पूरी दुनिया में तापमान बेतरतीब तरीके से बढ़ रहा है, चरम तापमान के नये रिकॉर्ड स्थापित होते जा रहे हैं – और इसके साथ ही खेतों में काम करने वाले कृषक श्रमिकों के स्वास्थ्य के खतरे बढ़ रहे हैं और अप्रत्याशित तापमान वृद्धि के कारण कृषि उत्पादकता में गिरावट देखी जा रही है। रिस्क एनालिसिस करने वाली कंपनी, वेरिस्क मेपलक्रॉफ्ट द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार तापमान वृद्धि के कारण दुनिया में फसलों का बड़ा क्षेत्र वर्तमान में भी प्रभावित हो रहा है, पर अनुमान है कि वर्ष 2045 तक 71 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र प्रभावित होगा।

वैश्विक स्तर पर अनाजों के मुख्य उत्पादकों में भारत अकेला देश है, जो वर्तमान में भी कृषि के सन्दर्भ में अत्यधिक संकट में है। भारत का वर्ष 2020 में दुनिया के कुल खाद्यान्न उत्पादन में से 12 प्रतिशत का योगदान था। पर, यहाँ जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि का कृषि क्षेत्र में असर लगातार देखा जा रहा है। वर्ष 2022 में मार्च से ही तापमान अप्रताषित ढंग से बढ़ना शुरू हुआ जिससे गेहूं की पैदावार में लगभग 15 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई, और इसके बाद असमान बारिश के कारण अनेक क्षेत्र में धान की बुवाई नहीं की गयी।

वेरिस्क मेपलक्रॉफ्ट की रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान में भारत समेत 20 देशों की कृषि तापमान वृद्धि की भयानक मार झेल रही है, पर अनुमान है कि वर्ष 2045 तक 64 देश इसकी चपेट में होंगे। इन देशों में दुनिया के कुल खाद्यान्न का 71 प्रतिशत से अधिक उपजता है। इन देशों में भारत, चीन, ब्राज़ील और अमेरिका जैसे देश सम्मिलित हैं।

वेरिस्क मेपलक्रॉफ्ट का आकलन यूनाइटेड किंगडम के मौसम विभाग के आंकड़ों पर आधारित है, जो पूरी दुनिया के तापमान का लेखाजोखा रखती है, और वर्ष 2045 तक के आकलन के लिए आईपीसीसी के आकलन को शामिल किया गया है, जिसके अनुसार यदि ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन ऐसे ही किया जाता रहा तो वर्ष 2045 तक वैश्विक तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हो सकती है। तापमान वृद्धि का सीधा असर चावल, कोकोआ और टमाटर जैसी फसलों पर सर्वाधिक होगा। चावल के सबसे बड़े उत्पादक दक्षिण-पूर्व एशिया के देश कंबोडिया, थाईलैंड और वियतनाम हैं – ये सभी देश उन देशों की सूचि में शामिल हैं जहां तापमान वृद्धि का असर कृषि उत्पादकता और कृषक श्रमिकों की सेहत पर पड़ने वाला है।

कुछ महीनों पहले प्रकाशित एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि ग्रीनहाउस गैसों के सबसे बड़े उत्सर्जक देश पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था प्रभावित कर रहे हैं। इस अध्ययन को अमेरिका की रिसर्च यूनिवर्सिटी डार्टमौथ कॉलेज के वैज्ञानिक क्रिस काल्लाहन के नेतृत्व में किया गया है और इसे क्लाइमेट चेंज नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया था।

दरअसल ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है और वे वायुमंडल में मिलकर पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन करती हैं। इसलिए यदि इनका उत्सर्जन भारत या किसी भी देश में हो, प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ता है। सबसे अधिक प्रभाव गरीब देशों पर पड़ता है। इस अध्ययन को वर्ष 1990 से 2014 तक सीमित रखा गया है। इस अवधि में अमेरिका में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से दुनिया को 1.91 ख़रब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा, जो जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया में होने वाले कुल नुकसान का 16.5 प्रतिशत है।

इस सूची में दूसरे स्थान पर चीन है, जहां के उत्सर्जन से दुनिया को 1.83 ख़रब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा है, यह राशि दुनिया में जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले कुल नुकसान का 15.8 प्रतिशत है। तीसरे स्थान पर 986 अरब डॉलर के वैश्विक आर्थिक नुकसान के साथ रूस है। चौथे स्थान पर भारत है। भारत में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण दुनिया को 809 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा और यह राशि वैशिक आर्थिक नुकसान का 7 प्रतिशत है। इस तरह जलवायु परिवर्तन के कारण पूरी दुनिया में होने वाले आर्थिक नुकसान के योगदान में हमारे देश का स्थान दुनिया में चौथा है।

इस सूची में 5वें स्थान पर ब्राज़ील, छठे पर इंडोनेशिया, सातवें पर जापान, आठवें पर वेनेज़ुएला, नौवें स्थान पर जर्मनी और दसवें स्थान पर कनाडा है। अकेले अमेरिका, चीन, रूस, भारत और ब्राज़ील द्वारा सम्मिलित तौर पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण पूरी दुनिया को 6 खरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ता है, यह राशि वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 11 प्रतिशत है।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के लिए बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश मुख्य तौर पर जिम्मेदार हैं, पर अफसोस यह है कि जलवायु परिवर्तन से इन देशों में आर्थिक नुकसान कम होता है। इसका सबसे अधिक असर दुनिया के गरीब देशों पर होता है। दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन से अमेरिका, रूस, कनाडा और कुछ यूरोपीय देशों को आर्थिक लाभ हो रहा है, क्योंकि पहले जो जगहें हमेशा बर्फ से ढकी रहती थीं, वहां अब जमीन है।

इस जमीन का उपयोग खेती के लिए किया जाने लगा है। पहले बहुत ठंडक के कारण जिन इलाकों में आबादी नहीं रहती थी, वैसे बहुत से इलाके अब रहने लायक हो गए हैं। दुनिया के गरीब देश जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार नहीं हैं पर इसके प्रभाव् से सबसे अधिक संकट में इन्हीं देशों की आबादी है। इस अध्ययन में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि आर्थिक नुकसान के लिए केवल उन्ही पैमाने का उपयोग किया गया, जिनका समावेश दुनियाभर में सकल घरेलू उत्पाद के आकलन के लिए किया जाता है। इसका अर्थ यह है कि जलवायु परिवर्तन द्वारा जैव-विविधता का विनाश, सांस्कृतिक प्रभाव और प्राकृतिक आपदा के आर्थिक नुकसान का समावेश नहीं किया गया है। जाहिर है, इन कारकों का समावेश करने के बाद वैश्विक आर्थिक नुकसान का दायरा और बड़ा हो जाएगा।

अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और एशिया के गर्म देश पहले से अधिक गर्म होने लगे हैं, बाढ़ और चक्रवात का दायरा और आवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है और प्रशांत महासागर में स्थित देश बढ़ते सागर तल के कारण अपना अस्तित्व खो रहे हैं। गरीब देश लगातार जलवायु परिवर्तन के अन्तराष्ट्रीय अधिवेशनों में प्राकृतिक आपदा से होने वाले नुकसान के आर्थिक भरपाई की बात अमीर देशों से करते हैं, पर बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश इस पर चुप्पी साध लेते हैं। हाल में ही 40 गरीब देशों के प्रतिनिधियों ने ईजिप्ट में आयोजित किये जाने वाले अगले कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज के 27वें अधिवेशन के अध्यक्ष को पत्र लिखकर मांग की है कि इस मसले पर बहस कराई जाए। इस पत्र के अनुसार जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से 3.6 अरब लोग जूझ रहे हैं इसलिए इसकी आर्थिक भरपाई अमीर देशों को करनी चाहिए।

यूनाइटेड किंगडम के पत्रकार जेरेमी विलियम्स ने हाल में ही एक पुस्तक प्रकाशित की है, जिसका शीर्षक है – क्लाइमेट चेंज इज रेसिस्ट – यानि जलवायु परिवर्तन नस्लवादी है। सतही तौर पर यह शीर्षक अटपटा सा लग सकता है, पर इस पुस्तक में उन्होंने आंकड़ों और उदाहरणों के साथ यह स्पष्ट किया है कि जलवायु परिवर्तन से सबसे कम प्रभावित गोरे लोग हैं, जबकि यह इन्हीं की देन है। जहां गोरे लोग बसते हैं, वहां के मूल निवासी और जनजातियाँ, जिनका रंग गोरा नहीं है, जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित हैं। दूसरी तरफ गरीब देशों की आबादी, जो गोरी नहीं है, इससे प्रभावित हो रही है जबकि जलवायु परिवर्तन में उसका योगदान नहीं है। यह निश्चित तौर पर मानवता के विरुद्ध अपराध है और अपराध करने वाले ही उपदेश दे रहे हैं।

नेचर कम्युनिकेशंस नामक जर्नल में वर्ष 2021 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी के अर्थ इंस्टिट्यूट के वैज्ञानिकों का एक शोधपत्र प्रकाशित किया गया था, इसके अनुसार 3.5 अमेरिकी अपने जीवनकाल में जितना ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए उत्तरदायी हैं, उससे दुनिया में कम से कम एक व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। कोयले पर आधारित एक बिजली घर से जितना उत्सर्जन होता है, उससे 900 लोगों की मृत्यु हो जाती है।

इस अध्ययन में कार्बन का सामाजिक मूल्य निर्धारित किया गया है। इस अध्ययन के अनुसार वायुमंडल में 4434 मेट्रिक टन कार्बन के उत्सर्जन से कम से कम एक व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। यह आकलन केवल बढ़ाते तापमान पर आधारित है, इसमें बाढ़, सूखा, चक्रवात और दूसरी प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली मौतों को शामिल नहीं किया गया है।

जाहिर है भारत समेत दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश ग्रीनहाउस गैसों का अनियंत्रित उत्सर्जन कर मानवता के विरुद्ध अपराध कर रहे हैं। पर, समस्या यह है कि यही देश हरेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के मामले में मसीहा बन जाते हैं। गरीब देशों और अमीर देशों की गरीब आबादी परेशान है।

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