भारत को छोड़कर दुनिया की सभी आर्थिक ताकतों में आईक्यू का स्तर 105 अंकों से अधिक, समाज और राजनीति में 82 IQ का असर साफ आ रहा नजर
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महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
The world is getting less intelligent. हाल में ही अमेरिका के नार्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिकों और समाजवैज्ञानिकों ने एक अध्ययन प्रसिद्ध जर्नल “इंटेलिजेंस” में प्रकाशित किया है। इसके अनुसार अमेरिका में लोगों का आईक्यू कम हो रहा है। आईक्यू को इंटेलिजेंस क्योशेंट के नाम से जाना जाता है और यह मनुष्य की बौद्धिक क्षमता को मापने का पैमाना है। आईक्यू मापने का व्यापक चलन वर्ष 1932 से शुरू हुआ था, और वैश्विक स्तर पर 1932 से लेकर पूरी बीसवीं शताब्दी तक अमेरिका समेत लगभग पूरे विश्व में आबादी के आईक्यू में प्रति दशक 3 से 5 अंकों की बृद्धि आंकी गयी, दूसरे शब्दों में पूरी बीसवीं शताब्दी के दौरान लोग पहले से अधिक बुद्धिमान होते चले गए। इस प्रभाव को फ्लिन इफ़ेक्ट, या फ्लिन प्रभाव के नाम से जाना जाता है।
पर नए अध्ययन के अनुसार अब अमेरिका में “रिवर्स फ्लिन इफ़ेक्ट” या फिर विपरीत फ्लिन प्रभाव का दौर आ गया है। लगभग 4 लाख लोगों पर वर्ष 2006 से 2018 के बीच किये गए परीक्षणों के आधार पर इस अध्ययन को “सिंथेटिक अपर्चर पर्सनालिटी असेसमेंट प्रोजेक्ट” के आधार पर किया गया है। इसके तहत मनुष्य के व्यक्तित्व से जुड़े 27 परीक्षणों के साथ ही बौद्धिक क्षमता का परीक्षण किया जाता है। इस अध्ययन का निष्कर्ष यह है कि अमेरिका में आबादी के भाषा, तार्किक, दृश्य, शब्दों और गणित से सम्बंधित आईक्यू अंकों में कमी आ रही है, पर स्थान से सम्बंधित 3डी रोटेशन से सम्बंधित आईक्यू में बृद्धि हो रही है। आईक्यू का समग्रता से आकलन करने पर स्पष्ट है कि अमेरिका के निवासियों का आईक्यू कम होता जा रहा है, जाहिर है अमेरिका में लोगों की बौद्धिक क्षमता में कमी आ रही है। हालां कि अनुसंधानकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि इस अध्ययन के निष्कर्ष से यह नहीं समझा जाना चाहिए कि आम अमेरिकी पहले से कम बुद्धिमान रह गया है – पर बौद्धिक क्षमता में कमी का मतलब तार्किक शक्ति में कमी तो अवश्य ही है।
इससे पहले वर्ष 2019 में एनबीसी न्यूज़ में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार वैश्विक स्तर पर आर्थिक तौर पर ताकतवर देशों में इक्कीसवीं शताब्दी के आरम्भ से ही आईक्यू में गिरावट दर्ज की जा रही है। इस समाचार में अमेरिका का नाम नहीं था, पर यह बताया गया था कि जब दूसरे देशों में ऐसा हो रहा है तब अमेरिका में भी जरूर आईक्यू कम हो रहा होगा या फिर निकट भविष्य में कम होने लगेगा। इस समाचार में अलग-अलग अध्ययनों के आधार पर स्वीडन, नॉर्वे, डेनमार्क, ग्रीनलैंड, आइसलैंड, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया में आईक्यू में गिरावट बताई गयी थी। आईक्यू में गिरावट पर चिंता तो व्यक्त की गयी थी, इसे मानवजाति के लिए खतरा बताया गया था, पर, इस गिरावट का स्पष्ट कारण नहीं बताया गया था।
इसके सामाजिक और पर्यावरणीय कारण बताये गए। वायु प्रदूषण को गिरते आईक्यू से जोड़ा गया। पर, पूंजीवाद समाज में हरेक समस्या को गरीबों से जोड़ा जाता है, जबकि वैश्विक गरीबी पूंजीवाद की ही देन है। सबसे चर्चित कारण बताया गया कि दुनिया में गरीबों की संख्या बढ़ती जा रही है और गरीबों के बच्चों का आईक्यू कम होता है। हालां कि इसमें कोई वैज्ञानिक तथ्य नहीं है। इसी बीच नोर्वे में समाज के हरेक तबके और आयु वर्ग के लोगों के आईक्यू का अध्ययन किया गया। इसके अनुसार आईक्यू का सम्बन्ध आर्थिक स्तर, शिक्षा और सामाजिक स्तर पर निर्भर नहीं करता है। आएक्यू का अनुवांशिकी से भी सम्बन्ध नहीं है। बेहतर आईक्यू वाले अभिभावकों के बच्चों का आईक्यू निकृष्ट हो सकता है और निकृष्ट आईक्यू वाले अभिभावकों के बच्चों का आईक्यू बेहतर भी देखा गया है।
इन अध्ययनों के निष्कर्ष केवल अमेरिका या यूरोप के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए महत्वपूर्ण हैं। दुनिया में आईक्यू का औसत 100 अंक है, पर भारत और कुछ अफ्रीकी देशों में यह न्यूनतम है। भारत में औसत आईक्यू का स्तर 82 अंक है। 0 से 79 अंकों तक इसे निकृष्ट, 80 से 119 अंक तक सामान्य और 120 या इससे अधिक अंकों वाले आईक्यू को बेहतर माना जाता है। भारत छोड़कर दुनिया की सभी आर्थिक ताकतों में आईक्यू का स्तर 105 अंकों से अधिक है। जाहिर है, हम बौद्धिक स्तर पर पिछड़े देशों में हैं, और इसका प्रभाव आज के दौर में समाज और राजनीति पर स्पष्ट हो रहा है।