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जनज्वार विशेष

आज भी देश को पढ़ाया जाता है चौरी चौरा का गलत इतिहास

Janjwar Desk
5 Feb 2021 4:25 PM IST
आज भी देश को पढ़ाया जाता है चौरी चौरा का गलत इतिहास
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देश के लिये अपना घर-बार, जवानी, बीवी-बच्चों का त्याग, फांसी के फंदे, कालेपानी की सजा और विभिन्न जेलों में सड़-गल जाने के बावजूद, अनपढ़, गंवार, अस्पृश्य समझे जाने वाले किसानों का बलिदान, कीमती नहीं समझा गया। अमूमन इस विद्रोह का मतलब उग्र भीड़ द्वारा थाना जलाने और 23 पुलिसकर्मियों को मार देने मात्र से जोड़ा जाता रहा...

प्रस्तुत आलेख 'चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन' पेंग्विन बुक्स, पर आधारित है, वरिष्ठ लेखक सुभाष चंद्र कुशवाहा ने अपनी पूरी पुस्तक को मुख्यतः ब्रिटिशकालीन मूल दस्तावेजों के आधार पर तैयार किया है...

तिहास की कुछ तारीखें, जन आक्रोश का सैलाब बनती हैं और मजबूत से मजबूत गढ़ों को न केवल नेस्तनाबूद करती हैं, अपितु छद्म क्रांतियों का पर्दाफाश भी करती हैं। 4 फरवरी, 1922, चौरी चौरा विद्रोह की तारीख, कुछ ऐसे ही अमिट पन्नों को इतिहास में दर्ज करती है जिसे 'चौरी चौरा का अपराध' या 'गुंडों का कृत्य' करार देने वाली राष्ट्रवादी राजनीति से मिटाया नहीं जा सकता। चौरी चौरा कांड, तत्कालीन जागीरों के जुल्म और उन्हें संरक्षण देने वाली ब्रिटिश सत्ता की कहानी तो कहता ही है, असहयोग आंदोलन की दिशा और दशा पर सवालिया निशान भी लगाता है।

जमींदारों, ताल्लुकदारों के सहारे चलाई जा रही जुल्मी ब्रिटिश सत्ता के प्रतिकार में जब चौरी चौरा की भूखी जनता ने अपने तौर-तरीकों से आंदोलन की दिशा तय करने सड़क पर निकली तो उसे अपराधी या असामाजिक तत्व कहकर, किनारे लगाने की कोशिश किया गया। यह विद्रोह स्थानीय जमींदारों के जुल्म-दर जुल्म की प्रतिक्रिया थी और जमींदारों के उकसाने पर ही गोली चली थी। उन्हीं जमींदारों के वंशज आज भी सत्ता सुख भोग रहे हैं।

चौरी चौरा के गरीब किसानों का विद्रोह, देशव्यापी किसान विद्रोहों की श्रृंखला की एक कड़ी के बजाय, इतिहास की संकीर्ण मनोवृत्तियों का शिकार होकर, लम्बे समय तक आपराधिक कृत्य के रूप में जाना, समझा गया। देश के लिये अपना घर-बार, जवानी, बीवी-बच्चों का त्याग, फांसी के फंदे, कालेपानी की सजा और विभिन्न जेलों में सड़-गल जाने के बावजूद, अनपढ़, गंवार, अस्पृश्य समझे जाने वाले किसानों का बलिदान, कीमती नहीं समझा गया। अमूमन इस विद्रोह का मतलब उग्र भीड़ द्वारा थाना जलाने और 23 पुलिसकर्मियों को मार देने मात्र से जोड़ा जाता रहा। इस कांड के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार, क्रूर उप निरीक्षक गुप्तेश्वर सिंह के कृत्यों की निंदा करने के बजाए, 'द लीडर' जैसे अंग्रेज परस्त समाचार पत्र ने उसे'गोरखपुर का नायक' घोषित किया। ठाकुर दरोगा के वैश्यगोत्र की कुलीनता की बखान की और हाशिये के समाज को घृणित बताया।

चौरी चौरा काण्ड की शुरुआत 1 फरवरी 1922 को होती है जब भगवान अहीर, पास के मुण्डेरा बाजार में उपस्थित था। वह और उसके दो साथी, अपने निजी कार्य से बाजार गए हुए थे। बाजार के स्वामी, (जागीरदार) बाबू संत बख्श सिंह के इशारे पर भगवान अहीर और उसके साथियों-रामरूप बरई और महादेव कोे पकड़ कर छावनी में बंद कर दिया गया। उसके बाद दरोगा गुप्तेश्वर सिंह ने तीनों स्वयंसेवकों को बेंत और थप्पड़ से बुरी तरह मारा।

भगवान अहीर 18 वर्ष की उम्र में ब्रिटिश सेना के कुली कार्प्स में रह चुका था। उसने प्रथम विश्वयु़द्ध को करीब से देखा था। वह मेसोपोटामिया यु़द्ध में, बसरा मोर्चे पर मात्र दो वर्ष सेवा में रहा। 1918 में विश्वयुद्ध समाप्त होते ही हजारों सैनिकों की तरह उसकी भी सेवा समाप्त हो गई। उसे पेंशन देकर, नौकरी से निकाल दिया गया। युद्ध के र्मोचे पर जर्मनी में रह रहे भारतीय वामपंथियों ने ब्रिटिश भारतीय सैनिकों को औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ उकसाने का प्रयास किया था। इसलिए जब सैनिक अपने-अपने घर वापस गए तो उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ आंदोलन तेज किया। कांग्रेस ने स्वयंसेवकों की कवायद के लिए सेवा निवृत्त सैनिकों का सहयोग लिया। भगवान अहीर भी उसी कार्य में लगा। कोर्ट ने अपने फैसले में भगवान अहीर को ड्रिल इन्स्ट्रक्टर कहा है।

1 फरवरी, 1922, बुधवार की शाम को शिकारी के घर पर एक आवश्यक बैठक हुई, जिसमें चौरा के महादेव, खेली भर, भगवान अहीर, लाल मुहम्मद सेन, मुण्डेरा बाजार के रामरूप बरई और डुमरी खुर्द के नजर अली तथा कुछ अन्य लोगों ने भाग लिया था। नजर अली ने स्वयंसेवकों से जानना चाहा कि 1 फरवरी को दोपहर बाद, मुण्डेरा बाजार में क्या हुआ? लाल मुहम्मद ने दरोगा द्वारा भगवान अहीर, रामरूप बरई तथा महादेव को अकारण पीटे जाने की जानकारी दी, जिसकी पुष्टि भगवान अहीर, रामरूप बरई और महादेव ने किया। उसी मीटिंग में यह तय किया गया कि दूसरे मंडल के स्वयंसेवकों को पत्र लिखकर बुलाया जाए। हम एक बड़े समूह में 4 फरवरी को चलकर दरोगा से पूछें कि उसने हमारे आदमियों को क्यों मारा और अकारण क्यों मारता रहता है?

2 फरवरी की सुबह डुमरी खुर्द गांव के शिकारी के घर स्थानीय स्वयंसेवकों की फिर बैठक हुई। भगवान अहीर ने अपने जख्म दिखाए। एक नकछेद नामक पढ़े-लिखे युवक के सहयोग से आसपास के गांवों के स्वयंसेवकों को पत्र लिखे गए और चार फरवरी की सुबह डुमरी खुर्द गांव में सभा बुलाई गई। जलूस निकालने के लिए जिला कार्यालय, गोरखपुर से अनुमति लेने का प्रयास किया गया। उस समय सुलेमान खिलाफत कमेटी के सचिव, दशरथ प्रसाद द्विवेदी तथा हाकिम आरिफ उपाध्यक्ष और सुभानुल्लाह अध्यक्ष थे। जिला कार्यालय द्वारा चार फरवरी को जलूस निकालने हेतु अनुमति नहीं मिली थी।

4 फरवरी की सुबह, डुमरी खुर्द गांव के खलिहान में स्वयंसेवकों का जुटान हुआ। जोशीले भाषण हुए। कुछ स्थानीय जमींदारों के आदमियों ने भी सभा में हस्तक्षेप करने का प्रयास किया, जिनमें मुण्डेरा बाजार के ठेकेदार शंकर दयाल और मलांव के पंडित जगतनारायण पाण्डेय ने जलूस निकालने के प्रयास को रोकने की कोशिश की मगर नजर अली, लाल मुहम्मद, शिकारी, भगवान अहीर और अब्दुल्ला ने उनकी न सुनीं।लगभग 12 बजे के आसपास, जलूस ने थाने की ओर प्रस्थान किया।

स्वयंसेवकों की भीड़ नारा लगाते हुए थाना परिसर के दक्षिण-पूरब कोने से उत्तर दिशा में मुड़कर, आगे बढ़ रही थी। जलूस का अगला हिस्सा रेलवे क्राॅसिंग तक पहुंच चुका था। अधिकांश स्वयंसेवक रेलवे क्राॅसिंग पार कर चौरा बाजार तक चले गए थे लेकिन थाना गेट के सामने लगभग 300 स्वयंसेवक अभी रुके थे। वे दरोगा से यही जानना चाहते थे कि उसने मेरे भाई को क्यों मारा? दरोगा माफी मांग लिया था मगर संत बख्श सिंह का कारिंदा अवधू तिवारी ने दरोगा से कहा कि, 'कैसे ठाकुर हैं? निम्न जातियों से माफी मांग रहे हैं?' यह सुन दरोगा उत्तेजित हो गया और उसने भीड़ को भगाने के लिए चौकीदारों को लाठीचार्ज का हुक्म दे दिया। जैसे ही चौकीदारों ने भीड़ पर लाठियां चलानी शुरू की, भीड़ अनियंत्रित हो गई।

चौकीदारों द्वारा की गई कार्यवाही के बाद स्वयंसेवक भाग कर रेल पटरी के किनारे खड़े हो गए। तभी किसी एक ने खतरे की सीटी बजा दी। खतरे की सीटी सुन, चौरा बाजार तक गए स्वयंसेवक पलट पड़े। उन्होंने थाने और सिपाहियों पर, रेल पटरी पर बिछे पत्थरों की बौछार शुरू कर दी। उसके बाद सिपाहियों ने गोली चलानी शुरू की।

पुलिस की गोली से कई स्वयंसेवक मारे गए और सैकड़ों घायल हुए थे। यह देख भीड़ उग्र हो गई। लगभग साढ़े तीन बजे के आसपास स्वयंसेवकों ने खरपतवार और मिट्टी का तेल छिड़क कर थाने में आग लगा दिया। जिन सिपाहियों ने भागने का प्रयास किया उन्हें बांस के डंडे से पीट कर मार दिया और जलते थाने में फेंक दिया। दरोगा, गुप्तेश्वर सिंह, गोवर्द्धन हलवाई के मकान में छिपा हुआ था। भीड़ तुरंत उधर मुड़ी। दरोगा हाथ में तलवार लिए पीछे के दरवाजे से निकला और दक्षिण से उत्तर दिशा में, रेलवे क्राॅसिंग की ओर भागने लगा। नजर अली के साथ बहुत सारे लोग दरोगा पर टूट पड़े और उसके शव को 8-10 लोग खींच कर जलते थाने में फेंक दिए थे।

थाना भवन में दरोगा सहित 22 पुलिस वालों और चौकीदारों की मृत्यु हो गई थी। एक चौकीदार बेहोशी की हालत में अपने घर ले जाया गया था जहां उसकी मृत्यु हो गई थी। इस प्रकार दरोगा गुप्तेश्वर सिंह, उप निरीक्षक सशस्त्र बल, 15 कांस्टेबल और 6 चैकीदारों सहित कुल 23 लोगों की चौरी चौरा विद्रोह में जान चली गई।

दरोगा को मारने के बाद टेलीग्राफ तार काटा गया। रेल पटरी उखाडी गयी। चौरी चौरा रेलवे स्टेशन और post office पर तिरंगा झंडा फहरा दिया गया था।

चौरी चौरा थाना जलाने की सूचना मिलते ही जिलाधिकारी मि. कोलेट ने, कार्यवाहक पुलिस अधीक्षक मि. गनपत सीताराम खेर चौरा की ओर प्रस्थान किया। रेलवे लाइन टूटी होने के कारण कुछ दूरी पैदल तय करनी पड़ी थी और वह रात 10 बजे के बाद थाने पर पहुंच पाये थे। उस समय थाना भवन जल रहा था।

गांधी जी ने स्वयंसेवकों को गुंडे और असामाजिक तत्व कह कर निंदा किया। उन्होंने गुजराती में एक लेख लिखा था, 'गोरखपुर का अपराध' जो नवजीवन में 12 फरवरी, 1922 को प्रकाशित हुआ।12 फरवरी को असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया। जब पूरा देश अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध उबल रहा था, तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। जिन लोगों ने अब तक के असहयोग आंदोलन के कारण अपनी नौकरियां छोड़ दी थीं, स्कूली बच्चों ने स्कूल-काॅलेजों का बहिष्कार किया था, वे ठगे महसूस कर रहे थे।

सेशन कोर्ट में मात्र 225 अभियुक्तों पर मुकदमा चला। सेशन कोर्ट के जज एच. ई. होल्मस ने अपनी कार्यवाही पूर्ण कर 9 जनवरी, 1923 को 430 पृष्ठों में निर्णय सुना दिया। तब तब बचे हुए 221 अभियुक्तों में से 47 ऐसे थे जिनके बारे में सत्र न्यायाधीश इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि उनका आरोप सिद्ध नहीं हो पा रहा है, लिहाजा उन्हें रिहा करने का निर्णय लिया गया। बाकी 174 अभियुक्तों में से 2 ऐसे थे जो घटना पूर्व घायल थे, जिन्हें लघु अपराध का दोषी पाया गया और 2-2 साल की सजा सुनाई गई। 172 अभियुक्तों को सेशन कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई।

जिला कांग्रेस कमेटी, गोरखपुर ने अभियुक्तों की फांसी की सजा के विरुद्ध पंडित मदन मोहन मालवीय के सहयोग से उच्च न्यायालय में अपील दाखिल किया। उनके सहयोगी वकील देवी प्रसाद ने क्रिमिनल अपील संख्या 51/1923, 'अब्दुल्ला और अन्य बनाम सम्राट' मामले में मुलजिमों की ओर से पैरवी की। उनमें से 2 अभियुक्तों की कारागार अस्पताल में मृत्यु हो चुकी थी।

इस प्रकार हाईकोर्ट में मात्र 170 अभियुक्तों के बारे में फैसला दिया था-

38 अभियुक्तों को दोषमुक्त किया गया। 3 अभियुक्तों के बारे में भारतीय दंड संहिता की धारा 147 के अनुसार केवल दंगे में भाग लेने का दोषी पाया और दूसरे सारे आरोपों से बरी करते हुए मात्र 2-2 वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाइ। 19 अभियुक्तों को जिनमें नजर अली, लाल मुहम्मद, भगवान, श्यामसुन्दर और अब्दुल्ला शामिल थे, को कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 302/149 के अंतर्गत थाने पर आक्रमण करने, सिपाहियों और उप निरीक्षकों की हत्या के लिए मुख्य और नेतृत्वकारी अपराधी मानते हुए फांसी की सजा सुनाई थी। 14 अभियुक्तों पर भारतीय दंड संहिता 302/149 के अंतर्गत अभियोग सिद्ध मानते हुए भी जजों ने फांसी से कुछ कम सजा का हकदार मानते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। 19 अन्य अभियुक्तों को हाईकोर्ट ने सश्रम 8 साल के कारावास की सजा और 57 अभियुक्तों को हाईकोर्ट ने सश्रम 5 साल के कारावास की सजा सुनाई । 20 अभियुक्तों को सश्रम 3 साल की सजा सुनाइ।

क्षमादान याचिकाएं खारिज हो जाने के बाद, फांसी की सजा पाए 19 क्रांतिकारियों की 2 जुलाई 1923 से लेकर 11 जुलाई 1923 के मध्य, विभिन्न जेलों में फांसी दे दी गयी थी।

1981 तक चौरी चौरा विद्रोह को राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम का हिस्सा नहीं माना गया था। कम्युनिस्ट नेता और सदस्य विधान सभा सदस्य, गुरू प्रसाद के लिखित प्रयास के बाद, गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने दिनांक 30 अक्टूबर, 1981 को जवाब दिया था कि चौरी चौरा विद्रोह के सेनानी या उनके आश्रित, पेंशन के लिए आवेदन कर सकते हैं।

देश के इतिहासकारों और प्रबुद्धजनों के सामने चौरी चौरा विद्रोह एक प्रश्न चिह्न बन खड़ा है। 100 साल बाद भी आज देश की पीढ़ी को गलत इतिहास पढ़ाया जा रहा है। सरकारी स्तर पर यही बताया गया है कि चौरी चौरा विद्रोह के विद्रोहियों की फांसी 2 जुलाई, 1923 को हुई, जबकि हकीकत यह है कि फांसी 2 जुलाई, 1923 से प्रारम्भ होकर 11 जुलाई तक चली। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि चौरी चौरा 'शहीद स्मारक' कहने से स्पष्ट नहीं हो पाता कि इसका मतलब स्वयंसेवकों के शहीद स्मारक से है या गोली चलाने वाले ब्रिटिश पुलिस के शहीद स्मारक से। दोनों के नाम एक ही हैं। एक रेलवे लाइन के उत्तर और दूसरा दक्षिण में स्थित है। ब्रिटिश पुलिस शहीद स्मारक पर 'जय हिन्द' का लिखा जाना भी खलता है।

स्वयंसेवकों के शहीद स्मारक पर एक बड़ा-सा काला ग्रेनाइट पत्थर लगा है, जिस पर चौरी चौरा विद्रोह का संक्षिप्त मगर झूठा इतिहास दर्ज है। विद्रोह को संचालित करने वाले उस डुमरी खुर्द गांव को मिटा दिया गया है जहां के मुसलमानों, चमारों, अहीरों सहित तमाम निम्न जातियों की अगुवाई में चौरी चौरा विद्रोह ने दुनिया में अपना नाम दर्ज कराया। शताब्दी वर्ष में इस स्मारक पर खुदे गलत इतिहास को दर्ज करने की जवाबदेही तय होनी चाहिए। यही उन शहीदों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। इतिहास से छेड़खानी सफल न होगी क्योंकि इस कांड का दस्तावेजीकरण किया जा चुका है . हाँ, कुछ फर्जी इतिहासकार जरूर निम्न जातियों के बलिदान को अपने बाप-दादाओं का बनाने में जुटे हैं।

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