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सर्वाधिक प्रदूषित बिहार के पर्यावरण संरक्षण को नीतीश ने बताया था उच्च प्राथमिकता, मगर चुनाव में नहीं कोई मुद्दा
महेंद्र पाण्डेय की तल्ख टिप्पणी
जनज्वार। बिहार में चुनावों का दौर चल रहा है, सभी पार्टियों ने अपना घोषणापत्र जारी कर दिया है, पर पर्यावरण की चिंता किसी को नहीं है। अब पार्टियां रोजगार की बात कर रही हैं, कोविड 19 के टीके के वादे कर रही हैं, शिक्षा की बात कर रही हैं, श्रमिकों के पलायन की बात कर रही हैं और कृषि पर भी चर्चा कर रही हैं, पर पर्यावरण की तरफ किसी का ध्यान नहीं है।
पिछले कुछ वर्षों से बिहार के पटना समेत सभी बड़े शहर वायु प्रदूषण की चपेट में आते हैं और बिहार में सांस से सम्बंधित रोग तेजी से बढ़ रहे हैं। नदियों के किनारे दूर दूर तक फैले वैध-अवैध ईंट भट्ठों से दूर तक फैलता धुआं बिहार के अनेक क्षेत्रों की ख़ास पहचान है। नदियों में पानी नहीं रहता, बड़े शहरों के पास की नदियाँ प्रदूषण से ग्रस्त हैं, गंगा समेत तमाम नदियों में वैध खनन की तुलना में कई गुना अधिक अवैध रेत खनन का कारोबार किया जाता है।
नदियों के बीच से रेत के अवैध खनन और शहरों के पास नदियों के किनारे मलबा और कचरा भरने के कारण अनेक नदियों ने अपना मार्ग बदल लिया है। बिहार के कुल भौगोलिक क्षेत्र में से महज 7 प्रतिशत में जंगल हैं। पर, किसी दल के लिए बिहार के पर्यावरण की चर्चा भी बेमानी है।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हरेक दिन लगभग 120 शहरों का एयर क्वालिटी इंडेक्स प्रकाशित करता है, जिसमें बिहार के तीन शहर – पटना, मुजफ्फरपुर और गया - सम्मिलित हैं। 14 से 23 अक्टूबर के बीच पटना का एयर क्वालिटी इंडेक्स तीन दिनों तक और मुजफ्फरनगर का इंडेक्स एक दिन खराब के स्तर पर रहा था।
यह हाल तब है जब सर्दियां ठीक से शुरू भी नहीं हो पाईं हैं, जाहिर है सर्दियों में वायु गुणवत्ता और बिगड़ेगी। पिछले वर्ष नवम्बर-दिसम्बर के महीनों में कई ऐसे दिन थे जब पटना में वायु प्रदूषण का स्तर दिल्ली और कानपुर से भी अधिक था। उन महीनों में पटना समेत बिहार के अनेक शहरों में कोयला, लकड़ी और यहाँ तक कि उपले जलाने पर भी पाबंदी थी।
बिहार स्टेट हेल्थ सोसाइटी के अनुसार बिहार में क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज समेत अन्य श्वसन रोग तेजी से बढ़ रहे हैं। इसके अनुसार वर्ष 2009 में इन रोगों से महज 2 लाख आबादी प्रभावित हुई थी, जिनकी संख्या वर्ष 2018 तक बढ़कर 11 लाख तक पहुँच गई।
बिहार में कुल संक्रामक रोगों में से 32 प्रतिशत मरीज श्वांस संबंधी रोगों से ग्रस्त हैं। बिहार स्टेट हेल्थ सोसाइटी के अनुसार पटना में वर्ष 2018 में बड़े अस्पतालों के आउटपेशेंट विभाग में सांस से सम्बंधित बीमारियों के प्रतिदिन 20 से 30 मरीज आते थे, जबकि अगले वर्ष 2019 में इनकी संख्या बढ़कर 50-60 मरीजों तक पहुँच गई।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जनवरी के महीने में कहा था कि पर्यावरण संरक्षण उनकी उच्च प्राथमिकता है, पर जमीनी स्तर पर इसका असर कहीं नहीं दिखता। पटना में गंगा पर बने दीघा पुल पर यदि आप खड़े हो जाएँ तो पर्यावरण और प्राथमिकता के बारे में किये जाने वाले खोखले दावे समझ में आते हैं। इस पुल से गंगा में रेट के अवैध खनन का कारोबार दूर-दूर तक नजर आता है।
अवैध कारोबार इस कदर हावी है कि नदी के किनारे की रेट का ही खनन नहीं किया जाता, बल्कि नदी के पानी के नीचे से भी खुले आम रेट निकाली जाती है। नदी के ठीक किनारे, गंगा के डूब क्षेत्र में ही बहुत सारे स्थाई और अस्थाई निर्माण कार्य और इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के विशालकाय भण्डार और वर्कशॉप बनाए गए हैं। इस पुल को पार कर सोनपुर में गंडक नदी के किनारे दूर-दूर तक फैले धुवां उगलते ईंट भट्ठे हैं।
पटना से भागलपुर सड़क मार्ग से जाने पर भी मोकामा के बाद गंगा के डूबक्षेत्र में सिलसिलेवार ढंग से ईंट भट्ठे स्थापित किये गए हैं, जो डूब क्षेत्र से ही मिट्टी का खनन करते हैं। पटना और भागलपुर में गंगा के किनारे शहर का कचरा तो इकट्ठा किया ही जाता है, शहर के निर्माण कार्यों से निकला मलबा भी डाला जाता है। कचरा इकठा कर उसमें आग लगाने का काम भी शहरी निकाय के कर्मचारी ही करते हैं।
नीतीश कुमार ने पर्यावरण संरक्षण से सम्बंधित जागरूकता के लिए "जल जीवन हरियाली" योजना को शुरू किया है, जिसके लिए अगले तीन वर्षों के लिए 24524 करोड़ रुपये स्वीकृत किये गए हैं। इसके तहत पूरे राज्य में 8 करोड़ पौधों को लगाने की योजना भी है। पटना में गंगा किनारे अनेक स्थानों पर पौधारोपण के चिह्न मिलते हैं, पर अधिकतर पौधे मर चुके हैं, और इनके चारों तरफ लगाईं गई जाली भी गायब हो चुकी है। अब हालत यह है कि अधिकतर शहरों में पहले से भी जो बृक्ष थे, उनमें से अधिकतर इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स के नाम पर काटे जा रहे हैं, और इनके बदले नए बृक्ष केवल सरकारी फाईलों में पनप रहे हैं।
नीतीश कुमार शायद अकेले राजनेता होंगे जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को स्वीकार करते हैं। जनवरी में उन्होंने कहा था, अब जलवायु परिवर्तन का प्रभाव स्पष्ट हो रहा है, पहले बिहार में औसत वार्षिक वर्षा 1200 से 1500 मिलिमीटर होती थी, पर पिछले 30 वर्षों के दौरान यह औसत 1027 मिलीमीटर पहुँच गया है और पिछले 13 वर्षों का औसत तो महज 900 मिलीमीटर रह गया है। आश्चर्य यह है कि इतना बताने के बाद भी और पर्यावरण संरक्षण के प्राथमिकता बताने के बाद भी चुनाव के दौरान उनके भाषणों से पर्यावरण और प्रदूषण गायब है।
बीजेपी तो अदृश्य चीजों का प्रचार अधिक करती है। कोविड 19 का टीका जो आया नहीं है, और किसी को नहीं पता कि कब आएगा – उसके मुफ्त बाटने का ऐलान सबसे पहले कर दिया गया। जाहिर है, ऐसी पार्टी से पर्यावरण संरक्षण जैसे गंभीर मुद्दे की उम्मीद भी बेमानी है। चिराग पासवान को यही नहीं स्पष्ट है कि वो मोदी जी के लिए वोट मांग रहे हैं या फिर अपनी लोक जनशक्ति पार्टी के लिए। तेजस्वी यादव ने जरूर इस बार अनेक गंभीर मुद्दे उठाये हैं, पर इन गंभीर मुद्दों में भी पर्यावरण नहीं है।
आश्चर्य यह है कि पर्यावरण हमारे जीवन के हरेक पहलू को प्रभावित करता है, पूरी आबादी को प्रभावित करता है – फिर भी दिल्ली को छोड़कर पूरे देश में किसी भी राजनीतिक दल के चुनावी घोषणापत्र में शामिल नहीं होता और न ही जनता इसके लिए कभी आवाज बुलंद करती है।