बाघों को कोविड संक्रमण से बचाने के लिए क्या अभयारण्यों को सैलानियों के लिए बंद रखना जायज़ है ?
रोहिणी नीलेकणि की विश्लेषण
जनज्वार। चाहे जिस पैमाने पर तोल लीजिये भारत का प्रोजेक्ट टाइगर एक सफल अभियान है। हमारे 51 बाघ अभयारण्य कम से कम 3000 बाघों का दावा करते हैं। ज़्यादा से ज़्यादा भारतवासी सफ़ारी पार्क पहुँचते हैं उन्हें और दूसरे अचंभित करने वाले वन्यजीवों को निहारने के लिए । इसीलिये प्रकृति प्रेमी अब लॉकडाउन के बाद जंगलों का रुख करने को आतुर हैं। हालांकि,7 जून को नैशनल टाइगर कंज़र्वेशन ऑथोरिटी (एनटीसीए) ने बाघ की आबादी वाले राज्यों के चीफ़ वाइल्डलाइफ़ वार्डनों को एक सर्कुलर भेजा है।
इस सर्कुलर में चेन्नई चिड़ियाघर में एक शेरनी की कोविड-19 संक्रमण से हुई मौत की शंका ज़ाहिर करते हुए चेतावनी दी गई थी कि बीमारी से प्रभावित मनुष्यों से बंदी बनाये गए वन्यजीवों में संक्रमण फैलने की बहुत ज़्यादा संभावना है। एनटीसीए को डर है कि इसी तरह का संक्रमण बाघ अभयारण्य पहुँच सकता है, इसलिए अगले आदेश तक उन्हें पर्यटन से जुडी गतिविधियों के लिए बंद किये जाने की ज़रुरत है।
हमारे वन्यजीवों को सुरक्षित रखने की एनटीसीए की मंशा का सम्मान किया जाना चाहिए। फिर भी इस ख़ास निर्देश पर व्यापक जन चर्चा भी होनी चाहिए।
जंगल और वन्यजीव अभयारण्य समवर्ती सूची का विषय हैं। किसी राज्य के जंगलों से जुड़े ज़्यादातर मुद्दों पर अंतिम निर्णायक भूमिका राज्य के चीफ़ वाइल्डलाइफ़ वार्डनों की ही होती है। ऐसा करने से बहुत अधिक विविधता से भरे हमारे पारिस्थिक मंडल में विकेन्द्रित, सन्दर्भ युक्त और समय पर लिए जाने वाले निर्णयों की जगह बनी रहती है।
कलम के एक झटके से राज्य स्तर के जंगलों को बंद करने का फ़रमान अफ़सोसजनक है। इसे तुरंत ही लोकप्रिय और कमाऊ सफ़ारी पार्कों के लिए मशहूर मध्य प्रदेश राज्य में चुनौती दी गई है। अब जबकि देश धीरे-धीरे लॉकडाउन ख़त्म करने की ओर बढ़ रहा है, तो ऐसे निर्णय का समय भी पेचीदा लगता है।
मध्य भारत में चलन के विपरीत कर्नाटक में बाघ अभयारण्य आम तौर पर साल भर खुले रहते हैं लेकिन महामारी की इस दूसरी क्रूर पारी में उन्हें भी लगभग 2 महीने बंद करना सही निर्णय ही था। अब उन्हें खोले जाने की तैयारी चल रही है।
सरकार और नागरिक समाज संगठनों ने लॉकडाउन के समय का इस्तेमाल पार्क के आस-पास रहने वाले समुदायों को शिक्षित करने, उनकी जांच करने,उनका इलाज करने और यदि संभव हुआ तो टीका लगवाने में किया। इन समुदायों में वन विभाग के कर्मचारी,पर्यटन विभाग के कर्मचारी और आदिवासी समुदाय के लोग शामिल हैं।
जहां तक सैलानियों का सवाल है तो दुखद सच तो यही है कि शहरी संभ्रांत ही सफ़ारी पर्यटन के लिए छुट्टियों का प्रबंध कर सकता है और इसकी पूरी संभावना है कि उसे टीके लग चुके हैं जिसके चलते वन्यजीवों को होने वाला खतरा घट जाता है। इसलिए कुछ अभयारण्य तो अब जानवरों को मनुष्यों से होने वाले ख़तरे और मनुष्यों को जानवरों से होने वाले ख़तरे को लेकर कुछ महीनों पहले की तुलना में ज़्यादा सुरक्षित हैं।
ऐसी घटनाओं का दस्तावेजीकरण किया जा चुका है जिनमें मनुष्यों से चिड़ियाघर के जानवरों और पालतू जानवरों को भी सार्स-कोवि-2 संक्रमण हुआ है,हालाँकि मौत नहीं के बराबर हुई हैं। संक्रमण मुख्यतया संक्रमित मनुष्यों से सीधे संपर्क में आने की वजह से हुआ है, फिर चाहे वो चिड़ियाघर का रख-रखाव करने वाले हों या घरेलू जानवरों के मालिक। दुनिया के किसी भी कोने में ऐसे उदहारण नहीं मिलते हैं जिनमें मुक्त विचरण करते वन्यजीव मनुष्यों द्वारा कोविड-19 से संक्रमित हो गए हों।
बहरहाल, भारत के बाघ अभयारण्यों में प्रवेश कड़ी सुरक्षा के अंतर्गत होता है। जीप और लोगों को कहा जाता है कि वे पार्क के जानवरों से दूरी बना कर रखें। यह दूरी संक्रमित मनुष्यों से भी सुरक्षित रखती है और वह भी खुले वातावरण में। चूंकि अधिकतर लोग मास्क पहने रहते हैं,और यह ज़रूरी भी होना चाहिए, इसलिए अच्छा-खासा अतिरिक्त एहतियात हो जाता है। निसंदेह,ये तो स्थानीय वन अधिकारीयों को ही खुद तय करना होगा कि क्या सफ़ारी यात्रा लोगों और वन्यजीवों के लिए सुरक्षित है या नहीं ?
महामारी शुरू होने के समय से ही इन अभयारण्यों के आस-पास के इलाकों में रहने वाले लाखों लोगों की आजीविका का संकट पैदा हो गया। दीर्घकालीन बंद के असर के फायदे-नुक्सान का विश्लेषण ना केवल वहां रहने वाले लोगों बल्कि उन वन्यजीवों को लेकर भी होना चाहिए जिन्हें हम जीवित बचाये रखना चाहते हैं। दस्तावेजों में यह दर्ज़ है कि पिछले साल के बंद के दौरान लोगों द्वारा गुज़र-बसर के लिए वन्यजीवों की कहीं ज़्यादा प्रजातियों की हत्या की गई।
वन्यजीव पर्यटन अर्थव्यवस्था राज्य के खजाने में अच्छी-ख़ासी रकम लाती है। ये जंगलों के रख-रखाव की ऐसी व्यवस्था भी खड़ी करती है जो उन्हें ना केवल अनियंत्रित अवैध शिकार और जंगल की आग से सुरक्षा प्रदान करने में सहायता देती है बल्कि वन संरक्षण के लिए प्रोत्साहन को भी बढ़ावा देती है।
सैलानियों के ना रहने पर भी वन अधिकारी और कर्मचारी अपना नियमित कार्य करने के लिए बाघ अभियारण्य में जाते ही हैं। लाखों आदिवासी इन पार्कों के आस-पास या भीतर रहते हैं और जंगल के छोटे-मोटे उत्पाद को इकट्ठा करने का अधिकार रखते हैं। ये कतई वांछनीय अथवा संभव नहीं है कि उन्हें उन जंगलों से अलग रखा जाये जिन्हें बचाये रखने में उनका भी योगदान होता है।
बाघ अभयारण्य के बाहर भी बहुतायत वन्यजीव पाए जाते हैं। इनमें वे बड़ी बिल्लियां भी शामिल हैं जो जंगल से भटक जाती हैं। यह प्रमुख प्रजातीय संरक्षण के लिए सफलता का सूचक है, और इसे नियंत्रित करना असंभव है। तो फिर क्या सफ़ारी पार्कों को बंद करने से वास्तव में खतरा कम हो जाता है ?
इसके बदले वन विभागों को इस अवसर का फ़ायदा उठा खुद को भविष्य में आने वाली लहरों और महामारियों के लिए तैयार करना चाहिए। किसी को नहीं पता कि महामारी पूरी तरह कब ख़त्म होगी। इस महामारी से यही सबक मिलता है कि इंसान को भविष्य में निश्चित रूप में होने वाले संक्रामक रोगों के खतरों को कम करने और उसके साथ जीने के नए तरीके ईजाद करने ही होंगे।
दूसरी लहर के घटने के साथ ही ऐसा करने के बहुत सारे अवसर अब बाघ अभयारण्य में हैं। प्रजातियों और वन्यजीवों पर निगरानी बनाये रखने के लिए जल्दी से जल्दी गैर-आक्रामक और जैव सुरक्षित प्रोटोकॉल को अपनाना होगा। वैसे भी अभयारण्य के पास रहने वाले आवारा मवेशियों और जंगली कुत्तों से पशु जन्य रोगों का खतरा सच्चाई बनता जा रहा है। सीमा से अधिक गतिशीलता को समझे जाने और व्यापक स्तर पर समझाए जाने की ज़रुरत है। त्वरित कार्यवाही के लिए पूर्व में सूचना देने वाली व्यवस्था खड़ी की जा सकती है ताकि अगर कोई वन्यजीव कोविड-19 से मरता है तो संक्रमण को रोका जा सके। भारत में पर्यावरण सम्बन्धी शोध करने वाले ऐसे संगठनों की कमी नहीं है जो मौका दिए जाने पर बड़े उत्साह के साथ ऐसे सभी प्रयासों में मदद करने के लिए तत्पर रहेंगे।
राज्य सरकारें शीघ्रातिशीघ्र इस तरह की वैज्ञानिक शोध और रोकथाम के उपाय शुरू कर सकती हैं और फिर यह निर्णय ले सकती हैं कि अपने पार्कों को खोला जाना सुरक्षित है या नहीं। जैसा कि इस महामारी के दौरान दुनिया भर के लोगों ने महसूस किया है कि कभी-कभी पूर्ण प्रतिबन्ध से फ़ायदे की तुलना में नुक्सान ज़्यादा होता है।
विकेन्द्रीकृत विज्ञानं आधारित निर्णय प्रक्रिया विमर्श को भय के बजाय उम्मीद की ओर,नियंत्रण के भ्रम की बजाय सामान्य की ओर लौटने की संभावना की तरफ मोड़ सकती है। यह एक ऐसा रचनात्मक अवसर है जब हम अपने अभयारण्यों में नागरिकों को ना केवल सैलानियों के रूप में बल्कि हमारी समृद्ध जैव विविधता के संरक्षक के रूप में भी आमंत्रित करें।
(लेखिका अर्घ्यम फॉउंडेशन की अध्यक्ष हैं। यह फाउंडेशन जल को टिकाऊ संसाधन बनाये रखने की दिशा में काम करता है। यह आलेख पहले 'द इंडियन एक्सप्रेस' में प्रकाशित किया जा चुका है।)