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Motilal Upadhyay Death Anniversary: भोजपुरी के सागर के इस "मोती" ने लंबे समय तक बिताई गुमनाम जिंदगी
Motilal Upadhyay Death Anniversary: आजादी के आंदोलन में फिरंगियों के खिलाफ अपनी कविताओं व रचानाओं के माध्यम से जनजागृति पैदा करने का कार्य किया तो हिंदी सिनेमा से लेकर भोजपुरी सिनेमा तक में सफल गीतकार से लेकर अभिनय की अमिट छाप भी छोड़ी। इसके बाद समय के साथ एक कुशल अध्यापक बनकर समाज को अनेको आदर्श छात्र भी देने का काम किया। भोजपुरी के सागर के उस मोती की बात कर रहा हूं ,जिसे दुनिया मोती बीए के नाम से जानती है। तेरह वर्ष पूर्व 18 जनवरी को आज ही के दिन मोती लाल उपाध्याय उर्फ मोती बीए का देहावसान हो गया। लेकिन उनकी रचनायें व स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी उनकी गाथा ने भोजपुरी को जो व्यापक फलक दिया,इसके लिए भोजपुरी सागर के इस मोती को हमेशा याद किया जाते रहेगा।
देश को आजादी मिलने से पहले ही मोती बीए ने एमए कर लिया था, लेकिन कविता के मंच पर अपनी क्रांतिकारी रचनाओं की वजह से वो तब देश भर में चर्चित हो गए जब उन्होंने बीए किया था और तभी से उनके नाम के आगे बीए ऐसा जुड़ा कि वे हमेशा मोती बीए के नाम से ही जाने गए। वो मोती बीए ही थे, जिन्होंने हिंदी सिनेमा में भोजपूरी की सर्वप्रथम जय जयकार करायी।
भोजपुरी के शेक्सपियर कहलाये ये देवरिया के लाल
हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी और भोजपुरी पर समान अधिकार रखने वाले और भोजपुरी के शेक्सपियर के नाम से याद किये जाने वाले इस गीतकार ने ये दुनिया छोड़ने से पहले लंबी गुमनाम जिंदगी गुजारी। मोती लाल बीए का जन्म उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के बरेजी गांव में 1 अगस्त 1919 को हुआ। बचपन से ही कविता में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी। वे मनपसंद कविताओं को जबानी याद कर लेते थे। फिर उन्होंने खुद कविताएं लिखनी शुरू कर दीं। उनकी पढ़ाई वाराणसी में हुई।
16 साल की उम्र में पहली बार उनकी कविता दैनिक आज में प्रकाशित हुई। जिसके बोल थे बिखरा दो ना अनमोल -अरि सखि घूंघट के पट खोल । जब उन्होंने बीए किया तब तक वे कवि सम्मेलनों में एक गीतकार के रूप में पहचान बना चुके थे। उन्होंने अपने नाम के आगे बीए लगाना शुरू कर दिया। उस समय आजादी की जंग जोरो पर थी। अंग्रेजों के खिलाफ पूरे देश में माहौल बहुत गर्म था। मोती बीए भोजपुरी भाषा में क्रांतिकारी गीत लिख लिखकर लोगों को सुनाया करते थे।
धीरे-धीरे मोती की सक्रियता कलम के सहारे क्रांतिकारी विचारों को गति देने में बढ़ने लगी। सन् 1939 से 1943 तक अग्रगामी संसार तथा आर्यावर्त जैसे प्रमुख समाचार पत्रों में कार्य के दौरान राष्ट्रीय विचारों एवं उससे जुड़े लेखन के चलते कई बार जेल भी जाना पड़ा। 1943 में वे दो महीने की सजा काट कर जेल से रिहा किये गए फिर उन्होंने टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज वाराणसी में दाखिला ले लिया।
इसी दौरान जनवरी 1944 में वाराणसी में हुए एक कवि सम्मेलन में पंचोली आर्ट पिक्चर संस्था के निर्देशक रवि दवे ने उन्हें सुना। मोती का गीत "रूप भार से लदी तू चली" उन्हें बहुत पसंद आया और उन्होंने मोती को फिल्मों में गीत लिखने के लिये निमंत्रण दिया। लेकिन मोती जी अचानक मिले इस निमंत्रण को फौरन स्वीकार नहीं कर पाए और साहित्य रचना में ही जुटे रहे। 1945 में वो फिर गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हें वाराणसी सेंट्रल जेल में भारत रक्षा कानून के तहत नजर बंद कर दिया गया, लेकिन पहले की ही तरह कुछ हफ्तों बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।
मोती जी पत्रकारिता ओर साहित्य से ही जुड़े रहना चाहते थे। फिल्मों में जाना उनकी प्राथमिकता कभी नहीं रही फिर भी जेल से रिहाई के बाद रोजगार के अवसर की तलाश में उन्हें रवि दवे का फिल्मों में गीत लिखने का निमंत्रण फिर याद आया। मोती जी ने लाहौर का रूख किया जहां पंचोली आर्ट पिक्चर संस्था थी। उनकी मुलाकात संस्था के मालिक दलसुख पंचोली से हुई और पंचोली ने उन्हें 300 रूपए महीना वेतन पर गीतकार के रूप में रख लिया।
मोती को गीत लिखने के लिये पहली फिल्म मिली "कैसे कहूं"। इसके संगीतकार थे पंडित अमरनाथ। इस फिल्म में मोती ने पांच गीत लिखे, शेष गीत डी एन मधोक ने लिखे। इसके बाद आयी किशोर साहू निर्देशित और दिलीप कुमार अभिनीत फिल्म नदिया के पार(1948) जिसमें सात गीत मोती बीए ने लिखे। इस फिल्म के गीतों की सारे देश में धूम मच गयी। खासकर इसका एक गीत मोरे राजा हो ले चल नदिया के पार मोती बीए की पहचान बन गया। पहली बार किसी गीतकार ने हिंदी फिल्मों में भोजपुरी को प्रमुखता से स्थान दिया था। नदिया के पार के बाद मोती की व्यस्तताएं बढ़ गयीं। उन्होंने कई फिल्मों में गीत लिखे। उनकी चर्चित फिल्में रहीं सुभद्रा (1946), भक्त ध्रुव(1947), सुरेखा हरण(1947), सिंदूर(1947), साजन(1947), रामबान(1948), राम विवाह(1949), और ममता(1952),। साजन में लिखा उनका एक गीत हमको तुम्हारा है आसरा तुम हमारे हो न हो अपने समय में काफी लोकप्रिय रहा।
मोती बीए को फिल्मों में काम की कमी नहीं थी। उनके लिखे गीतों को शांता आप्टे, शमशाद बेगम, गीता दत्त, लता मंगेशक, मोहम्मद रफी, मन्ना डे, और ललिता देवलकर जैसे गायकों ने स्वर दिये। लेकिन उन्हें एहसास होने लगा था कि मुम्बई की फिल्मी दुनिया में सम्मान की रक्षा के साथ वहां अधिक समय तक टिक पाना संभव नहीं होगा। और एक दिन अचानक उन्होंने फैसला किया वो अपने घर लौट जाएंगे। फिर यही हुआ। 1952 में मुम्बई से लौटकर वे देवरिया के श्रीकृष्ण इंटरमीडियेट कॉलेज में इतिहास के प्रवक्ता के रूप में पढ़ाने लगे।
मुम्बई में रहने के दौरान उनकी अंतिम फिल्म ममता थी। कुछ सालों बाद जब चरित्र अभिनेता नजीर हुसैन, सुजीत कुमार और कुछ दूसरे कलाकारों ने भोजपुरी फिल्मों के निर्माण की गति को तेज किया तो मोती बीए फिर याद किये गए। मोती १ ने कई भोजपूरी फिल्मों ई हमार जनाना (1968), ठकुराइन (1984), गजब भइले रामा (1984), चंपा चमेली (1985), ममता आदि में गीत लिखे। 1984 में प्रदर्शित गजब भइले रामा में उन्होंने अभिनय भी किया। यह आखिरी फिल्म थी, जिससे मोती बीए किसी रूप में जुड़े रहे।
देवरिया में अध्यापन के दौरान मोती साहित्य सृजन में लगे रहे। उन्होंने शेक्सपियर के सानेट्स का हिंदी में सानेट्स की शैली में ही अनुवाद किया। कालीदास के संस्कृत में लिखे मेघदूत का भोजपूरी में अनुवाद किया। इसके अलावा हिंदी में 20 पुस्तकें और उर्दू में शायरी के तीन संग्रह रश्के गुहर, दर्दे गुहर और एक शायर की रचना की। उन्होंने भोजपूरी में भी काव्य रचना की और पांच संग्रह सृजित किये। उनकी करीब चार कृतियां अभी अप्रकाशित हैं।
वरिष्ठ पत्रकार विवेकानंद मिश्र कहते हैं कि अध्यापन से सेवानिवृत्त होने के बाद मोती बीए जैसे गीतकार गुमनामी के अंधेरों में खोते चले गये। मोती बीए को कई सम्मान मिले, लेकिन भोजपुरी के विद्वान के रूप में उनका मूल्यांकन कभी नहीं हुआ। उनके पुत्र भाल चंद्र उपाध्याय उनकी कृतियों को सहेज कर रखने का काम तो करते रहे, लेकिन वे अपने पिता को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिलाने में नाकाम रहे।
शोहरत, सम्मान और अपनी शर्तों पर काम, सब कुछ मोती बीए को मिला लेकिन नौकरशाही ने अंत तक उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा नहीं दिया। हांलाकि इस बात का उल्लेख अनेक स्वतंत्रता सेनानी और साहित्यकार समय-समय पर करते रहे कि मोती बीए को उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों की वजह से कई बार अंग्रेजी शासन ने गिरफ्तार कर जेल भेजा फिर भी उन्हें जेल भेजे जाने का रिकॉर्ड आजाद हिंदुस्तान की नौकरशाही को नहीं मिल पाया। आखिरकार 18 जनवरी 2009 को उन्होंने दुनिया से विदा ले ली।