Uttarakhand Flood : उत्तराखंड में आपदा प्राकृतिक नहीं, तथाकथित मोदीनुमा विकास की देन
(उत्तराखंड में भारी बारिश के बाद की ताजा तस्वीरें)
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
Uttarakhand Flood : उत्तराखंड में जितनी आसानी से मौतों को त्वरित बाढ़, बादलं का फटना, भूस्खलन और चट्टानों के गिरने (Flash Floods And Landslides In Uttarakhand) पर आरोप मढ़ कर सरकारें अपनी जिम्मेदारी से बरी हो जाती हैं, दरअसल ऐसा नहीं है। वास्तविकता यह है कि यह सब, तथाकथित विकास की देन है, और हरेक मौतों के लिए केवल सरकारें जिम्मेदार करार दी जानी चाहिए और हरेक सरकारी/निजी संस्था जो हिमालय के पर्यावरण से छेड़छाड़ कर रही है और पर्यावरण मंत्रालय (Ministry of Environment, Forest & Climate Change) जैसी वो संस्थाएं भी जिनका काम पर्यावरण को बिगड़ने से रोकना है, को नरसंहार (Genocide) का दोषी करार दिया जाना चाहिए।
आश्चर्य यह है कि प्रधानमंत्री समेत पूरी केंद्र सरकार और राज्य सरकार हरेक ऐसी आपदा के बाद हवाई दौरे, मरे और प्रभावित लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त कर और मुवावजा देकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाती हैं और फिर से प्रकृति का दोहन करने में व्यस्त हो जाती हैं।
हिमालय के विनाश की निशानी, प्रधानमंत्री का ड्रीम प्रोजेक्ट चार धाम आल वेदर रोड (Char Dham All Weather Road) भी बेहाल है और इसपर आवागमन बंद कर दिया गया है।
हमारे प्रधानमंत्री जी देश और दुनिया के मंच पर खड़े होकर जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि (Climate Change & Global Warming) पर खूब भाषण देते हैं। पर सच तो यही है कि उनके लिए यह विषय केवल सौर और पवन ऊर्जा तक ही सीमित है, उन्हें इसके विज्ञान से और वैज्ञानिकों की चेतावनी से कोई मतलब नहीं है।
हिमालय क्षेत्र के बारे में दुनियाभर के वैज्ञानिक कुछ मसलों पर एकमत हैं। जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि का दुनिया में जहां सबसे अधिक घातक प्रभाव पड़ेगा, वह हिमालय क्षेत्र है और यहाँ के मौसम का मिजाज भी तेजी से बदल रहा है। यह सब अब वैज्ञानिकों के आकलन और अनुमान से बाहर निकलकर धरातल पर दिखने लगा हैं और अब तो एक साल में ही कई बार ऐसी आपदा का सामना करना पड़ता है।
इस वर्ष भी जुलाई-अगस्त में, फिर सितम्बर में और अब अक्टूबर में ऐसी आकस्मिक बारिश, बादलों का फटना और बाढ़ (flash floods and cloudbursts) से हिमालय की आबादी जूझ रही है, और अब पहले से भी भयानक हालात हैं। इस बीच प्रधानमंत्री की सहमति से तथाकथित विकास परियोजनाएं तेजी से बिना रोकटोक के चलती रहती हैं, पर्यावरण का विनाश करती रहती हैं और पर्यावरण मंत्रालय इस विनाश में अग्रणी भूमिका निभाता है। हरेक बार वही हवाई सर्वेक्षण का नाटक, मुवावजा और शोक – फिर ऐसी अगली आपदा का इंतज़ार।
दुनिया में अब तो बहुत छोटे और गरीब देश भी जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से अपनी आबादी, अपने शहर और गाँव को बचाने (Climate resilience and adaptation) के लिए बड़ी योजनायें बना रहे हैं और इन योजनाओं का कार्यान्वयन भी कर रहे हैं। हमारे देश में आबादी को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचाने की कोई योजना नहीं है – लोग मरते हैं, डूबते हैं, बाढ़ में बह जाते हैं, और चट्टानों के नीचे दब जाते हैं – पर मीडिया एनडीआरऍफ़ (NDRF) ने कितने लोगों को बचाया, बस इसे दिखाने में व्यस्त रहता है और सरकारें मुवावजा देकर छुट्टी पा जाती हैं।
इस दौर में जब जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से प्राकृतिक सम्पदा और आबादी को बचाने के लिए भारी निवेश की जरूरत है, तब सरकारें प्राकृतिक सम्पदा के दोहन और नरसंहार वाली परियोजनाओं में धड़ल्ले से निवेश कर रही है। हिमालय पर जो कुछ बर्बादी हो रही है, विनाश हो रहा है – उसमें बहुत बड़ा योगदान प्रधानमंत्री के ड्रीम प्रोजेक्ट चार-धाम आल वेदर हाईवे, बाँध, पनबिजली योजनायों और इसी तरह की दूसरी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं का योगदान है। देसी-विदेशी वैज्ञानिक और पर्यावरणविद लम्बे समय से सरकारों को इस बारे में आगाह कर रहे हैं, चेतावनी दे रहे हैं, पर सरकारों के लिए हरेक चेतावनी बकवास है।
वर्ष 2019 में केन्द्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी (Nitin Gadkari) ने संसद में जो कुछ कहा उसका मतलब स्पष्ट था – भारत गरीब देश है और गरीब देश इंफ्रास्ट्रक्चर की चिंता करता है, पर्यावरण की नहीं। जनता का पैसा इंफ्रास्ट्रक्चर में लगने से विकास होगा, पर्यावरण से क्या फायदा होगा? नितिन गडकरी समेत पूरी सरकार का यही मूलमंत्र है। जब गंगा सफाई का काम नितिन गडकरी के जिम्मे था तब भी गंगा साफ़ तो नहीं हुई, पर गडकरी साहब ने उसमें जलपोत और क्रूज जरूर चला दिए थे।
गडकरी जी और प्रधानमंत्री के लिए तो तीर्थयात्रा के अतिरिक्त हिमालय का भी कोई महत्व नहीं है, तभी तमाम पर्यावरण विशेषज्ञों के विरोध के बाद भी आल-वेदर रोड का काम जोरशोर से चल रहा है। दूसरी तरफ पर्यावरण मंत्री को पर्यावरण की कोई चिंता नहीं है, उन्हें तो बस परियोजनाओं के पर्यावरण स्वीकृति (Environmental Clearance) की चिंता है और प्रधानमंत्री जी को खुश रखने की चिंता है। दुनियाभर में आज स्थिति यह है की जितने नए बड़े बाँध बन रहे हैं उससे कहीं अधिक संख्या में इन्हें तोडा जा रहा है।
भारत, चीन और कुछ इसी तरह के दूसरे विकासशील देश ही आज तक बड़े बाँध बना रहे हैं। बड़े बांधों से केवल नदियों का और पारिस्थितिकी तंत्र का विनाश ही होता है, इसके किनारे रहने वाले लोग प्रभावित होते हैं, एक समाज और उसकी संस्कृति पूरी तरह नष्ट हो जाती हैं, वनस्पतियों और जन्तुवों की स्थानिक प्रजातियाँ नष्ट हो जातीं हैं। सबसे बड़ी बात यह है की कोई भी पनबिजली परियोजना ऐसी नहीं है जिससे उतनी बिजली बन सकती हो जितने के लिए इसे डिजाईन किया गया है।
बहुचर्चित चारधाम हाईवे पर्यावरण को रौदने वाले प्रोजेक्ट में यह अग्रणी है। हिमालय के अति संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र (sensitive ecosystem and geology) वाले क्षेत्र में बन रहे इस हाईवे के उदघाटन के समय प्रधानमंत्री ने गडकरी को श्रवण कुमार (Shravan Kumar) बता दिया था। इस तुलना ने इतना तो साबित कर दिया कि प्रधानमंत्री को पौराणिक कथाओं के केवल नाम पता है, किसने क्या किया यह तो पता ही नहीं है। शायद प्रधानमंत्री को ही यह पता हो कि श्रवण कुमार ने अपने कंधे पर नहीं बल्कि हाईवे बनवाकर बड़ी कार से अपने माता-पिता को तीर्थ यात्रा करवाई हो। श्रवण कुमार ने अपनी यात्रा में एक भी पेड़ काटा हो यह तो नहीं पता पर तथाकथित श्रवण कुमार के प्रोजेक्ट में आधिकारिक तौर पर 33000 से अधिक पेड़ काटे गए हैं।
प्रधानमंत्री जी, श्रवण कुमार इसलिए महान बने क्योंकि उन्होंने उस समय मौजूद संसाधनों और पगडंडियों का उपयोग कर कठिन यात्रा की, जबकि आपके तथाकथित श्रवण कुमार तो किसी भी कीमत पर हाईवे और जलमार्ग बनाना जानते हैं, चाहे पर्यावरण का कितना भी विनाश हो रहा हो।
चारधाम आल वेदर हाईवे प्रधानमंत्री का ड्रीम प्रोजेक्ट है और कुल 889 किलोमीटर लम्बे इस हाईवे की कुल लागत 11700 करोड़ रुपये है। इसकी शुरुआत 27 दिसम्बर 2016 को प्रधानमंत्री ने किया था और नितिन गडकरी भी इस कार्यक्रम में मौजूद थे। आधिकारिक तौर पर इस परियोजना में 33000 पेड़ काटे जाने हैं और 373 हेक्टेयर वन भूमि की जरूरत पड़ेगी। यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यह पूरे परियोजना गंगा के हिमालयी क्षेत्र में स्थित है, और प्रधानमंत्री नमामि गंगे (Namami Gange) का जाप करते हैं और नितिन गडकरी लगातार निर्मल और अविरल गंगा की बात करते रहे हैं।
प्रसिद्ध भू-वैज्ञानिक के एस वाल्डिया ने भी इस परियोजना की आलोचना की थी और इसे अनावश्यक बताया था। देश के पर्यावरण के लगभग सभी जानकारों ने इस परियोजना का विरोध किया था। गंगा के लिए अनशन करते हुए आपनी जान देने वाले स्वामी सानंद (Swami Sanand) और स्वामी गोपाल दास (Swami Gopal Das) भी लगातार इस परियोजना का विरोध करते रहे थे।
इस परियोजना में सबसे बड़ा घपला यह है कि इस पूरी परियोजना का पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (Environmental Impact Assessment) नहीं किया गया है। इस मामले में सरकार लगातार झूठ बोलता रही है। हमेशा की तरह पर्यावरण और वन मंत्रालय हरेक झूठ पर पर्दा डालने का प्रयास करता रहा है। दरअसल पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन की जरूरत वर्तमान हाईवे को चौड़ा करने और 100 किलोमीटर तक आगे बढ़ाने में नहीं पड़ती है।
इस क्षेत्र में पहले से कुछ हाईवे थे, इसलिए सड़क परिवहन मंत्रालय (Surface Transport Ministry) ने इस पूरे परियोजना को सुविधानुसार 50 से अधिक हिस्सों में बाँट दिया जिससे पूरी परियोजना एक नहीं समझी जाए और किसी भी खंड में वर्तमान हाईवे से 100 किलोमीटर से कम दूरी बढानी पड़े। हिमालय के अति संवेदनशील क्षेत्र में इतने बड़े पैमाने पर घपले के बाद भी पर्यावरण मंत्रालय आँखे बंद किया बैठा रहा और प्रधानमंत्री के पर्यावरण-विरोधी सपने को पूरा करता रहा।
सरकार विकास करने चाहती है, पर पर्यावरण के विनाश की कीमत उसे क्यों नहीं नजर आती? बाढ़ और बादलों के फटने से मरते और बर्बाद होते लोग, शहर और गाँव, पानी का संकट, सूखी नदियाँ, मरती खेती, प्रदूषण से मरते लोग, सिकुड़ती जैव-विविविधता और सूखा – सब विकराल स्वरुप धारण कर चुके हैं। सरकार जिसे विकास मान कर चल रही है, उसी विकास के कारण लाखों लोग हरेक वर्ष मर रहे हैं और लाखों विस्थापित हो रहे हैं। पर पूंजीपतियों की सरकार को केवल बड़ी परियोजनाएं नजर आती हैं, फिर लोग मारें या जैव विविधता ख़त्म होती रहे, क्या फर्क पड़ता है।