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Ground Zero : कालापानी देखना हो तो रामपुर टोंगिया में स्वागत है आपका! वन्यजीव बने दुश्मन तो बिजली-पानी स्वास्थ्य भी मय्यसर नहीं इस गांव को
उत्तराखंड के रामपुर टोंगिया से लौटकर सलीम मलिक की रिपोर्ट
Ground Zero : नैनीताल जिले की रामनगर तहसील को उस विश्व प्रसिद्ध कॉर्बेट नेशनल पार्क के लिए अधिक जाना जाता है, जहां कुलांचे मारते हिरणों, मदमस्त चाल से इतराते इठलाते चलते गजराज और जंगल की खामोशी को अपनी दहाड़ से थर्रा देने वाले बाघों को देखकर सैलानी रोमांच की स्वप्निली दुनिया में विचरण करते हैं, लेकिन सर रैमजे द्वारा बसाए गए रामनगर शहर का इससे इतर एक और परिचय भी है, जो कॉर्बेट नेशनल पार्क जैसी रूमानियत का तो एहसास नहीं कराता, बल्कि इसके ठीक उलट एक अवसाद को जन्म देता है।
तहसील मुख्यालय से उत्तर पूर्व दिशा में 32 किमी. की दूरी पर एक बस्ती है। रामपुर टोंगिया नाम की इस बस्ती की कहानी विचित्रताओं की उलटबासी का इतनी शिकार है कि अंग्रेजों के शासनकाल में यहां कोई परेशानी नहीं हुई तो स्वतंत्र भारत में शुरू हुई इनकी परेशानियों का कोई अंत नहीं है। जनज्वार टीम ने इस गांव में जाकर गांव के इतिहास भूगोल, दैनिक जीवन की दुश्वारियां, भौतिक परेशानियों, खेती, शिक्षा आदि से जुड़ी कुछ बातें जानने का प्रयास किया। रिपोर्ट में उसी सब का उल्लेख है, जो जाना-समझा और महसूस किया गया।
गांव का इतिहास
जिस रामपुर टोंगिया गांव की यह कहानी है वह उत्तराखंड का कोई इकलौता गांव नहीं है। राज्य में कई जगह फैले इन टोंगिया गांवों का सिलसिला पिछली शताब्दी के ब्रिटिशकालीन भारत से उस समय जुड़ता है, जब यूरोपीय देशों में लकड़ी की खपत बढ़ रही थी। व्यापारिक दृष्टिकोण रखने वाले अंग्रेजों ने यूरोपीय देशों की इस बढ़ती हुई खपत और अपने देश की जरूरतों को पूरा करने के लिए जंगल लगाने का निश्चय किया। हिमालय की तलहट्टी में व्यापक पैमाने पर जगह जगह सागौन-साल सहित कई प्रजातियों के पेड़ों का प्लांटेशन किया गया। इस प्लांटेशन को करने के लिए श्रमिकों की व्यवस्था अंग्रेजों ने उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में बसने वाली आबादी से की।
पहाड़ों से उस वक्त बड़ी संख्या में जंगल के प्लांटेशन के लिए लाए गए इन लोगों को अंग्रेजों ने प्लांटेशन के इर्द-गिर्द ही जमीनें आवंटित कर बसाया था। यह पिछली शताब्दी के पूर्वार्द्ध यानी 1930 की बात है। पहाड़ से प्लांटेशन के लिए इस आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा (अधिकांशतः) अनुसूचित जाति के लोगों का था। उस समय अंग्रेजों ने इन्हें जीवन जीने लायक सभी मूलभूत सुविधाएं भी मुहैया कराएं थीं। प्लांटेशन के इर्द गिर्द बसाई गई मजदूरों की इन्हीं बस्तियों को टोंगिया नाम से पुकारा गया। आजादी से पहले इन्हें जंगलों पर पूरे अधिकार दिए गए थे। आजादी के बाद भी वन विभाग ने इन्हें कुछ शर्तों के साथ जहां यह रहे थे, उसी भूमि के पट्टे देकर इन्हे रेगुलाइज किया था, लेकिन साल 1980 के आसपास वन संरक्षण अधिनियम के अस्तित्व में आने के बाद वनों पर इनके परंपरागत अधिकार खत्म कर दिए गए।
उसके बाद से यह गांव संरक्षित गांवों से घिरकर ही रह गए। पिछले 90 साल से आबाद इन गांवों में आज कोई चौथी तो कोई 5वीं पीढ़ी का निवासी है। रामपुर टोंगिया में ही जन्मे 70 वर्षीय हरिराम पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हुए कहते हैं कि खेती के लिए हल की लकड़ी से लेकर जरूरत की हर चीज अंग्रेज हमारे पूर्वजों को मुहैया कराते थे। रामगड़ नदी पर ही हमारा घराट (पानी से चलने वाली अनाज पीसने वाली चक्की) था। वन्यजीवों का आतंक भी नहीं था। जिंदगी खुशहाल थी, लेकिन आज आजाद भारत में जिंदगी की दुश्वारियां बेहद बढ़ गई हैं। वन्यजीवों का आतंक तो हर रोज ही झेलना पड़ता है। अभी भी जंगल से निकलकर हाथी गांव में रोज आकर नुकसान पहुंचा रहा है।
लकड़ी के इस पुल पर थरथराती है जिंदगी
तहसील मुख्यालय से रामपुर टोंगिया जाने के लिए 27 किमी. दूरी तय करने के बाद आपकी गाड़ी आगे सड़क न होने की वजह से जिस पाटकोट गांव में जाकर थम जाती है, वहीं से रामपुर टोंगिया की हद शुरू होती है। यहां से करीब एक किमी. की गहरी खाई में पैदल उतरने के बाद रामगड़ नाम की एक नदी के दर्शन होते हैं। नवम्बर की गुलाबी सर्दियों वाले इस मौसम में नदी अपने मनमोहक रूप में है, लेकिन बरसात में यह अपने रौद्र रूप में आ जाती है।
तीन साल पहले वन विभाग का एक कर्मचारी इस नदी को पार करने के दौरान नदी के बहाव में बह गया था। करीब आठ किलोमीटर दूर उसका शव नदी किनारे एक पत्थर से अटका मिला था। फिलहाल गांव वालों ने नदी के आरपार जाने के लिए लकड़ी के पटले नदी पर रखकर इसे आवाजाही लायक बना रखा है। इन्हीं पटलों से होकर रामपुर टोंगिया जाना पड़ता है। नदी पार करते ही आपका सामना करीब एक किमी. की लंबी खड़ी चढ़ाई से होता है।
उबड़-खाबड़ पथरीले रास्ते पर पहाड़ की चढ़ाई चढ़ने को मैदानी क्षेत्रों में "माउंटेन ट्रेकिंग" जैसा ग्लोरीफाईड नाम दिया गया है, जिन्हें हम ट्रेकिंग कहकर रोमांच से लबरेज होते हैं, इन रास्तों पर पहाड़ की यह महिलाएं रोजाना सिर पर 50 किलो वजन रखकर गुजरती हैं। बरसात में इन पहाड़ों के फिसलन भरे रास्ते पर चलते हुए फिसल जाने का अर्थ हम जानते ही हैं। यह महिलाएं हर बरसात में इसे झेलने को अभिशप्त हैं। हांफती टूटती सांसों के साथ यह चढ़ाई जब खत्म होती है, तब दूर-दूर तक फैला एक विशाल मैदानी क्षेत्र जिसके बीच बीच में लोगों के कच्चे घर (बिना लिंटर के) बने हैं, नमूदार होता है। इसे ही रामपुर टोंगिया कहा जाता है।
गांव का प्रवेशद्वार
रामपुर टोंगिया गांव में प्रवेश करते ही आपको एक मंदिर, ट्रांसफार्मर रखा बिजली का खंभा और जूनियर हाईस्कूल दिखता है। मंदिर गांव के लोगों के विश्वास का प्रतीक, स्कूल बच्चों की जरूरत तो बिजली का लगा यह खंभा एक छलावा है। बिजली का खंभा ग्रामीणों के लिए छलावा कैसे है, यह जानने के लिए गांव में आगे चलना पड़ेगा।
भारत की आत्मा से परिचय कराता गांव
रामपुर टोंगिया गांव पहुंचने के लिए भले ही आपको दुश्वारियों का सामना करना पड़ा हो, लेकिन गांव में प्रवेश करते ही मिट्टी की सौंधी सुगंध के बीच विचरते गाय-भैंस-बकरी-मुर्गी जैसे पालतू जानवरों को देखते हैं तो भारत की आत्मा इस गांव में दिखती है। नवम्बर के महीने में जब धान कटाई का सीजन खत्म हो चुका है तो ग्रामीण अब गेहूं के साथ दूसरी फसलों की बुवाई की तैयारियों में जुटे हैं। चारों तरफ घने जंगल से घिरे इस गांव के बारे में जानने के लिए यहां कुछ लोगों से मुलाकात का जो सिलसिला शुरू होता है, वह उनकी कहानियों के बीच खत्म होने का नाम नहीं लेता।
ग्राम प्रधान नहीं चुनते ग्रामीण
गांव के लोगों की कई समस्याएं हैं। पहली समस्या सुनते ही वह बहुत बड़ी दुश्वारी मालूम होती है, लेकिन दूसरी समस्या सुनते ही पहली समस्या छोटी लगने लगती है। समस्याओं के इस अनवरत सिलसिले में मुश्किल होता है यह तय करना कि समाधान में प्राथमिकता किसे दी जाए? बात राजनैतिक हिस्सेदारी से शुरू करें तो गांव वाले हर लोकसभा विधानसभा चुनाव में मताधिकार का प्रयोग तो करते हैं, लेकिन छोटी सरकार मतलब अपने गांव का प्रधान नहीं चुन पाते।
बता दें कि उत्तराखंड में वन भूमि पर जितनी भी आबादी बसी है, चाहे वह वन गांव हो या खत्ते की या फिर टोंगिया गांव की, उसे अपने पंचायत प्रतिनिधि चुनने का कोई अधिकार नहीं है। यह लोग लोकसभा और विधानसभाओं में तो वोटर होते हैं, लेकिन पंचायत चुनावों में महज एक दर्शक। इन गांवों में रहने वाले लोग अपने बीच से किसी एक व्यक्ति को अपनी आवाज आगे पहुंचाने के लिए मनोनीत कर लेते हैं, जिसे यह मनोनीत ग्राम प्रधान कहते हैं, लेकिन इस मनोनीत ग्राम प्रधान के पास कोई अधिकार नहीं होता है। न वह किसी दस्तावेज को सत्यापित कर सकता है, न ही गांव में कोई योजना लागू करवा सकता है।
ग्राम प्रधान ग्रामीणों का केवल ऐसा प्रतिनिधि होता है, जो उनकी बाद को आगे किसी उचित फोरम में तथ्यपूर्ण ढंग से रख भर देता है। वैसे रामपुर टोंगिया गांव को पहले साल 1952 में पाटकोट ग्राम सभा का हिस्सा बनाया गया था, लेकिन साल 1995 से नामालूम वजहों से रामपुर टोंगिया पाटकोट ग्राम सभा का हिस्सा नहीं है। ऐसी सूरत में जब गांव का प्रधान और पंचायत प्रतिनिधि ही नहीं है तो पंचायती राज के तहत मिलने वाली सुविधाओं की तो बात करना भी बेमानी होगी। गांव के लोगों के जन्म मृत्यु, स्थायी, जाति, आय आदि प्रमाणपत्र तहसील मुख्यालय से इसलिए नहीं बनते कि इनके गांव को राजस्व गांव का दर्जा नहीं मिला है। ले-देकर इनके लिए वन विभाग का रेंजर ही माई-बाप है, जो पहले इनके यह प्रमाण पत्र बना देता था, लेकिन अब वह भी जमीन के कागज मांगते हैं।
ग्रामीण हरिराम बताते हैं कि वन विभाग जमीन की खसरा खतौनी मांगता है, जो उनके पास नहीं है। वन विभाग अपने ही दिए भूमि के पट्टों को कोई अहमियत नहीं देता।
स्वास्थ्य सुविधा 32 किमी. दूर रामनगर में
125 परिवारों की आबादी वाले इस गांव में कोई प्राथमिक चिकित्सा केंद्र नहीं है। यह कहते हुए उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी से जुड़े युवा प्रमोद कुमार का दर्द इन शब्दों में झलकता है "निकटतम प्राथमिक चिकित्सा केंद्र छः किमी. दूर दुर्गम रास्ता पार करने के बाद पाटकोट है, इसके बाद बारह किमी. दूर कोटाबाग या फिर बत्तीस किमी. की दूरी पर रामनगर का अस्पताल। गर्भवती महिलाओं या बुजुर्गों को तबियत खराब होने की स्थिति में उन्हें पीठ में या कंडी में बैठाकर पाटकोट पहुंचाना पड़ता है। यहां भी अमूमन चिकित्सक न होने के कारण कोई राहत नहीं मिलती है। इसलिए अब तो गांव वाले यहां जाकर समय बरबाद करने की अपेक्षा सीधे रामनगर की ही रह पकड़ते हैं। वहां भी इलाज मिला तो मिला, अन्यथा निजी चिकित्सालयों में धक्के खाना उनकी नियति है।"
रिश्ते-नाते की दिक्कत
गांव की एक महिला भारती देवी कहती है, 'सड़क, बिजली, पानी, स्वास्थ्य, राशन जैसी जरूरतों के बिना उन्होंने अपनी जिंदगी तो काट ली है, लेकिन अब उन्हें अपने बच्चों की चिंता है। बच्चे बड़े हो गए हैं, लेकिन उनकी शादी विवाह इन्हीं परेशानियों के चलते नहीं हो पा रही हैं। रिश्ते नाते की बात करने कोई आते भी हैं तो एक बार गांव में आने के बाद वह दुबारा नहीं आते। उनका नकारात्मक जवाब ही आता है।
गांव की एक और महिला तारा देवी का कहना है कि गांव में स्कूल तो है, लेकिन अध्यापक पूरे न होने के कारण बच्चों की पढ़ाई हमेशा बाधित रहती है। सर्दियों में पीने के पानी की दिक्कत नहीं है, लेकिन बरसात और गर्मियों में पीने का पानी जुटाना भी यहां एक बड़ी समस्या है। गांव में सरकारी सस्ते गल्ले के राशन की भी कोई दुकान नहीं है। वजह, गांव में गल्ला पहुंचाने का अर्थ उसके भाड़े का बोझ वहन कौन करेगा? लिहाजा अपने हिस्से के सस्ते गल्ले के लिए चार किलोमीटर दूर की डगर नापना मजबूरी है।
बिजली के खंभों का छलावा
गांव में प्रवेश करते ही ट्रांसफार्मर युक्त जिस बिजली के खंभे को देखते समय गांव में बिजली प्रॉपर होने का भ्रम बनता है, वह इस गांव की चौथी पीढ़ी के महेश चंद्र से मिलते ही भरभराकर टूटता है। वर्तमान हालात के जीवन की तुलना 15वीं शताब्दी से करते हुए महेश के पास जितना कुछ बताने को है, उससे कहीं ज्यादा उन दस्तावेजों का पुलिंदा दिखाने को है, जिन्हें वह तहसीलदार से लेकर भारत के प्रधानमंत्री तक की चौखट पर पहुंचा चुके हैं। यहां पर ही बिजली के खंभों का सच उजागर करते हुए गांव के एक युवा दीपक ने बताया कि लंबी मांग के बाद भारतीय जनता पार्टी के शासन में साल 2006 में उनके गांव में यह बिजली के खंभे लगे थे।
बाद में वन विभाग ने बिजली की लाइन डालने के दौरान अपने जंगल के पेड़ कटने का बहाना बनाकर इस योजना पर ब्रेक लगा दिया है। तब से आज तक सोलह साल हो गए हैं वन विभाग से गुहार लगाते लगाते, लेकिन नतीजा आज भी शून्य ही है। महेश चंद्र वन विभाग की ऐसी ही एक और दास्तान का जिक्र करते हुए कहते हैं कि इसी तरह रामपुर टोंगिया मोटर मार्ग भी साल 2011 से स्वीकृत हुआ पड़ा है। इस सड़क के सर्वे और प्रारंभिक चरण के काम के लिए लोक निर्माण विभाग को पहली किश्त भी मिल चुकी है, लेकिन वन विभाग की आपत्ति इतनी कठोर है कि सड़क आज भी गांव वालों को नसीब नहीं हो पाई।
एक दिलचस्प किस्सा महेश और बताते हैं। वह यह है कि साल 2022 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले भारतीय जनता पार्टी की पिछली सरकार के कार्यकाल में गांव वालों को सौभाग्य योजना के तहत सोलर लाइट्स मुहैया कराई गई थी। जिनसे उनके भी घर कुछ दिन के लिए रोशन हुए। लेकिन अब इन लाइट्स की बैट्रियां तक ब्लास्ट हो चुकी हैं। चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी की प्रदेश में दुबारा सरकार बनने के बाद अब कोई यह भी नहीं बता रहा कि बैट्रियां कहां से और कैसे मिलेंगी ?
इण्टर की तालीम गांव के बाहर होती है हासिल
रामपुर टोंगिया गांव की ही एक बुजुर्ग महिला बताती हैं, 'गांव में जूनियर हाईस्कूल तक की शिक्षा का ही आधा अधूरा इंतजाम है। आगे की शिक्षा के लिए नजदीकी इंटर कॉलेज पाटकोट में ही है। बरसात के दिनों में उफनायी रामगड़ नदी बच्चों के लिए खतरा बनी रहती है। पूरा इलाका खूंखार वन्यजीवों के आतंक से ग्रस्त है। गांव के बच्चों के लिए पढ़ाई करना भी मौत से खेलने के बराबर है।'
दो साल पहले भी छले जा चुके हैं टोंगिया गांव के लोग
उत्तराखंड में बसे यह टोंगिया गांव वक्त बेवक्त छले जाने को मजबूर हैं। अभी आखिरी बार इनके साथ बड़ा छलावा भारतीय जनता पार्टी की पिछली त्रिवेंद्र सरकार के कार्यकाल में होकर निबटा है। तब प्रदेश सरकार ने उत्तराखंड के टोंगिया गांवों को राजस्व ग्राम घोषित करने की मंशा बनाई थी। तब कहा गया था कि ऐसा होने से प्रदेश के टोंगिया गांवों की करीब पचास हजार आबादी को राशनकार्ड से लेकर अन्य नागरिक सुविधाएं हासिल हो सकेंगी।
बताया जाता है कि साल 2020 में अगस्त महीने के आखिर में तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के निर्देश पर इसके लिए काम भी शुरू हो गया था। सरकार के इस रुख से प्रदेेश के हरिद्वार, देहरादून, ऋषिकेश, चंपावत, खटीमा, रामनगर, नैनीताल आदि इलाकों में बसी इन गांवों की करीब पचास हजार की आबादी के चेहरे पर क्षणिक मुस्कान दिखी थी, क्योंकि इससे कुछ समय पहले ही उत्तर प्रदेश सरकार ने भी सहारनपुर, गाजियाबाद आदि क्षेत्रों के टोंगिया गांवों को वन संरक्षण अधिनियम के तहत राजस्व गांव का दर्जा दिया था, जिसके चलते उत्तराखंड के लोगों की भी उम्मीदें परवान हो रही थीं।
कहा यह भी गया था उस समय कि टिहरी बांध विस्थापितों के कई गांवों को राजस्व ग्राम का दर्जा दिया है। इसी तरह से अब प्रदेश के टोंगिया गांवों को भी राजस्व ग्राम का दर्जा दिया जायेगा, जिससे करीब 50 हजार लोगों को राजस्व गांवों के समान राशनकार्ड, बिजली, पानी, शौचालय, स्वास्थ्य सुविधाएं, शिक्षा सहित सरकारी कल्याणकारी योजनाओं की नागरिक सुविधाएं मिल पाएंगी। लेकिन इधर तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की मुख्यमंत्री पद से विदाई हुई, उधर उनकी इस योजना भी नेपथ्य में चली गई। आज कोई नहीं जानता कि तत्कालीन सीएम की इस मंशा का हश्र क्या हुआ?
अब जोर दिखा रहे हैं ग्रामीण
रामपुर टोंगिया गांव में काला पानी जैसी स्थितियों में जीने वाले ग्रामीण भले ही लंबे समय से अपनी जरूरतों के लिए संघर्षरत रहे हों, लेकिन वह सरकार से नाउम्मीद नहीं हैं। अभी कुछ ही दिन पहले वह प्रशासन के सामने एक बार फिर गुहार लगाकर हटे हैं। स्थानीय एसडीएम गौरव चटवाल से मिलकर ग्रामीणों ने उन्हें अपनी मांगों से संबंधित जो ज्ञापन दिया है, उसमें उन्होंने कहा है कि रामपुर टोंगिया गांव को सन 1932 में ब्रिटिश सरकार द्वारा वनीकरण के लिए बसाया गया था, जिसमें अधिकांशतः लोग अनुसूचित समाज के हैं।
आजादी के बाद वन विभाग ने गांव वालों को खेती एवं बागवानी के लिए पट्टे पर भूमि आवंटित की गयी थी। इन पट्टे की शर्तों के अनुसार गांव वालों को मकान, ट्यूबवेल, दीवार, बैंक से ऋण की सुविधा आदि सभी सुविधाएं उपलब्ध कराने की बात कही गई थी। साल 1952 से लेकर 1995 तक रामपुर टोंगिया गांव को पाटकोट ग्राम पंचायत में सम्मिलित किया गया था जिससे गांव को शासन से संचालित सभी योजनाओं का लाभ मिलता था, लेकिन इसके बाद गांव को इस सुविधा से वंचित होना पड़ा है।
वर्तमान में वन विभाग ग्रामवासियों को दिए गए पट्टे में उल्लिखित मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने में रुकावट डाल रहा है। ग्रामीणों ने बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य, माध्यमिक शिक्षा, शौचालय आदि उपलब्ध कराने की गुजारिश करते हुए जंगली जानवरों से ग्रामीणों की फसलों की सुरक्षा, पाटकोट- रामपुर-कोटाबाग मार्ग का निर्माण करने, सार्वजनिक वितरण प्रणाली राशन दुकान गांव में ही उपलब्ध कराने की मांग भी की है।
सड़क से लेकर कोर्ट तक लड़ी जाएगी ग्रामीणों की लड़ाई
वर्तमान में रामपुर टोंगिया गांव के लोगों के हितों की लड़ाई को धार दे रहे उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के महासचिव प्रभात ध्यानी कहते हैं, 'वन विभाग अपनी उन्हीं बातों को आज नहीं मान रहा है, जो उसने इन जमीनों का पट्टा ग्रामीणों को देते समय तय की थीं। सारी बातों का पट्टों में उल्लेख होने के कारण उन्होंने प्रशासन से ग्रामीणों के साथ इंसाफ किए जाने की गुहार लगाई है। फिलहाल प्रशासन का रुख सकारात्मक दिख रहा है, लेकिन प्रशासन इसमें हीलाहवाली करेगा तो ग्रामीणों को इंसाफ दिलाए जाने के लिए वह सड़क से लेकर कोर्ट तक में अपनी लड़ाई को ले जाने को मजबूर होंगे।