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पर्यावरण

सिर्फ अमेरिका, चीन, रूस, भारत और ब्राज़ील के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कारण पूरी दुनिया को उठाना पड़ता है 6 खरब डॉलर का नुकसान

Janjwar Desk
12 July 2023 8:14 AM GMT
सिर्फ अमेरिका, चीन, रूस, भारत और ब्राज़ील के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कारण पूरी दुनिया को उठाना पड़ता है 6 खरब डॉलर का नुकसान
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जी20 के देश गरीब देशों को लूटकर पहले से अधिक समृद्ध हो चुके होते हैं और गरीब देश पहले से अधिक बदहाल हो जाते हैं

दुनिया के 58 सबसे गरीब देश और छोटे द्वीपीय देश कोविड 19 महामारी के दौर से अबतक जी20 के देशों और इनके वित्तीय संस्थानों को ब्याज के तौर पर 50 अरब डॉलर से अधिक का भुगतान कर चुके हैं, विश्व बैंक के आंकड़ों के आधार पर तैयार की गयी इस रिपोर्ट के अनुसार गरीब देशों पर ब्याज का बोझ साल-दर-साल बढ़ता जा रहा है....

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

Actual policy of G20 is still based on 1940’s legacy of colonization. हमारे देश के तमाम शहरों में जी20 समूह की अध्यक्षता से सम्बंधित पोस्टर और होर्डिंग्स लगाए गए हैं – जिनपर लिखा है, वसुधैव कुटुम्बकम, एक धरती एक कुटुंब एक भविष्य। पर, दुनिया के सबसे समृद्ध देशों का इस पिकनिक और तमाशा समूह का मौलिक आधार 1940 से पहले तक पूरी दुनिया में व्याप्त औपनिवेशवाद ही है। जी20 की बैठकों पर भले ही वैश्विक अर्थव्यवस्था और समस्याओं की चर्चा का नाटक किया जाता हो, पर हरेक अगली बैठक तक जी20 के देश गरीब देशों को लूटकर पहले से अधिक समृद्ध हो चुके होते हैं और गरीब देश पहले से अधिक बदहाल हो जाते हैं।

जी20 देशों के वित्त मंत्रियों और बड़े बैंकों के अधिकारियों की बैठक गांधीनगर में आयोजित की जा रही है, पर इस बैठक से पहले लन्दन स्थित इन्टरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर एनवायरनमेंट एंड डेवलपमेंट ने एक रिपोर्ट प्रकाशित कर बताया है कि दुनिया के 58 सबसे गरीब देश और छोटे द्वीपीय देश कोविड 19 महामारी के दौर से अबतक जी20 के देशों और इनके वित्तीय संस्थानों को ब्याज के तौर पर 50 अरब डॉलर से अधिक का भुगतान कर चुके हैं। विश्व बैंक के आंकड़ों के आधार पर तैयार की गयी इस रिपोर्ट के अनुसार गरीब देशों पर ब्याज का बोझ साल-दर-साल बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2020 में इन देशों ने जी20 देशों को ब्याज के तौर पर 13 अरब डॉलर का भुगतान किया, जो वर्ष 2021 में बढ़कर 14 अरब डॉलर हो गया। वर्ष 2022 में गरीब देशों ने ब्याज के तौर पर 21 अरब डॉलर का भुगतान किया।

इन्टरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर एनवायरनमेंट एंड डेवलपमेंट के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर डॉ टॉम मिशेल के अनुसार गरीब देश ही जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि से सबसे अधिक प्रभावित हैं, पर इन देशों के पास इन प्रभावों से निपटने और जनता को बुनियादी सुविधाएं देने के आर्थिक संसाधन नहीं हैं। इन देशों के आर्थिक संसाधनों का एक बड़ा हिस्सा अमीर देशों का कर्ज चुकाने में चला जाता है। गरीब देश आर्थिक बोझ के तले दब कर रह गए हैं, पर जी20 समूह इन्हें कोई रियायत देने को तैयार नहीं है।

वर्ष 2021 के आकलन के आधार पर इन 58 सबसे गरीब देशों को जी20 समूह के देशों को ब्याज के तौर पर अभी और 155 अरब डॉलर का भुगतान करना है। इसी आकलन के अनुसार इन गरीब देशों को विश्व बैंक और यूरोपियन डेवलपमेंट फण्ड को भी ब्याज के तौर पर 131 अरब डॉलर का भुगतान करना है।

डॉ. टॉम मिशेल के अनुसार जी20 समूह की मूल भावना वर्ष 1940 से पहले के औपनिवेशवाद से अलग नहीं है और इन अमीर देशों की समृद्धि का आधार ही गरीब देशों से की जाने वाली लूट है। जी20 समूह के सभी देश या तो ऐतिहासिक तौर पर या फिर हाल के दशकों में तापमान वृद्धि के लिए जिम्मेदार कार्बन डाइऑक्साइड के सबसे बड़े उत्सर्जक हैं, जबकि गरीब देशों का यह योगदान नगण्य है। पर, तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन की सबसे अधिक मार यही गरीब देश झेल रहे हैं। गरीब देश एक तरफ तो तापमान वृद्धि के प्रभावों से जूझ रहे हैं तो दूसरी तरफ इसके लिए जिम्मेदार देशों और बड़े बैंकों का खजाना भी भर रहे हैं। इन गरीब देशों के साथ अन्याय किया जा रहा है।

इससे पहले डेब्ट जस्टिस नामक एक संगठन ने बताया था कि दुनिया के गरीब देशों पर इस वर्ष ब्याज का बोझ पिछले 25 वर्षों में सर्वाधिक है। लन्दन स्थित यह संगठन आर्थिक मानवाधिकार के क्षेत्र में काम करता है, और गरीब देशों द्वारा लिए जाने वाले कर्जे और फिर चुकाए जाने वाले ब्याज का आकलन करता है। दुनिया के 91 गरीब देशों द्वारा लिए गए कर्जे और ब्याज के आधार पर डेब्ट जस्टिस ने बताया है कि इस वर्ष इन देशों को अपनी वार्षिक आय का औसतन 16.3 प्रतिशत हिस्सा केवल ब्याज के तौर पर चुकाना होगा।

वर्ष 2011 में कुल राष्ट्रीय आय में ब्याज का हिस्सा महज 6.6 प्रतिशत था, यानि वर्ष 2023 तक इसमें 150 प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है। कुल राष्ट्रीय आय के सन्दर्भ में ब्याज का हिस्सा वर्ष 2020 में 12.9 प्रतिशत, वर्ष 2021 में 13.4 प्रतिशत, वर्ष 2022 में 16.2 प्रतिशत, वर्ष 2023 में 16.3 प्रतिशत और वर्ष 2024 में 16.7 प्रतिशत का अनुमान है। आंकड़ों से स्पष्ट है कि गरीब देश कर्ज के बोझ से पूरी तरह घिर चुके हैं।

डेब्ट जस्टिस के अनुसार गरीब देशों पर ब्याज का बोझ चरम स्थिति में पहुँच गया है, अधिकतर देश इस बोझ से उबार नहीं पायेंगे और उनकी अर्थव्यवस्था डूब जायेगी। यह स्थिति दुनिया के बाकी देशों के लिए भी भयावह है, और इससे अमीर देशों का आर्थिक औपनिवेशवाद बढ़ता जाएगा। पूरी दुनिया के कुल सकल घरेलू उत्पाद में से जी20 देशों का योगदान 90 प्रतिशत है और वैश्विक व्यापार में इसकी भागीदारी 80 प्रतिशत से भी अधिक है।

इन आंकड़ों से इतना तो स्पष्ट है कि जी20 समूह जो संख्या के सन्दर्भ में दुनिया के कुल देशों का लगभग 10 प्रतिशत है, पूरे दुनिया के व्यापार और प्राकृतिक संसाधनों को पूरी तरह नियंत्रित करता है। इन आंकड़ों से वैश्विक स्तर पर व्यापक असमानता के कारण को आसानी से समझा जा सकता है। जाहिर है, दुनिया की अर्थव्यवस्था जिसमें वैश्विक आर्थिक मंदी भी शामिल है, इन्ही देशों की देन है। अर्थव्यवस्था से परे, दुनिया के सभी मानवाधिकार, समानता और पर्यावरण सम्बंधित समस्याए भी जी20 समूह के देशों की देन हैं। यही जी20 का असली चेहरा है, जहां भाषण, आश्वासन और सदस्य देशों द्वारा एक-दूसरे की तारीफ़ के अलावा कुछ नहीं होता।

दुनिया के सभी प्राकृतिक संसाधनों की लूट में इन देशों का ही हाथ है और दुनिया में जितना कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है उसकी 80 प्रतिशत भागीदारी इन्हीं देशों की है। कार्बन डाइऑक्साइड के लगातार उत्सर्जन के कारण जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि हो रही है जिसका असर पूरी दुनिया पर पड़ रहा है। यानि दुनिया के 10 प्रतिशत देश पूरी दुनिया का तापमान बढ़ा रहे हैं। सबसे आश्चर्य तो यह है कि यही देश अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में दुनिया के सभी देशों को जलवायु परिवर्तन रोकने और प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने की सीख भी देते हैं।

अमेरिका की रिसर्च यूनिवर्सिटी डार्टमौथ कॉलेज के वैज्ञानिक क्रिस काल्लाहन के नेतृत्व में किये गए क्लाइमेट चेंज नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि ग्रीनहाउस गैसों के सबसे बड़े उत्सर्जक और जी20 समूह के सदस्य देश पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था प्रभावित कर रहे हैं। दरअसल ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है तो वे वायुमंडल में मिलकर पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन करती हैं। इसलिए यदि इनका उत्सर्जन भारत या किसी भी देश में हो, प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ता है। सबसे अधिक प्रभाव गरीब देशों पर पड़ता है। इस अध्ययन को वर्ष 1990 से 2014 तक सीमित रखा गया है। इस अवधि में अमेरिका में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से दुनिया को 1.91 ख़रब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा, जो जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया में होने वाले कुल नुकसान का 16.5 प्रतिशत है।

इस सूची में दूसरे स्थान पर चीन है, जहां के उत्सर्जन से दुनिया को 1.83 ख़रब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा है, यह राशि दुनिया में जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले कुल नुकसान का 15.8 प्रतिशत है। तीसरे स्थान पर 986 अरब डॉलर के वैश्विक आर्थिक नुकसान के साथ रूस है। चौथे स्थान पर भारत है। भारत में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण दुनिया को 809 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा और यह राशि वैश्विक आर्थिक नुकसान का 7 प्रतिशत है। इस तरह जलवायु परिवर्तन के कारण पूरी दुनिया में होने वाले आर्थिक नुकसान के योगदान में हमारे देश का स्थान दुनिया में चौथा है, पर हमारे प्रधानमंत्री लगातार बताते रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन केवल अमेरिका और यूरोपीय देशों की देन है। अकेले अमेरिका, चीन, रूस, भारत और ब्राज़ील द्वारा सम्मिलित तौर पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण पूरी दुनिया को 6 खरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ता है, यह राशि वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 11 प्रतिशत है। इस पूरी सूची में सभी देश जी20 समूह के सदस्य हैं।

ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव दुनिया में असमानता बढ़ा रहा है। जलवायु परिवर्तन अमीर और औद्योगिक देशों द्वारा किये जा रहे ग्रीनहाउस गैसों के कारण बढ़ रहा है, पर इससे सबसे अधिक प्रभावित गरीब देश हो रहे हैं। इसीलिए, ऐसी परिस्थितियों में यदि अमीर देश गरीब देशों की मदद करते हैं तब उसे आभार नहीं कहा जा सकता, बल्कि ऐसी मदद अमीर देशों का नैतिक कर्तव्य है।

गरीब देशों में ब्याज के बढ़ते बोझ के कारण जनता के विकास की परियोजनाओं में कटौती की जा रही, जलवायु परिवर्तन रोकने के उपायों को नजरअंदाज किया जा रहा है और पूरे दुनिया में मानवाधिकार का हनन किया जा रहा है। इस स्थिति से गरीब देशों को बाहर करने के लिए जरूरी है कि एक बार अब तक के ब्याज को पूरे तरफ से माफ़ कर दिया जाए, या फिर ब्याजदर में भारी कटौती की जाए।

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