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लगता है रामकृष्ण जी कहीं से मुस्कुराते हुए आयेंगे और कहेंगे भइया पहिले ये बताइए क्या खिलावें, किराया भाड़ा है कि नहीं...
लगता है रामकृष्ण जी कहीं से मुस्कुराते हुए आयेंगे और कहेंगे भइया पहिले ये बताइए क्या खिलावें, किराया भाड़ा है कि नहीं...
सामाजिक कार्यकर्ता रामकृष्ण जी के आकस्मिक निधन पर उन्हें याद कर रहे हैं राजीव यादव
रामकृष्ण जी को गए कई दिन बीत गए पर दिल नहीं मानता कि वो चले गए. बस अभी लगता है कि कहीं से मुस्कुराते हुए आ जाएंगे और कहेंगे कि भइया पहिले ये बताइए क्या खिलावें, किराया भाड़ा है कि नहीं.
जब से खबर मिली तब से आज तक ये हिम्मत नहीं हुई कि लिख दूं कि वो नहीं रहे. पिछली बार या कहें कि अंतिम बार जब मुलाकात हुई तो मैं दिल्ली से लौट रहा था. जब भी लखनऊ जाता अधिकतर जब सुबह पहुंचता तो उनको फोन कर घर पहुंच जाता. घर पहुंचा उन्होंने पूछा कि भइया कहां से आ रहे हैं. रामकृष्ण जी हम जैसे युवाओं को भी बहुत सम्मान और अपनेपन से भइया बोलते थे. मैं जब उनके यहां पहुंचा तो कुछ निजी वजहों से परेशान था. ऐसे किसी मुश्किल हालात में जो कुछ लोग मेरे जीवन में हैं उसमें रामकृष्ण जी भी थे.
चाय पिलाए और कहे कि खाना खाकर ही जाना है और इसलिए नहा लो. जब भी रामकृष्ण जी से मिलते थे वो मिठाई जरूर खिलाते थे. बातों ही बातों में मेरे आखों में आसूं आ गए तो उन्होंने गले लगा लिया और कहा क्यों चिंता करते हो हम साथ हैं न. हम जैसे लोगों के सामने ये संकट होता है कि सामाजिक-राजनीतिक जीवन में हमारे व्यक्तिगत दुःख-सुख का गला घुट सा जाता है ऐसे में कोई हो जो जीवन के इन पहलुओं पर बात करे तो उसमें रामकृष्ण जी थे.
रामकृष्ण जी से पहली मुलाकात 2013 में याद आती है उससे पहले भी मिले होंगे किसी सामाजिक-राजनीतिक कार्यक्रम में पर मुझे याद नहीं. मई का महीना था खालिद मुजाहिद की हत्या के बाद हम सब विधानसभा लखनऊ पर धरने पर बैठे थे. रामकृष्ण जी, ओपी सिन्हा जी और आदियोग जी और कई साथी आते थे और धरने के खत्म होने के बाद देर-देर तक बात करते थे. शुरू में मुझे ऐसा लगा कि ये इंटेलिजेंस के लोग हैं क्योंकि लखनऊ के सामाजिक-राजनीतिक लोगों से ज्यादा परिचित नहीं था. और साथी लोग जितनी गंभीरता से बात करते थे उससे लगा पर 121 दिन तक चले धरने जो गर्मी के लू के थपेड़ों के बीच शुरू हुआ और बारिश में जाकर खत्म हुआ लगातार संघर्ष के हर पड़ाव पर रहे.
इस धरने के बाद रिहाई मंच से आपका एक संरक्षक का रिश्ता बन गया और किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय में आपकी भूमिका होती थी. रामकृष्ण जी जब भी रूम पर आते तो कहते भइया कुछ मंगाईए और कहने के साथ पांच सौ की नोट निकालते और पूछते की राशन है कि नहीं और किचेन के बोरे और डिब्बों को देखते और पांच सौ-हज़ार दे देते और चाय तब जाकर पीते. रामकृष्ण जी हम जैसे युवा जो सामाजिक-राजनीतिक जीवन में हैं उनके जीवन की मुश्किलों को समझते थे.
देर तक बातें और खासतौर पर राजनीतिक आर्थिक मसलों पर उनका अच्छा व्यवहारिक अध्ययन था. 2014 का दौर था जब बीजेपी सत्ता में आ गई उस वक्त एक बड़ा तबका कोमा में चला गया और लोगों को लगा अब कुछ नहीं होने वाला. उस वक्त बहुत से अखबारों के संपादकीय पेजों पर लिखते थे, लेकिन जैसे ही परिणाम आए लगभग सभी ने पैसे नहीं दिए. मई की गर्मी थी साथी घर चले गए थे अकेले ही रहना होता था. खाने का राशन खत्म सा हो गया था. लोगों को उम्मीदें भी खत्म हो गईं थी कि हम जैसे लोगों के राजनीतिक-सामाजिक प्रतिरोध से कुछ बदलने वाला जो कुछ सहयोग मिलता था नहीं मिल रहा था. एक दिन रामकृष्ण जी आए तो मैं कम्प्यूटर पर कुछ लिख रहा था. कहे भइया कुछ लाइए और मैं गया और जब लौटकर चाय बनाई और पीने लगे तो उन्होंने कहा कि कुछ राशन तो है नहीं सब्जी भी नहीं है कैसे खाते हैं चलिए घर वहीं रहिएगा.
सच कहूं उस वक़्त आंख भर आई और ये लिखते हुए भी आज आंख भर आई. रामकृष्ण जी के बारे में कई दिन सोचा पर लिखने को हिम्मत नहीं होती. और उसके बाद मैंने कहा कि कुछ ऐसा लेता हूं जो खराब न हो और चले. इसके बाद राजमा, चना जैसी चीजें लिया. और उसके बाद जब तक साथी लोग नहीं आए रोज आते और साथ एक रोटी खाकर जाते उनको शायद लगता था कि मैं नहीं बनाऊंगा. उनके घर से अधिकतर फोन आ जाता क्योंकि अधिकतर देर हो जाती थी. वो अधिकतर कहते कि शादी कर लो और मैं टाल जाता.
एक बार कुशीनगर जहां मैत्रयी परियोजना में किसान जमीन नहीं देने के सवाल पर लड़ रहे थे वहां एक बैठक में वाद-विवाद हुआ और मैंने उनको काफी कुछ बोला उसके बाद हमारे संबंध में थोड़ा दरार आई. ये मेरी एक खराब आदत है इसकी वजह से बहुत से निजी संबंधों पर असर हुआ. पता नहीं उनके दिमाग में वो बातें थी कि नहीं पर मेरे दिमाग में उसका अफसोस रहता और उनके जाने के बाद और.
एक बार मुझे चेचक हुआ. तेज बुखार था वो आए मैंने बताया तो स्कूटी पर बैठा कर होम्योपैथी डॉक्टर के यहां ले गए. उसके बाद ज्योति भाई को नीम की पत्ती देने को कहा. वो रोज आते हम मना भी करते कि सर आपको भी हो जाएगा नहीं मानते थे. और मुझसे कई साथियों को हो गया पर उनको नहीं हुआ.
2014 लोकसभा चुनावों को लेकर एक मांग पत्र हम लोगों ने रिहाई मंच का बनाया था वो बार-बार कहते कि ये बहुत महत्वपूर्ण है इसे घोषणापत्र के रूप में छापा जाए. क्योंकि ये मुस्लिम समुदाय और एक स्तर पर दलितों के सुरक्षा के अधिकारों को मजबूती से रखता है.
ये पूरा दौर यूपी में साम्प्रदायिक हिंसा का दौर था. कोसीकलां, फैज़ाबाद, मुज़फ्फरनगर समेत पूरे सूबा इसकी जद में था. भोपाल में जेल से निकालकर एनकाउंटर करने के विरोध में 2 नवम्बर 2016 को रिहाई मंच जीपीओ गांधी प्रतिमा पर धरना दे रहा था. उस वक़्त पुलिस ने मुझे बहुत मारा था. उस वक़्त भी एक अभिवावक के रूप में वो खड़े रहे.
एक दिलचस्प बात जो शायद कभी उनसे कहा नहीं अधिकतर दस-साढ़े दस बजे के करीब वो जाते ऐसे में एक समय था कि रूम पर अकेले रहता था तो वो साथ देने के लिए कुछ ज्यादा ही रुकते थे. उसी वक्त एक दोस्त जिससे उसी दरम्यान फोन पर बात होती. ऐसा कई बार हुआ कि उसका फोन आता और वो मुझसे बात करते और मैं सोचता कि ये जब चले जायेंगे तो बात करूंगा और ऐसा कई बार हुआ और धीरे-धीरे उस दोस्त से बात का सिलसिला टूट गया. वो अपनी बातों में इतना खो जाते की उन्हें याद ही नहीं रहता.
उनको एक बार हार्ट अटैक हुआ उसके बाद वो संयमित रहने लगे थे फिर भी जब कई बार मंचों से वो बोलते तो उनके जज्बात को देखकर डर लगता था कि कुछ दिक्कत न हो जाए.
यूपी में जब एनकाउंटर का दौर शुरू हुआ तो वो काफी चिंतित रहते. इस बीच हम रिहाई मंच के कार्यालय पर मिलते जुलते थे मीटिंगों में चर्चा करते. नागरिकता आंदोलन के दौरान जब सरकार के निशाने पर रिहाई मंच आया उस वक्त उन्होंने हर वक़्त हाल-पता लिया और फिर कोरोना का दौर. उस दौर में भी उनसे मुलाकात हुई. पर उसके बाद लखनऊ कम रहने लगा था और आज़मगढ़ ज्यादा तो बीच-बीच में जाता तो ऑफिस पर मीटिंग करते तो मिलते. और वो चाय अपनी तरफ से जरूर पिलाने की कोशिश में रहते.
पिछली तीन जनवरी 2023 को लखनऊ गया तो सुबह साढ़े 5 के करीब फोन कर बताया कि लखनऊ आया हूं. एक मीटिंग है. वक़्त हो तो आइए मिलते हैं, पर वो मुलाकात अधूरी रह गई जो कभी नहीं होगी, ऐसा नहीं मालूम था...