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आल वेदर रोड की त्रासदी को भुगत रहे हैं 99 फीसदी हिंदू, मोदी की विकासवादी सरकार के निर्णयों की सजा मिल रही मानवता को
जोशीमठ में घरों के अंदर का यह हाल आम हो चुका है
अजय प्रकाश का विश्लेषण
Joshimath Sinking : मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद यह स्वीकार करने में किसी को कोई हर्ज नहीं है कि भारत में धार्मिक और जातीय भेद का बोध बढ़ा है। हालांकि धार्मिक विभाजन बहुत तीखा दिख रहा है, इसलिए सभी को स्वीकार है, जबकि जातीय भेद हिंदू समाज की एकता की आड़ में धुंधला है, मगर राजनीतिशास्त्र का व्यावहारिक विद्यार्थी होने के नाते मैं कह सकता हूं कि जो अभी धुंधला है, वह आगे बहुत साफ दिखेगा और धार्मिक विभेद से पनपी नफरत की मानसिकता के मुकाबले यह कई गुना ज्यादा नफरती और सामाजिक टकराहट पैदा करने वाला होगा।
नफरत और नस्ली श्रेष्ठता की बदौलत दुनिया में राज करने वाली सत्ताओं का उदाहरण याद करें तो साफ हो जाएगा कि उनके यहां हर राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक समरसता के फैसले बुनियादी रूप से नस्ल और धर्म के आधार पर लिए जाते रहे हैं, भले ही उससे पूरी मानव जाति ही संकट में क्यों न पड़ जाए, कायनात पर ही कहर क्यों न बरपा होने लगे।
इसके उदाहरण भूतकाल में जाकर पूर्व के शासकों से लेने की बजाए आप सीधे भारत के उत्तरी हिमालयी राज्य उत्तराखंड में बन रहे चारधाम सड़क मार्ग जिसे आलवेदर रोड प्रोजेक्ट के तहत बनाया जा रहा है, से समझ सकते हैं कि कैसे एक धार्मिक तुष्टीकरण के फैसले ने न सिर्फ भारत, बल्कि आसपास के मुल्कों पर भी गहरा पर्यावरणीय संकट ला खड़ा किया है।
आज जोशीमठ जब एकदम मौत के मुहाने पर आ चुका है तब जाकर सरकारें चेती हैं, या कहें कि चेतने का नाटक कर रही हैं। जोशीमठ के हजारों हजार लोगों के आशियाने सरकार के कथित विकास की भेंट चढ़ चुके हैं, सड़क पर आ चुकी जनता रो रही है, सरकार से गुहार लगा रही है। मगर सवाल है किस सरकार से जो इस विनाश की दोषी है।
बारिश के कारण उत्तराखंड में 17, 18 और 19 अक्टूबर के बीच लभगभ 60 लोग बेमौसम बरसात से मची तबाही की भेंट चढ़ चुके थे, मगर तब भी सरकार ने कोई सबक नहीं लिया। यह आंकड़ा सरकारी है, हकीकत में मरने वालों की संख्या कहीं ज्यादा हो सकती है। बेमौसम बरसात से हजारों घर ढह चुके हैं और पशुओं-खेतों-सामानों के नुकसान की भयावहता के वायरल हो रहे वीडियोज को देखकर सिर्फ इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
ऐसा नहीं कि इस सनक भरे फैसले का देश और दुनिया के स्तर पर विशेषज्ञों ने, उत्तराखंड के सजग और सरोकारी लोगों ने विरोध नहीं किया। धरना, प्रदर्शन, बैठकें और पत्रकारिता भी खूब हुई। यहां तक कि बाबाओं और संतों ने कहा कि जब भगवान ही आल वेदर नहीं रहते तो वहां आलवेदर रोड बनाने की क्या जरूरत है। मान्यता के अनुसार केदारनाथ में देवता 6 महीने चिरनिद्रा में होते हैं, पर किसी की एक न सुनी मोदी की विकासवादी सरकार ने और आज हम देख रहे हैं कि मानवता उसकी क्या सजा भुगत रही है।
दूसरी बड़ी बात ये कि आल वेदर रोड की त्रासदी को 99 फीसदी हिंदू ही भुगत रहे हैं, मुसलमान नहीं। हमें ध्यान रखना होगा कि सांप्रदायिक और धार्मिक तुष्टीकरण के स्तंभों पर खड़ी राजनीति सिर्फ मानव समाज के विवेक, मानवीयता, संवेदनशीलता और मेलजोल की भावना का ही विध्वंस नहीं करेगी, न ही दुनिया के देशों से सिर्फ रिश्ते बिगाड़ेगी, बल्कि वह प्रकृति से मानव समाज के रिश्तों को बार-बार तार-तार करेगी, जिसका भुगतान हमारी कई पीढ़ियां भी नहीं कर पाएंगी और मानव सभ्यता के यह बड़े संकटों में से एक होगा।
आलवेदर रोड प्रोजेक्ट का प्रसिद्ध भू-वैज्ञानिक के एस वाल्डिया ने न सिर्फ विरोध किया था, बल्कि अनावश्यक भी बताया था। देश के पर्यावरण के लगभग सभी जानकारों ने इस परियोजना का विरोध किया था। गंगा के लिए अनशन करते हुए आपनी जान देने वाले स्वामी सानंद और स्वामी गोपाल दास भी लगातार इस परियोजना का विरोध करते रहे थे। इस परियोजना में सबसे बड़ा घपला यह है कि इस पूरी परियोजना का पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन नहीं किया गया है। हमेशा की तरह पर्यावरण और वन मंत्रालय हरेक झूठ पर पर्दा डालने का प्रयास करता रहा है। दरअसल पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन की जरूरत वर्तमान हाईवे को चौड़ा करने और 100 किलोमीटर तक आगे बढ़ाने में नहीं पड़ती है।
आजादी के बाद से ही सांप्रदायिक गुंडई पर आधारित राजनीति की जड़ें हमारे देश में गहराई से बिछ गयी थीं। साल-दर-साल तमाम कोशिशों के बावजूद सांप्रदायिक नफरत की भावना कम नहीं हुई, अलबत्ता किसी न किसी रूप में बढ़ती रही, राजनीतिक दलों के लिए सबसे उर्वरा नारा बनती रही। पिछले चार दशकों का सच यह उभरकर आया जो भी राजनीतिक दल देश में किसान, मजदूर, युवा, महिला, दलित-दमित के वाजिब सवालों को उठाते रहे, वे सब हाशिए पर हैं या उन्हें राजनीति का 'बेचारा यात्री' मान लिया गया है।
पिछले 70-75 वर्षों का जो लोकतंत्र हमें दिखाई देता है, वह धार्मिक नफरत के खून से हमेशा ही सना रहा है, फर्क सिर्फ इतना कि पहली बार सांप्रदायिकता को संस्थागत किया जा रहा है, सरकारी मान्यता मिलने लगी है और एजेंसियां भी धार्मिक तुष्टकीरण का टूल बनती जा रही हैं। जाहिर तौर पर सांप्रदायिकता के इस संगठित होते विकासक्रम में लोकतंत्र को और कुपोषित होना है। यह कुपोषण का ही चारित्रिक गुण है कि भारतीय समाज में यह पहली बार है जब राजनीति में सबसे बड़ा मुद्दा मुसलमानों से होकर गुजरने लगा है।
सत्ताधारी नेताओं और उनके संगठनों द्वारा जनमानस को यह समझाने की संगठित कोशिश हो रही है कि सभी समस्याओं का हल मुसलमानों को दबाकर रखने और उन्हें दोयम बनाने में है। इससे आगे बढ़ें तो किसान आंदोलन की शुरुआत के साथ ही शासक के तौर पर मोदी की सत्ता, संगठन के तौर पर बीजेपी और विचार के तौर पर RSS ने दिल्ली पहुंचे आंदोलनकारियों को पहले दिन से ही साजिशकर्ता बताया और खालिस्तानियों का जमघट कहा। अब सवाल उठता है कि सिख आंदोलनकारियों को खालिस्तानियों का जमघट कहने से क्या फर्क पड़ेगा?
सिख आंदोलनकारियों को खालिस्तानी बोलकर संबोधित करना, उन्हें चिढ़ाना क्या राजनीति में सांप्रदायिकता का नया विस्तार नहीं है? सिख समाज की जो पीढ़ियां खालिस्तान को भूल चुकी थीं, उन्हें उस रूप में बार-बार याद दिलाना, दो-चार खालिस्तान समर्थकों को लाखों किसानों के मुकाबले बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना उनके स्वाभिमान को चोट पहुंचाना नहीं है? और सबसे बड़ी बात यह कोई कट्टरपंथियों की लंपट फोर्स ऐसा नहीं कह रही है, कहने वाले सरकार में हैं, चुने हुए जनप्रतिनिधि और मंत्री हैं।
और बड़ी बात यह है कि सरकारी और सरकार पोषित प्रचार माध्यमों से प्रभावित जनता का बड़ा हिस्सा आंदोलनकारियों को देशद्रोही और खालिस्तानी कहने पर मजे लेता है और कमोबेश सरकार के फैसले के साथ खड़ा है। मुसलमानों को तो वह पहले ही से कह रहे थे। यानी भारत में सिखों को लेकर एक नफरती जनमानस तैयार करने की संगठित कोशिश हो रही है। जैसे यूपी में पिछले साल 3 अक्टूबर को हुए लखीमपुर कांड के बाद जो विश्लेषक या बुद्धिजीवी यह कह रहे हैं कि इस घटना से बीजेपी को बड़ा नुकसान नहीं हुआ है, उनकी बातों को यूं ही नहीं कहा जा सकता।
भाजपा यूपी और दूसरे हिंदीभाषी राज्यों में यह प्रचार पहुंचाने में सफल रही कि मरने वाले किसान नहीं खालिस्तानी थे और उन्होंने हिंदुओं को मार डाला। जरा सोचिए कि मोदी सरकार के पिछले 8 सालों के शासन में जो सबसे जोरदार और सशक्त आंदोलन बना 'दिल्ली किसान आंदोलन', उस तक को भी सत्ताधारी पार्टी की संगठन शक्ति ने सांप्रदायिक राजनीति के विस्तार के एक टूल में बदलने की साजिश रच दी। नतीजा ये हुआ है कि किसान आंदोलन की जो शक्ति चुनावों में ताकतपूर्वक दिखनी चाहिए थी, वह चुनावी दिन नजदीक आने-आने तक ज्यादा क्षीण होती नजर आ रही है।
ऐसे में स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं कि भारतीय राजनीति की मुख्यधारा सांप्रदायिकता बनती जा रही है। आप चाहें जहां से जैसी राजनीति करें, उसे सत्ता की संगठित शक्ति धार्मिक फच्चर में फंसा देने में सफल हो रही है। हिंदू समुदाय के हर जाति का आदमी चाहे सवर्ण हो या अवर्ण, सबसे बड़ा हिंदू बनने की सौ शर्तें पूरी करने में अपनी सारी मेधा खो रहा है। उसे ऐसा लग रहा है कि श्रेष्ठ, सच्चा और कट्टर हिंदू बनने की महादौड़ में वह पीछे न छूट जाए।
विपक्षी पार्टियों के भी प्रचार और मुद्दों का बारीकी से विश्लेषण करें तो वह भी भाजपा के मुकाबले अच्छे वाले धार्मिक नेता बनने के राजनीतिक रणनीति से सराबोर नजर आते हैं। राजनीति के नए मुल्ला बने अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी इस दौड़ में सबसे ज्यादा उर्जा लगा रही है। यह हाल विपक्षी पार्टियों का तब है, जबकि अभी भाजपा ने सिर्फ धार्मिक कार्ड खेला है। अभी उसने जातीय टकराहटों और आपसी भेद पैदा करने का सिर्फ श्रीगणेश किया है। वह आने वाले समय में जातियों के बीच के अंतरविरोधों और संघर्षों को ज्यादा संगठित रूप से उभारेगी, जिसके भ्रूण किसान आंदोलन के जरिए उसने समाज में डाल दिया है। यही वजह है कि इस आंदोलन को सिख जाटों और हिंदू जाटों के आंदोलन के रूप में ही बड़ी प्रतिष्ठा मिल पाई है, जोकि किसी भी संघर्ष के निकले आखिरी परिणाम के रूप में उम्मीद की बात नहीं है।