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पर्यावरण

तापमान के साथ-साथ बढ़ती जा रही समाज में हिंसा और प्राकृतिक आपदाओं के बाद सत्ता की निरंकुशता

Janjwar Desk
21 Dec 2022 8:50 PM IST
तापमान के साथ-साथ बढ़ती जा रही समाज में हिंसा और प्राकृतिक आपदाओं के बाद सत्ता की निरंकुशता
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file photo

चरम प्राकृतिक आपदाओं से केवल समाज, स्वास्थ्य और प्राकृतिक संसाधन ही प्रभावित नहीं होते बल्कि राजनैतिक माहौल भी प्रभावित होता है, पर इसकी चर्चा शायद ही कभी की जाती है। एक चरम प्राकृतिक आपदा का प्रभाव सात वर्षों तक रहता है, और इस दौरान प्रजातंत्र के स्तर में लगभग 25 प्रतिशत की गिरावट आती है...

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि एक वैश्विक समस्या है, जाहिर है इसका असर भी पूरी दुनिया पर देखा जा रहा है। तापमान वृद्धि के स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर प्रभावों की चर्चा लम्बे समय से के जा रही है, पर पिछले कुछ वर्षों के दौरान अनेक अध्ययनों ने यह साबित किया है कि सामान्य से अधिक तापमान पर मानव व्यवहार में अंतर आने लगता है और वह अधिक हिंसक हो उठता है। दूसरी तरफ एक अन्य अध्ययन के अनुसार तापमान वृद्धि के कारण प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती संख्या और आवृत्ति शासकों को पहले से अधिक निरंकुश बनाती जा रही है।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ वाशिंगटन के वैज्ञानिक डॉ विवियन लीयोंस ने अपने नेतृत्व में अमेरिका में बंदूकों की हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित 100 शहरों में वर्ष 2015 से 2020 तक होने वाली ऐसी हिंसा का विस्तृत अध्ययन किया है। इस अध्ययन की विशेषता यह है कि इसमें ऐसी हिंसा का हिंसा के समय या हिंसा के दिन के तापमान के साथ आकलन किया गया है। इस अध्ययन के अनुसार बंदूकों से होने वाली हिंसा की वारदातें गर्मियों में बढ़ जाती हैं।

इस अध्ययन के लिए इन 100 शहरों में आकलन के 6 वर्षों के दौरान बंदूकों से होने वाली हिंसा की कुल 116511 वारदातें दर्ज की गयी हैं, इनमें से लगभग 80000 वारदातें गर्मी के मौसम में दर्ज की गयी हैं। सबसे अधिक हिंसक वारदातों के समय स्थानीय तापमान 29 डिग्री से 32 डिग्री सेल्सियस के बीच पाया गया।

दूसरे तरफ किसी भी मौसम में सामान्य से अधिक तापमान तापमान होने पर भी बंदूकों से की जाने वाली हिंसक वारदातें बढ़ जाती हैं। कुल हिंसक वारदातों में से लगभग 8000, यानि 6.9 प्रतिशत गर्मी के अलावा दूसरे मौसम में दर्ज की गई हैं, जब स्थानीय तापमान सामान्य से अधिक था। इस अध्ययन के अनुसार सामान्य तापमान में मामूली से बृद्धि भी हिंसा को बढाने में सहायक होती है। अध्ययन में बताया गया है कि हिंसा और गर्मी के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए विस्तृत अनुसंधान की जरूरत है, फिर भी कुछ तथ्य बिलकुल स्पष्ट हैं। अत्यधिक गर्मी में मानसिक तनाव बढाने वाले हॉर्मोन का उत्सर्जन बढ़ जाता है, और संभव है इसके कारण व्यवहार में आक्रामकता बढ़ जाती हो।

भले ही यह अध्ययन अमेरिका में बन्दूक की हिंसा से सम्बंधित हो, पर आप अपने समाज को देखिये, टीवी डिबेट को देखिये, सोशल मीडिया पोस्ट पर गौर कीजिये या फिर दुनिया के समाचारों को देखिये – स्पष्ट होगा कि दुनियाभर में समाज पहले से अधिक हिंसक होता जा रहा है। हम पहले से अधिक हिंसक बोल बोलने लगे हैं, हिंसक भाषण देने वाले नेताओं को भारी बहुमत से सत्ता में स्थापित करते जा रहे हैं, हिंसा के एक आह्वान पर भीड़ या झुण्ड बनकर ह्त्या भी करने लगे हैं, पहले जो हत्या करते थे वे अब हत्या के बाद मृत शरीर के असंख्य टुकड़े करने लगे हैं। आज के समाज को देखकर यही लगता है मानो पिछले दशकों का सामाजिक विकास महज एक भ्रम था और हम आज भी कबीलों की ही परम्परा जी रहे हैं।

हाल में ही एक नए अध्ययन में यह खुलासा किया गया है कि आपदा, विशेष तौर पर प्राकृतिक आपदा के बाद सत्ता की निरंकुशता पहले से अधिक बढ़ जाती है। पहले प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति का समय लंबा था, पर अब जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से यह एक वार्षिक और लगातार घटना है। जाहिर है, जलवायु परिवर्तन सत्ता की निरंकुशता और जनता के दमन के लिए जिम्मेदार है। बाढ़ और भयानक सूखा जैसी चरम पर्यावरणीय आपदाएं अब दुनिया के लिए सामान्य स्थिति है, क्योंकि पूरे साल कोई ना कोई क्षेत्र इनका सामना कर रहा होता है। चरम पर्यावरणीय आपदाएं भी जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि के सन्दर्भ में एक गलत नाम है, क्योंकि इन चरम घटनाओं का कारण प्रकृति और पर्यावरण नहीं है, बल्कि मनुष्य की गतिविधियाँ हैं, जिनके कारण बेतहाशा ग्रीनहाउस गैसों का वायुमंडल में उत्सर्जन हो रहा है।

जर्नल ऑफ़ डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार दुनिया में सत्ता की निराकुशता पिछले कुछ वर्षों से बढ़ती जा रही है, और इन्हीं वर्षों के दौरान जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से प्राकृतिक आपदाओं की संख्या भी तेजी से बढी है। इस अध्ययन के अनुसार चरम प्राकृतिक आपदाओं और सत्ता द्वारा जनता के दमन का सीधा सम्बन्ध है। इस अध्ययन को डाकिन यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्रियों, वैज्ञानिकों और मनोवैज्ञानिकों के एक दल ने किया है।

इसमें प्रशांत क्षेत्र, पूर्वी एशिया और कैरीबियन क्षेत्र के 47 छोटे द्वीपीय देशों में वर्ष 1950 से 2020 के बीच प्राकृतिक आपदाओं और प्रजातंत्र के स्तर का आकलन किया गया है, और इनें सम्बन्ध निर्धारित किया गया है। प्रजातंत्र के स्तर के आकलन के लिए पोलिटी-2 विधि का सहारा लिया गया है, जो प्रजातंत्र के स्तर के आकलन के लिए दुनियाभर में उपयोग में लाया जाता है। प्राकृतिक आपदाओं के बारे में जानकारी सम्बंधित देशों के मौसम विभाग से प्राप्त की गयी।

इस अध्ययन के अनुसार चरम प्राकृतिक आपदाओं से केवल समाज, स्वास्थ्य और प्राकृतिक संसाधन ही प्रभावित नहीं होते बल्कि राजनैतिक माहौल भी प्रभावित होता है, पर इसकी चर्चा शायद ही कभी की जाती है। एक चरम प्राकृतिक आपदा का प्रभाव सात वर्षों तक रहता है, और इस दौरान प्रजातंत्र के स्तर में लगभग 25 प्रतिशत की गिरावट आती है। आपदा के बाद प्पहाले वर्ष में ही प्रजातंत्र के स्तर में 4.25 प्रतिशत की गिरावट आ जाती है। आपदा के बाद प्रजातंत्र में गिरावट के असर से जनता की आजादी, राजनैतिक आजादी, सभा/आन्दोलन की आजादी और अभिव्यक्ति की आजादी भी प्रभावित होती है। कुल मिलाकर मानवाधिकार प्रभावित होता है।

ग्रीनलैंड की आधी से अधिक आबादी शिकार कर अपना गुजर-बसर करती है। सागर तटों के पास की आबादी सागर की सतह पर जमी बर्फ पर दूर तक जाती है और फिर मछलियों का शिकार करती है। शिकार के समय बड़े जानवरों से रक्षा के लिए अधिकतर लोगों के पास बड़े कुत्तों का झुण्ड होता है और यह भी मछलियों या फिर मांस पर पलता है। पर, तापमान बृद्धि के इस दौर में समुद्र के ऊपर या तो बर्फ नहीं जम रही है या फिर इसकी परत इतनी पतली होती है की उस पर चला नहीं जा सकता। इससे लोगों को मछली पकड़ने में दिक्कत आने लगी है। लोग तो भूखे रह लेते हैं, पर अपने कुत्तों को भूखा नहीं देख सकते। ग्रीनलैंड के अनेक नागरिक तो अपने कुत्तों को लगातार कई दिनों तक भूखा देखकर इतने दुखी हो जाते हैं की अब कुत्तों को मारने लगे हैं।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ कोपेनहेगेन, फोर्ड इंस्टिट्यूट ऑफ़ अर्बन इकनोमिक रिसर्च और यूनिवर्सिटी ऑफ़ ग्रीनलैंड के मनोवैज्ञानिकों और वैज्ञानिकों के संयुक्त दल ने ग्रीनलैंड की पिघलती बर्फ के बीच लोगों के मनोविज्ञान का अब तक का सबसे बड़ा अध्ययन किया है। इस दल के अनुसार ग्रीनलैंड की पिघलती बर्फ पूरी दुनिया में अध्ययन का विषय बनी हुई है, पर वहां के लोग इस बारे में क्या सोचते हैं यह कोई नहीं देखता। इस अध्ययन से स्पष्ट है कि ग्रीनलैंड के लोग बड़े मनोवैज्ञानिक संकट से गुजर रहे हैं। वहां के 92 प्रतिशत लोग मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है और 76 प्रतिशत इसके प्रभाव से ग्रस्त होने का दावा करते हैं। इसके विपरीत दुनियाभर में यह भ्रान्ति व्याप्त है कि ग्रीनलैंड के निवासी घटती बर्फ से खुश हैं।

अध्ययन के अनुसार अधिकतर लोगों का भरोसा है की घटती बर्फ से लोगों को, वनस्पतियों को और जंतुओं को नुकसान होगा। ग्रीनलैंड के 79 प्रतिशत निवासी मानते हैं कि समुद्र के ऊपर जमी बर्फ की परत पहले से अधिक खतरनाक हो गई है। कैनेडियन एसोसिएशन ऑफ़ फिसीशियन फॉर एनवायरनमेंट नामक संस्था के अध्यक्ष डॉ कोर्टनी होवार्ड के अनुसार जलवायु परिवर्तन का मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव एक उपेक्षित लेकिन बहुत गंभीर समस्या है। यह लोगों के जीवन और खाद्य सुरक्षा को प्रभावित कर रहा है।

ग्रीनलैंड के लोगों का जीवन का आधार पिघलता जा रहा है और लोग असहाय महसूस कर रहे हैं। डॉ कोर्टनी होवार्ड के अनुसार ग्रीनलैंड के लोगों की सोच बताने के लिए एक सटीक शब्द है, solastalgia, जिसका अर्थ वहां की भाषा में है, घर में रहकर भी घर की याद सताना। ग्रीनलैंड के लोगों के घर का परिवेश बदलने लगा है, अब बर्फ से ढके घर गायब हो गए हैं।

वर्ष 2018 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार सामान्य से अधिक तापमान होने पर आत्महत्या की दर बढ़ जाती है। वर्ष 2020 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार तापान बढ़ने पर सड़क दुर्घटनाएं, सामाजिक हिंसा, आत्महत्या और पानी में डूबने की घटनाएं बढ़ जाती हैं। अधिक तापमान मनुष्य की सोच को बदलने में सक्षम है और लोग अधिक हिंसक हो जाते हैं। ऐसे समय लोग अपने पर या दूसरों पर शारीरिक हमले भी अधिक करते हैं। वर्ष 2050 के तापमान बृद्धि के आकलन के अनुसार अमेरिका और मेक्सिको में आत्महत्या की दर में क्रमशः 1.4 प्रतिशत और 2.3 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो जायेगी। दुनिया के किसी भी देश की तुलना में ग्रीनलैंड में आत्महत्या की दर सबसे अधिक है, इसे अब तापमान बृद्धि से जोड़ कर देखा जा रहा है।

वैसे तो उपरोक्त अध्ययन ग्रीनलैंड में किया गया है, पर इसे हिमालय के सुदूर गाँव और कसबे से भी जोड़ा जा सकता है। हिमालय के ऊपर के क्षेत्रों में भी लोग ग्लेशियर की बर्फ के बीच ही जीवन यापन करते हैं, पर तापमान बृद्धि से वहां के ग्लेशिएर तेजी से पिघल रहे हैं। भविष्य में जब बर्फ इनकी नज़रों से ओझल हो जायेगी, अभी के छोटे झरने सूख चुके होंगे और परम्परागत फसलें जब बदलनी पड़ेंगी तब हो सकता है इस क्षेत्र के लोग भी मानसिक तौर पर प्रभावित होने लगें। इतना तो तय है कि चरम पूंजीवाद की आगोश में बैठी दुनिया बढ़ाते तापमान के साथ अस्थिर और हिंसक होती जा रही है – समाज का पतन हो रहा है, पर पूंजीवाद का विकास हो रहा है।

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