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विशेष लेख : लुप्तप्राय हो रहे बाघों के लिए अस्तित्व बरकरार रखने का मौका है तो केवल भारत में
file photo
बाघों और पर्यावरण के जानकार वरिष्ठ पत्रकार अभिलाष खांडेकर की विशेष टिप्पणी
क्या आप भारत में किसी बाघ अभयारण्य या विशाल हरे-भरे जंगल का मौद्रिक मूल्य तय किए जाने के बारे में सोच सकते हैं? और यदि ऐसा किया जाता है तो इसका क्या फायदा होगा? अब ऐसे सवालों के जवाब मिल रहे हैं। जी हां, देश के 50 टाइगर रिजर्व को एक प्राइज टैग मिलने जा रहा है, जिसके बारे में वन प्रेमियों और वन्य जीवन से जुड़े लोगों ने भी शायद ही कभी सोचा हो।
2 साल पहले अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक दस्तावेज जारी किया था। यह दस्तावेज एक ऐसे प्रकल्प के बारे में था, जिसके तहत 10 टाइगर रिजर्व की आर्थिक महत्ता का आकलन किया गया था और जो ग्लोबल टाइगर फोरम और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) द्वारा समर्थित था। इस तरह के मूल्यांकन की जटिल और लंबी प्रक्रिया बाकी बाघ अभयारण्यों के लिए भी जारी रहने की संभावना है। कारोबार या बैंकिंग संबंधी बातचीत में तो आप किसी कंपनी में पूंजी निवेश, उसकी विनिर्माण क्षमताओं, उत्पाद रेंज, मार्केट कैप, ब्रांडिंग इत्यादि के आधार पर उसकी कीमत की गणना के बारे में सुनते हैं, लेकिन टाइगर रिजर्व के लिए ऐसा कुछ होना अब तक लगभग अनसुना ही था।
शोधकर्ताओं ने स्टॉक व फ्लो फ्रेमवर्क के रूप में पारिस्थितिकी सेवाओं के लिए ओडिशा में स्थित सिमलीपाल बाघ अभयारण्य का मूल्य 16030.11 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष आंका, महाराष्ट्र के मेलघाट में स्थित अभयारण्य के लिए 12349.36 करोड़ रुपये का प्राइज टैग तय किया और मप्र के पन्ना टाइगर रिजर्व का मूल्य 6, 954, 56 करोड़ रुपये आंका गया। ये उन दस टाईगर रिजर्व का भाग थे जिनका अध्ययन किया गया।
इस अध्ययन की प्रमुख प्रोफेसर मधु वर्मा (जो फिलहाल दिल्ली स्थित वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट में बतौर मुख्य अर्थशास्त्री कार्यरत हैं), के अनुसार इनका प्रवाह मूल्य जंगल से प्रवाहित होने वाले वास्तविक फायदों का मूल्य है, जबकि स्टॉक वैल्यू संभावित आपूर्ति से संबंधित है। उन्होंने बताया कि स्टॉक वैल्यू में टाइगर रिजर्व में खड़ी लकड़ी और भंडारित कार्बन शामिल हैं, जबकि कार्बन अधिग्रहण, रोजगार सृजन, पानी की व्यवस्था और मृदा संरक्षण इत्यादि समेत अन्य सेवाएं प्रवाह मूल्य से संबंधित हैं।
अर्थशास्त्रियों और बाघ विशेषज्ञों की टीम द्वारा पहले चरण में अपेक्षाकृत छोटी कवायद के तहत छह बाघ अभयारण्यों कान्हा, कॉर्बेट, काजीरंगा, पेरियार, रणथंबौर और सुंदरवन का आर्थिक मूल्यांकन किया गया था। दूसरा चरण ज्यादा विस्तृत रहा, जिसमें कहीं बेहतर गणितीय मॉडल के इस्तेमाल के साथ 10 टाइगर रिजर्व का मूल्यांकन किया गया। ये 10 टाइगर रिजर्व हैं : अन्नामलाई (तमिलनाडु), बांदीपुर (कर्नाटक), दुधवा (यूपी), मेलघाट (महाराष्ट्र), नागार्जुनसागर (आंध्र), पलामू (झारखंड), पक्के (अरुणाचल), पन्ना (मध्यप्रदेश), सिमलीपाल (ओडिशा) और वाल्मीकि (बिहार)।
जाहिर तौर पर अभयारण्यों को मिले ये टैग साबित करते हैं कि एक विशेष अभयारण्य का मूल्य कितना है, जहां आम लोग पर्यटन मनोरंजन के लिए और संरक्षणविद नाना प्रकार की प्रजातियों की जैव विविधता के अध्ययन के अलावा जंगलों के स्वास्थ्य के बारे में जानने के लिए जाते हैं।
गौरतलब है कि बाघ खाद्य श्रृंखला के शीर्ष पर बैठी एक प्रमुख प्रजाति है। दुनिया भर के बाघ विशेषज्ञों का मानना है कि इस लुप्तप्राय पशु के लिए यदि कहीं अपना अस्तित्व बरकरार रखने का मौका है तो केवल भारत में, जहां पिछले तीन दशकों में बाघ संरक्षण के असाधारण उपायों ने विभिन्न मापदंडों पर उल्लेखनीय सफलताएं दर्शाई हैं। इस दौरान बाघ संरक्षण की तकनीकों में सुधार के साथ नए-नए विचारों को भी अपनाया गया है। बाघ अभयारण्यों की आर्थिक महत्ता का आकलन ऐसा ही एक नया विचार है।
जब 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर लॉन्च किया गया था, तो देश भर में वन्य क्षेत्रों के केवल नौ बड़े हिस्से को संरक्षित बाघ अभयारण्य घोषित किया गया था। अब इनकी संख्या बढ़कर 50 तक पहुंच चुकी है। इनमें अलग-अलग जानवरों की संख्या भी काफी हद तक बढ़ गई है और साथ ही संरक्षित क्षेत्र में विशाल जंगल भी।
फिर भी लोग अक्सर पूछते हैं : बाघों को क्यों बचाएं। उनके रहवासों की रक्षा क्यों करें। एक ऐसे युग में, जहां आर्थिक सोच हावी हो, वहां पर निश्चित ही यह एक अच्छा विचार है कि अपने किसी विषय को आर्थिक लेबल लगाकर पेश किया जाए। इस तरह अर्थशास्त्रियों ने हमारे बेशकीमती वनों और उनमें रहने वाले प्राणियों को बचाने के लिए एक ठोस तर्क दिया है। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया के सीईओ रवि सिंह कहते हैं कि अभयारण्यों का आर्थिक मूल्यांकन वन्यजीव संरक्षण के प्रयासों को एक नया आयाम प्रदान करता है। ये निश्चित रूप से किसी न किसी तरीके से संरक्षण अभियान में भी मददगार साबित होगा।
बाघ अभयारण्यों के आर्थिक मूल्यांकन से पहले सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर देश के कुछ बड़े वन्य इलाकों का भी मूल्यांकन जा चुका है। दरअसल शीर्ष अदालत संरक्षित वन भूमि के उद्योगों, सड़क निर्माण या रेलवे इत्यादि के उपयोग के लिए परिवर्तन से पहले इनके अनुमानित आर्थिक मूल्य को जानने में रुचि रखती थी, खासकर तब जबकि पर्यावरण प्रेमियों की लॉबी गैर-वन उपयोग के लिए इस तरह के परिवर्तन के विरोध में जमकर खड़ी हो।
प्रो वर्मा बाघ अभयारण्यों के मूल्यांकन की इस प्रक्रिया का श्रेय राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के तत्कालीन प्रमुख और अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त बाघ विशेषज्ञ डॉ राजेश गोपाल को देती हैं।
शोधकर्ताओं की एक टीम ने इन बाघ अभयारण्यों में जाकर वहां की प्राकृतिक जल शोधन प्रक्रिया, तलछट प्रतिधारण जीन पूल संरक्षण, परागण इकट्ठा करने की क्षमता, सांस्कृतिक विरासत आदि को देखा और इस तरह प्रकृति के कार्यों और प्रक्रिया के विश्लेषण तथा गणितीय मॉडल का उपयोग करते हुए प्रत्येक बाघ अभयारण्य का आर्थिक मूल्यांकन किया।
(वरिष्ठ पत्रकार और संपादक अभिलाष खांडेकर दैनिक भास्कर के संपादक रह चुके हैं। वह पिछले तीन दशकों से बाघों का अध्ययन कर रहे हैं।)