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Ujjwala Yojana Ground Reality: उपले-भूसी के धुंए में निकल रहे आंसू, महिलाओं का दर्द- सिलेंडर भराएं या दाल-रोटी खाएं?
Ujjwala Yojana Ground Reality: उपले-भूसी के धुंए में निकल रहे आंसू, महिलाओं का दर्द- सिलेंडर भराएं या दाल-रोटी खाएं?
वाराणसी से उपेंद्र प्रताप की रिपोर्ट
Ujjwala Yojana Ground Reality: केन्द्र की मोदी सरकार अपनी जिन कल्याणकारी योजनाओं को बतौर अपनी उपलब्धि पेश कर रही है, उनमें उज्जवला योजना का भी नाम शुमार है। सरकार का दावा है कि उज्ज्वला के तहत अब तक 09 करोड़ से ज्यादा एलपीजी कनेक्शन वितरित किए जा चुके हैं। लेकिन, हैरानी की बात यह है कि जहां सरकार नौ करोड़ से अधिक एलपीजी कनेक्शन बांटने की बात कर रही है, वहीं दूसरी तरफ सुजाबाद में केंद्र सरकार की फ्लैगशिप उज्ज्वला योजना की लौ लगभग बुझ चुकी है। इनकी जगह सैकड़ों उज्ज्वला लाभार्थी महिलाएं रोजाना उपले, भूसी और लकड़ी से मिट्टी के चूल्हे पर खाना पकने को विवश हैं। लिहाजा, उज्ज्वला सुविधा का नियमित लाभ उठाने से महरूम कई महिलाओं को धुआं, धुंध, राख और ताप से अनेक बीमारी भी लग रही है।
सुबह की शुरुआत मिट्टी के चूल्हे पर भूसी, गोबर के उपले और लकड़ी से परिवार के लिए भोजन पकाने के साथ होती है। जो देर शाम व रात में मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाने से इनके घरों में धुआं तो भरता ही है, साथ आसपास भी कुछ समय के लिए धुआं-धुआं हो जाता है। इस धुएं में लोगों को सांस लेने में भी कठिनाई होती है। चूल्हे से निकलने वाले धुंए और हानिकारक गैसों से कई महिलाएं के स्वास्थ्य को खतरा पैदा हो रहा है। सुजाबाद की गरीब महिलाएं सिलेंडर भरवाने के लिए लाख जतन करने के बाद भी 1150 रुपए की व्यवस्था नहीं कर पा रही हैं। गोया कि सातवें आसमान पर पहुंची महंगाई से अब इनके जीवन स्तर में भी गिरावट आने लगी है।
उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में पूरब दिशा में जीवनदायिनी गंगा के तट से लगा बसा है सुजाबाद। यह गंगा की बीच धार से और पूरब में आधा किलोमीटर दूर थोड़ी ऊंची मिट्टी के टीले पर बसा है। इस बस्ती के पश्चिम तीरे यानी गंगा की ओर मोटे-मोटे नीम और पीपल स्वस्थ्य पेड़ हैं। नीम के पेड़ की छांव में नाविक एक विशालकाय नाव बनाने में जुटा हुआ था। आधे में पक्के मकान और आधे में छप्पर-टीनशेड के घर बने हुए हैं। ज्यादातर महिलाएं अपने घरेलू काम में जुटी हुई मिली और उनके घर के मर्द काम पर गए हुए हैं, ऐसा पता चला। कुछ नवयुवक और प्रौढ़ जहां-तहां पेड़ की मीठी छांव में ताश खेलने में जुटे हुए थे। उमस से परेशान बुजुर्ग अपने घरों के चौकठ के पास हवा खाते और गलियों में चार-छह की संख्या में बतियाने में मगन थे। डोमरी को मिलाकर करीब 45 हजार आबादी रहती है सुजाबाद में। नरेंद्र मोदी के बनारस के सांसद बनने के बाद दूसरे कार्यकाल में इसे नगर पंचायत में शामिल कर लिया गया है। बनारस शहर से बेहद नजदीक बसे इस इलाके पर बिल्डरों व कालोनाइजरों की गिद्ध नजर गड़ी है। बहुत तेजी से इलाके में अवैध कालोनियों का विस्तार हो रहा है। ऐसा नहीं है कि इस स्थिति से वीडीए के अधिकारी-कर्मचारी वाकिफ नहीं हैैं।
भूसी और गोबर के उपले
सुजाबाद की गंगा देवी को साल 2022 में उज्ज्वला योजना का लाभ मिला था। सात महीने गुजर गए गंगा अब तक सिर्फ एक बार सिलेंडर ही भरवा सकीं हैं। वह 'जनज्वार' को बताती है कि 'इसी साल नए महीने यानी जनवरी में में उज्ज्वला योजना लाभ मिला था। सरकार द्वारा मिला सिलेंडर से दो महीने तक परिवार के लिए खाना पकाया जाता रहा। फिर उसे ख़त्म हो जाने पर 11 सौ रुपए देकर भरवाए थे। अब एलपीजी गैस सिलेंडर में से गैस ख़त्म हो चुकी है। उसे भरवाने के लिए 1150 रुपए हमारे पास नहीं हैं, कहां से भरवाएं ? हमलोगों की उतनी कमाई नहीं है। लकड़ी, भूसी और गोबर के उपले (गोहारी) पर खाना पकाते हैं। पड़ोस के अहिरान से गोबर लाती हूं, वे इसके पैसे नहीं लेते हैं। गर्मी के दिनों में इन गोबर को पाथ कर गोहरी (उपले) तैयार की हूं। अब बारिश गुजर जाएगी तो जाड़े के दिनों में फिर उपले बनाउंगी। मैं पतलो की चटाई बुनती हूं, दिनभर का 30 से 40 रुपए कमा पाती हूं। जिसमें मेरा गुजरा होता है।'
महिला स्वास्थ्य को बढ़ता खतरा
साइंटिस्टों का मानना है कि एक गरीब महिला जब लकड़ी, उपले और भूसी से मिट्टी के चूल्हे पर खाना पकाती है, तो एक दिन में उसके शरीर में 400 सिगरेट के बराबर धुआं चला जाता है। आंखों में जलन, सिर में दर्द, दमा, श्वास संबंधी बीमारियां आम होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और इंडियन चेस्ट सोसाइटी फाउंडेशन के आंकड़ों के अनुसार, 5 लाख मौतें सालाना लकड़ी, उपले-भूसी ईंधन वाले रसोई से होती थी। उज्ज्वला योजना की लाभार्थी सहदेई को रोजाना गोहरी-भूसी के चूल्हे पर खाना पकाना पड़ता है, जबकि उन्हें डॉक्टर ने गर्म और धुएं से भरे वातावरण में जाने से मना किया है। साथ ही उन्हें धूप बर्दाश्त नहीं होती है, उनके बदन में हमेशा जलन बनी रहती है। सहदेई ने बताया कि 'करीब चार साल पहले उज्ज्वला योजना का लाभ मिला था. तब से मैं खाना गैस यानी योजना के सिलेंडर पर ही पकाती थी। इधर, करीब आठ-दस महीनों से नहीं नहीं बना रही हूं। छप्पर का मकान है। सिलेंडर भराने के लिए पैसे की व्यवस्था करूं या खाना-किराने का इंतजाम करूं ? गोहरी पाथ कर ईंधन की तैयार करती हूं। रुपए के अभाव में इलाज नहीं करवा हूं। हमलोगों की कोई सुनने वाला है जिन्दा ?'
दस रुपए के उपले पर दोनों वक्त की रोटी !
कमरतोड़ महंगाई से तंग झगड़ू सोनकर की पत्नी सोनी को भी उज्ज्वला योजना का लाभ मिला है। झगड़ू बताते हैं कि ' मेरी पत्नी को जब उज्ज्वला सिलेंडर मिला तब गैस का दाम 700-750 रुपए थे, जब गैस ख़त्म होती तब सिलेंडर भरवाते भी थे, अब 1150 रुपए हो गए हैं। मैं घर में कमाने वाला एकमात्र सदस्य हूं। ठेले पर दिनभर सब्जी बेचने बाद शाम तक दो सौ से ढाई सौ रुपए कमा लेता हूं। इसी में जैसे-तैसे गुजरा हो रहा है।'
झगड़ू की पत्नी सोनी बीच में बोल पड़ती हैं कि 'पैसे के अभाव में सिलेंडर नहीं भरवा पा रही हूं। बगल में से गोहरी (उपले) खरीदकर लाती हूं। दस रुपए की गोहारी पर दोनों वक्त का खाना बन जाता है। गरीबी में फिलहाल सिलेंडर से सस्ता ही गोहरी मिल रही है, गोहारी पर ही गुजरा हो रहा है। इसी बीच रिश्तेदारी में विवाह पड़ा था, उन लोगों को सिलेंडर की जरूरत थी। मेरे यहां सिलेंडर बेकार ही पड़ा था तो रिश्तेदारी में दे दिया। सिर्फ चूल्हा मेरे घर में है।' बेशक सोनी को गोहारी पर खाना पकाना सिलेंडर से सस्ता लगता है, लेकिन मिट्टी के चूल्हे से निकलने वाला धुआं स्वास्थ्य पर कितना बुरा असर डालता है, शायद उनको इसके बारे में जानकारी ही नहीं है?
तब से खाली पड़ी है टंकी
आरटीआई एक्टिविस्ट चंद्रशेखर गौड़ को आरटीआई में मिली जानकारी के अनुसार मार्च 2021 तक आइओसीएल ने जितने कनेक्शन दिए, उनमें से 65 लाख लोगों ने पिछले वित्त वर्ष में सिलेंडर नहीं भरवाया। इसी तरह एचपीसीएल के 9.1 लाख तथा बीपीसीएल के 16 लाख लाभार्थियों ने एक बार भी सिलेंडर नहीं भरवाया। चौंकाने वाली बात तो यह है कि बीपीसीएल ने साथ में यह भी बताया था कि यह आंकड़ा सिर्फ उन उज्ज्वला योजना कनेक्शन उसका है, जो सितंबर 2019 तक जारी किए गए थे। जिन लोगों ने पूरे साल में सिर्फ एक बार सिलेंडर भरवाया, उनमें बीपीसीएल के 28.56 लाख लाभार्थी, आईओसीएल के 52 लाख लाभार्थी तथा एचपीसीएल के 27.58 लाभार्थी शामिल थे। इधर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के रोहनिया विधानसभा में स्थित पिलखुरी (करौता ) में बस्ती की ज्योति को भी उज्ज्वला योजना कई वर्ष पहले मिल चुका है।
ज्योति ने बताया कि 'मेरे पति जैसे-तैसे एक दिन में 150 रुपए कमा लेते हैं। यहां सिर्फ हमें ही सिलेंडर मिला है, लेकिन 11 सौ रुपए कहां से ले आएंगे, गैस भरवाने के लिए ? इसलिए कई सालों से घर में सिलेंडर खाली पड़ा हुआ है। मैं रोजाना दोनों टाइम खाना लकड़ी के चूल्हे पर पकती हूं। मेरे बच्चों को कुपोषण की भी दिक्कत है। ये हमारा छप्परनुमा घर है। गर्मी और जाड़ा बीत गया, लेकिन बारिश कैसे गुजरेगी मुझे नहीं सूझ रहा है।' रानी देवी भी उज्ज्वला योजना की लाभार्थी हैं। ये मिट्टी और छप्पर के मकान में अपने परिजनों के साथ रहती। सिलेंडर की बढ़ती कीमतों से परेशान हैं। बड़ी मशक्कत कर सिलेंडर भरवाने के लिए रुपयों का इंतजाम हो पाता है।
सुविधा के नाम पर..
जागरूकता के आभाव में उज्ज्वला योजना की लाभार्थी बस्ती की संगीता सिलेंडर नहीं भरवा पाती हैं। उनका कहना है कि उन्होंने पहले कई बार सिलेंडर भरवाया था और अब आग लगाने की घटना से सिलेंडर पर खाना नहीं बनाती है, इसलिए कि गैस से आग लग जाएगी। जबकि, घास-फूस की झोपड़ी में पड़ा हुआ सिलेंडर धूल फांक रहा था। संगीता बताती हैं कि "हमारी झोपड़ी (मड़ई) में सिलेंडर से आग न लग जाए, इसलिए गैस पर खाना नहीं पकाती हूं। हालांकि पहले कई बार सिलेंडर भरवा कर खाना पकाती हुई आई हूं। यही झोपड़ी पट्टी है, इसी में रहती हूं। एक अदद पक्के मकान की कमी है।' 'सुजाबाद में मल्लाह बस्ती की जीरा देवी करीब साल से सिलेंडर नहीं भराया है। महंगाई की वजह से दोनों वक्त मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाना पड़ता है।'
कंधे तक ऊंचाई वाले दीवारों के सहारे छप्पर पर काली बरसाती प्लास्टिक डली है। बातचीत में पता चला कि यह सोनी का घर है। बतौर सोनी 'रोजाना मैं दोनों टाइम का खाना उज्ज्वला सिलेंडर पर पकती हूं। एक सिलेंडर एक महीना चलता है। बड़ी मुश्किल से रुपए की व्यवस्था करके सिलेंडर भरवाती हूं। सुविधा के नाम पर सिर्फ सिलेंडर और शौचालय मिला हुआ है। इतनी महंगाई है में घर चलाएं, घर बनवाएं, बच्चों का पढ़ाएं या फिर सिलेंडर ही भरवाती रहूं ?'
जीएसटी के दायरे में लाने की मांग
वाराणसी के सामाजिक कार्यकर्ता वैभव कुमार त्रिपाठी जनज्वार से कहते हैं कि 'गरीब महिलाओं की आंखों में धुआं न जाए, ये सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी द्वारा कही जाने वाली बात थी। इस बात से उन्होंने अपने कॉर्पोरेट एजेंडे को सेट किया और सबको कनेक्शन दिलवा दिया। फिर पीछे से एलपीजी गैस के दाम धीरे-धीरे लगातार बढ़ने लगे और देखते-देखते दो गुना हो गए। जब योजना का आगाज हुआ था तब एलपीजी सिलेंडर के दाम लगभग 5 से 6 सौ रुपए था, आज की डेट में सिलेंडर का दाम 1150 रुपए है। ये दिखाते कुछ हैं और डिलीवर कुछ और की करते हैं। पीएम मोदी ने रिलायंस जिओ का प्रचार किया था, अब जिओ ने महीना 28 से 24 दिन का करके 500 से 600 रुपए का टैरिफ लगा दिया है।'
'कांग्रेस की सरकार में एक रसोईं गैस सिलेंडर 350-400 रुपए में मिलता था। आज भाजपा सरकार में सिलेंडर के दाम 1150 रुपए हो गए है। यह सरकार सिर्फ आम पब्लिक का दोहन करना जानती है। देश-शहर में बढ़ती महंगाई के लिए पूर्ण रूप से एक तरफा केंद्र सरकार जिम्मेदार है। निदान यही है कि सरकार को जीएसटी के दायरे में पेट्रोलियम को लाना चाहिए। साथ ही तत्काल प्रभाव से एलपीजी गैस के सब्सिडी को भी जारी कर देना चाहिए। फौरी तौर पर रसोईं गैस और पेट्रोलियम को जीएसटी के दायरे में लाकर कीमतों को कम किया जाए, ताकि गरीबों की दुश्वारियां कुछ कम हो सके।'
क्या उज्ज्वला योजना के मूल्यांकन का सही वक्त चुका हैं ?
1 मई साल 2016 को पीएम नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के बलिया जिले से उज्ज्वला योजना की शुरुआत की थी। तब मार्च 2020 तक इस योजना के तहत आठ करोड़ कनेक्शन देने का टारगेट सेट किया गया था। अब उज्ज्वला योजना का दूसरा चरण भी लांच किया जा चुका है। आंकड़ों के अनुसार अभी तक देश भर में उज्ज्वला योजना के तहत 9 करोड़ से ज्यादा एलपीजी कनेक्शन दिए जा चुके हैं। दूसरे चरण में एक करोड़ और लाभार्थियों को जोड़ने का टारगेट है। मसलन, बेहतर होता कि सरकार अति गरीब और समाज के अंतिम तबके तक पहुंची योजना के सतत इस्तेमाल के बारे में भी नए सिरे से विचार करे, ताकि योजना का लाभ देकर सिर्फ आंकड़ें न दर्ज किए जाए बल्कि जमीन पर लाभार्थियों का निरंतर लाभ व इस्तेमाल भी होता रहे।