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कोरोना महामारी के बहाने स्वतंत्र मीडिया को मसल देना चाहती है मोदी सरकार
मोदी राज में फलता-फूलता गोदी मीडिया
वरिष्ठ पत्रकार दिनकर कुमार का विश्लेषण
जनज्वार। भारत में जब आपातकाल लागू हुआ था, उस समय के बारे में एक कथन प्रसिद्ध है-'पत्रकारों से जब झुकने के लिए कहा गया तो वे रेंगने लगे थे।' पिछले छह सालों से देश में नरेंद्र मोदी का शासनकाल चल रहा है और कोई आपातकाल औपचारिक रूप से लागू भी नहीं किया गया है, इसके बावजूद पूरे देश में अघोषित आपातकाल की दहशत को महसूस किया जा रहा है।
अधिकतर मीडिया घराने सरकार के हाथों बिक चुके हैं और वे भाजपा आईटी सेल की तरह बर्ताव कर रहे हैं। प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का यही हाल है। ऐसे आतंक के माहौल में भी जो स्वतंत्र पत्रकार अपने पत्रकारिता धर्म का निर्वाह करने का दुस्साहस कर रहे हैं, उनको प्रताड़ित करने के लिए भाजपा सरकार हर तरह के हथकंडों का इस्तेमाल कर रही है।
कोरोनावायरस के नाम पर लोकतंत्र का दमन छह महीने पहले शुरू हुआ। इस अवधि में भारत पत्रकारों के लिए दुनिया के सबसे खतरनाक स्थानों में से एक बन गया है। भले ही प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने महामारी की शुरुआत में स्वतंत्र कवरेज पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने के लिए कानून पारित करने की जरूरत नहीं समझी, इसके बगैर भी पत्रकारिता का माहौल लगातार बिगड़ चुका है।
छोटे मीडिया घराने आर्थिक रूप से पीड़ित हैं। आवाजाही पर प्रतिबंध होने से पत्रकारों को रिपोर्टिंग करने में कठिनाई होती रही है। और कोई भी पत्रकार जो मोदी सरकार की आधिकारिक लाइन के खिलाफ लिखने की हिम्मत करता है उसे खतरों और धमकी का सामना करना पड़ता है। जो कभी दुनिया के सबसे जीवंत मीडिया परिदृश्यों में से एक था, वह सब नष्ट होता जा रहा है।
जहां बड़ी सोशल मीडिया फॉलोइंग के साथ प्रमुख और आलोचनात्मक आवाजों के खिलाफ ऑनलाइन हमलों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकर्षित किया है, देश के दूरदराज के कोनों में काम करने वाले अन्य पत्रकारों को, जो नियमित रूप से अपने जीवन पर खतरे का सामना करते हैं, को बहुत कम प्रचार मिलता है।
ताजा उदाहरण त्रिपुरा का है। दक्षिण त्रिपुरा के सबरूम में त्रिपुरा के पहले विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) के उद्घाटन समारोह में मुख्यमंत्री बिप्लव देब ने कहा था, "कुछ समाचार पत्र लोगों को भ्रमित करने की कोशिश कर रहे हैं, सभी अति उत्साहित हो रहे हैं। इतिहास उन्हें माफ नहीं करेगा, मैं उन्हें माफ नहीं करूंगा। इतिहास उन्हें माफ नहीं करेगा, त्रिपुरा के लोग उन्हें माफ नहीं करेंगे और मैं उन्हें माफ नहीं करूंगा। मैं जो कुछ भी कहता हूं वही करता हूं, इतिहास इसका गवाह है।"
त्रिपुरा के पत्रकारों के संगठन के अध्यक्ष सुबल कुमार डे ने बयान में कहा कि पत्रकारों को देब की टिप्पणियों के बाद से त्रिपुरा के विभिन्न हिस्सों में धमकियों और हमलों का सामना करना पड़ रहा है और देब के भाषण के बाद 24 घंटों में ही दो पत्रकारों पर शारीरिक हमला किया गया।
जिस हद तक मोदी सरकार अपने कार्यों की किसी भी आलोचना को चुप कराने के लिए तैयार नजर आती है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि देश में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता खतरे में है।
दिल्ली की एक स्वतंत्र पत्रकार नेहा दीक्षित का कहना है, "यहां तक कि स्वास्थ्य, भोजन, परिवहन के बुनियादी ढांचे पर तटस्थ रिपोर्टिंग को भी अपराध बताया जा रहा है। महामारी के दौरान न्यूनतम सेवा प्रदान करने में राज्य की विफलता पर किसी भी रिपोर्ट को सहन नहीं किया जा रहा है। देश भर के पत्रकारों पर बराबर हमला हो रहा है। अंतर यह है कि शहरी क्षेत्रों में पत्रकारों पर हमले की सूचना मिलती है; ग्रामीण क्षेत्र के पत्रकारों पर हो रहे हमलों पर ध्यान नहीं दिया जाता है।"
कमेटी टू प्रोटेक्ट्स ऑफ़ जर्नलिस्ट्स इंटरनेशनल प्रेस फ़्रीडम अवार्ड की एक विजेता दीक्षित अब देश में प्रेस के दमन के खिलाफ आवाज़ उठा रही है।
चूंकि सरकार ने मार्च के अंत में भारत के अंदर वाणिज्य और आवाजाही पर रोक लगा दी थीं, कम से कम 10 पत्रकारों को महामारी के कवरेज से संबंधित मामलों के साथ गिरफ्तार या आरोपित किया गया।
विचाराधीन मामले उन विषयों की एक विस्तृत श्रृंखला को कवर करते हैं, जो नौकरशाही की विफलता का संकेत देते हैं - अस्पताल के कर्मचारियों के लिए व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों की कमी से लेकर एक पत्रकार को सिर्फ इस बात के लिए गिरफ्तार करना कि उसने सवाल करने की धृष्टता की थी कि एक कोरोना पॉज़िटिव मरीज के रिश्तेदार को क्यों फोन द्वारा संक्रमित व्यक्ति से बात करने के जुर्म में क्वारंटाइन किया गया था।
उस पत्रकार जुबैर अहमद पर आरोपों की बौछार है। सबसे हास्यास्पद आरोप है: "ऐसी लापरवाही से जीवन के लिए खतरनाक बीमारी के संक्रमण के फैलने की संभावना है।"
आपराधिक आरोपों का सामना करने वाले एक अन्य पत्रकार नीरज शिवहरे को एक महिला के बारे में रिपोर्ट लिखने के लिए फंसाया गया। वह महिला अपने रेफ्रिजरेटर को बेचने के लिए मजबूर हो गई थी, ताकि वह अपने परिवार के लिए रोज़मर्रा की जरूरत की चीजें खरीद सके।
शिवहरे को एक अदालत ने समझाया, "पूरा देश महामारी से निपट रहा है और ऐसी खबर को प्रकाशित करने से जनता में भय का माहौल पैदा हो सकता है। पोस्ट ने प्रशासन की छवि को नुकसान पहुंचाया है।"
ये महज दो उदाहरण हैं। यह संभावना है कि ऐसे कई अन्य मामलों में पत्रकारो का उत्पीड़न किया जा रहा है। इस तरह के कानूनी दबाव ने कई पत्रकारों को संवेदनशील मुद्दों पर रिपोर्टिंग से बचने के लिए प्रेरित किया है। प्रतिस्पर्धी राष्ट्रीय मीडिया आउटलेट में नौकरी करने वाले कुछ गिने चुने पत्रकार ही महत्वपूर्ण रिपोर्टिंग करके अपनी आजीविका या सुरक्षा को जोखिम में डालने के लिए तैयार हैं।
इस बीच, फ्रीलांसरों की व्यक्तिगत सुरक्षा की कमी और सिकुड़ते बजट के कारण बड़े मेट्रोपोलिज़ के बाहर की दुनिया का कवरेज गायब हो रहा है। देश के ग्रामीण हिस्सों से समाचार सामने नहीं आ रहे हैं।
मोदी को इससे आसानी हो रही है। 2014 में सत्ता संभालने के बाद से मोदी और उनकी सरकार ने स्वतंत्र प्रेस को बनाए रखने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है। वास्तव में स्वतंत्र प्रेस का दमन ही उनकी सरकार का लक्ष्य रहा है।
दीक्षित ने कहा कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं करते हैं - जो प्रेस के लिए उनके तिरस्कार का अतिरिक्त सबूत कहा जा सकता है। आधिकारिक जवाबदेही को कम करने के ऐसे प्रयासों के दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं।
"वही रवैया राज्य सरकारों ने अपनाया है जो पत्रकारिता का अपराधीकरण भी कर रही हैं," दीक्षित ने बताया। भारत में हाल के एक अध्ययन से पता चलता है कि मोदी युग में पत्रकारों पर कम से कम 200 गंभीर हमले हुए हैं। उनमें से कम से कम 40 मारे गए। भारत पत्रकारिता के पेशे के लिए दुनिया के सबसे घातक स्थानों में से एक बन गया है।
दीक्षित ने कहा, "अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि पिछले छह वर्षों में मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान सरकार के तहत भारत में अभूतपूर्व रूप से मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ है।" महामारी ने मोदी को पत्रकारों और उनके अधिकारों का उल्लंघन करने के लिए एक नया बहाना प्रदान किया है।
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स और कमेटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स जैसे अनेक संगठन यह मानते हैं कि विश्व भर में सरकारें कोविड-19 की आड़ में पत्रकारों का दमन कर रही हैं। दुनिया भर की अनेक सरकारों को प्रेस की स्वतंत्रता पर शिकंजा कसने का यह आदर्श समय जान पड़ रहा है। पूरा विश्व कोविड-19 के विनाशक स्वरूप को देखकर हतप्रभ है।
राजनीतिक गतिविधियां ठप हैं। धरना-प्रदर्शन आदि पर रोक लगी हुई है। महामारी से उत्पन्न आपात स्थिति के मद्देनजर सरकारों को असीमित शक्तियां प्राप्त हैं। ऐसी अफरातफरी में सरकारों द्वारा पत्रकारों के दमन की कोशिशों पर लोगों का कम ही ध्यान जाएगा। सरकारें इसी का फायदा उठा रही हैं।
कोविड-19 की रोकथाम को आधार बनाकर सरकारें अपनी निगरानी बढ़ा रही हैं। सरकारों द्वारा की जा रही सर्विलांस की यह प्रवृत्ति यदि आगे भी जारी रहती है तो इसका दीर्घकालिक दुष्प्रभाव प्रेस की स्वतंत्रता पर पड़ेगा।
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के अनुसार हमारे देश में निरंतर मीडिया की स्वतंत्रता का हनन हो रहा है। पत्रकार पुलिस की हिंसा के शिकार हो रहे हैं। आपराधिक समूहों या भ्रष्ट स्थानीय अधिकारियों एवं राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं द्वारा उन्हें निशाना बनाया जा रहा है। आरएसएफ की रिपोर्ट दर्शाती है कि भारत में एक विशेष विचारधारा के समर्थक अब राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे सभी विचारों का दमन करने की चेष्टा कर रहे हैं, जो उनके विचारों से भिन्न हैं।
भारत में उन समस्त पत्रकारों के विरुद्ध एक देशव्यापी अभियान चलाया जा रहा है, जो सरकार और राष्ट्र के बीच के अंतर को समझते हुए अपने कर्तव्यों का सम्यक निर्वहन कर रहे हैं। सरकार से असहमति को राजद्रोह माना जाने लगा है। जब महिला पत्रकारों को इस तरह के अभियानों का निशाना बनाया जाता है तो प्रेस की स्वतंत्रता का परिदृश्य और अंधकारमय दिखने लगता है।
आरएसएफ की रिपोर्ट यह साफ तौर पर उल्लेख करती है कि भारत में आपराधिक धाराओं का प्रयोग उन व्यक्तियों विशेषकर पत्रकारों के विरुद्ध किया जा रहा है, जो अधिकारियों की आलोचना कर रहे हैं।