लखनउ विश्वविद्यालय में कलाकरों ने किया खेती पर हो रहे काॅरपोरेट हमले का सही चित्रण
लखनऊ से सृजनयोगी आदियोग की रिपोर्ट
छोटा सा खेत है। खेत की घेराबंदी है। उसके दोनों छोर पर एक-दूसरे को क्रास करते यानी एक-दूसरे को मज़बूती देते स्तंभ हैं, बांस के। इन्हें लोकतंत्र के चार पाये कहिये। चारों स्तंभों के बीच सीधा जुड़ाव है। इसका प्रतीक है स्तंभों के जोड़ पर टिका बांस का आधार जिसने खेत को छेक रखा है। इस आधार पर बैठे हैं हरियाली की चादर होते खेत पर आंख गड़ाये, जौ के अंकुरित होते बीजों की टोह लेते कव्वे। दूर से ही खेत की पहचान बतानेवाले और ना जाने कब से फ़सल की रक्षा करते रहे ध्वाख उर्फ़ धोख उर्फ़ बिजूका उर्फ़ काकतड़ुवा खेत से गायब हैं। उन्हें पेड़ से लटका कर यहां वहां सूली पर चढ़ा दिया गया है।
यह इंस्टालेशन (स्थापन) लखनऊ विश्वविद्यालय के ललित कला संकाय (जो कला महाविद्यालय के नाम से जाना जाता है) के परिसर में लगा। यह पहली बार हुआ कि इंस्टालेशन में जीव का इस्तेमाल हुआ। कोई दस दिन की निर्माण प्रक्रिया के बाद 23 दिसंबर को इसका उद्घाटन हुआ। इस अनूठी रचना का उद्घाटन भी अनूठे तरीक़े से हुआ। अतिथियों ने चुनी हुई लकड़ियों के ढेर को आग देकर स्थापन प्रस्तुति का उद्घाटन किया। यह एकजुटता का संदेश है कि कृषि विरोधी क़ानूनों के विरोध में पूरे देश में लगी आग से कला की दुनिया भी अछूती नहीं हैं, अछूती रह भी नहीं सकती।
उद्घाटन से ठीक पहले कार्यक्रम के अतिथि और प्रगतिशील धारा से जुड़े चर्चित संगीत शिक्षक आशूकांति सिन्हा ने बांसुरी पर लोकधुन की स्वर लहरी बिखेरी। कहा कि किसान दिल्ली सीमा पर बहादुरी के साथ डटे हुए हैं, अपना वाजिब अधिकार मांग रहे हैं। उनके पक्ष में सभी को खड़ा होना चाहिए। कला-संस्कृति के क्षेत्र से ऐसी आवाज़ बड़े पैमाने पर उठनी चाहिए।
मनकामेश्वर मंदिर की श्रीमहंत देव्यागिरी ने कहा कि बहुत कम संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए बहुत कुछ कहा गया है। किसान समाज की रीढ़ है। उसकी पीड़ा को चित्रित किया जाना कलाकारों का धर्म है। इंडियन वर्कर्स कौंसिल के रामकृष्ण ने कहा कि मनुष्य ने हज़ारों सालों में बीज उगाना, बसना, परिवार और समाज बनाना सीखा। मेहनतकशों ने मनुष्य जाति को पाला-पोसा। लेकिन जैसे जैसे औद्योगिकीकरण और राज्य का विकास हुआ, वैसे वैसे मेहनतकशों को किनारे लगाया जाता रहा। कव्वों का मंडराना न केवल खेती पर बल्कि मनुष्यता पर भी उतना ही बड़ा हमला है। आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के दिनकर कपूर ने कहा कि देश की 70 फ़ीसदी आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खेती पर निर्भर है। खेती के तीनों नये क़ानून उसकी रीढ़ तोड़ने के लिए हैं। इससे भीषण मंहगाई आयेगी। सोनभद्र में किसान सात रूपये किलो मक्का बेचता है और लखनऊ की बड़ी दूकानों पर मक्के का आटा डेढ़ सौ किलो बिकता है। तय मानिये कि भारत जैसे देश में किसानी का टूटना, देश का टूटना होगा। और इसीलिए किसान आंदोलन को देश बचाने के आंदोलन के तौर पर देखा जाना चाहिए।
बिना शीर्षक की यह अद्भुत रचना खेती-किसानी पर कारपोरेटी हमले का दृश्यांकन है जो दर्शकों को दुख और सदमे से गुज़ारते हुए आक्रोश की ओर ले जाती है। इसकी परिकल्पना जन संस्कृति के पैरोकार और अनूठे कला गुरू प्रोफ़ेसर धर्मेंद्र कुमार ने की और उसे साकार किये जाने की कमान संभाली एमएफ़ए के अंतिम वर्ष के दो छात्रों- सुनील कुमार और विशाल गुप्ता ने। उनके सहयोगी बने बीएफ़ए कर रहे अभिनव कुमार, निहारिका सिंह और जयनारायण शाक्य।
सुनील सीतापुर ज़िले के मामूली खेतिहर परिवार से हैं। कहते हैं- खेती और फ़सलों पर कव्वे मंडरा रहे हैं। यहां कव्वे दुष्ट और चालाक हैं, लालची और कपटी हैं, अशुभ हैं, और वे मुनाफ़ाखोर कंपनियां हैं। इस सवाल पर कि आख़िर ऐसा विषय क्यों चुना गया, खेती से कोसों दूर लखनऊ शहर के विशाल का जवाब है- यह तो हरेक का विषय है, उसे सभी को उठाना चाहिए। हम ज़िंदा हैं तो अन्नदाता के कारण। अन्नदाता तबाह होगा तो हम भी कहां बचेंगे।
इस मौक़े पर कला महाविद्यालय के तीन पूर्व छात्रों ने भी अपनी राय रखी। पुष्पेंद्र श्रीवास्तव ने कहा कि खेत किसान के लेकिन अनाज के वाजिब दाम पर उसकी दावेदारी नहीं। और अब उसके खेत को हड़पने की तैयारी है। कला समाज का दर्पण होता है। उसे विपक्ष की भूमिका निभानी चाहिए। जो गलत है उसे गलत कहने का कलाकारों में साहस होना चाहिए। अवधेश गुप्ता ने कहा कि किसान अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। कलाकारों को भी अपनी तरह से उनके संघर्ष का समर्थन करना चाहिए। मिलन कुमार ने कहा कि कव्वे किसान की मेहनत हड़प जाने के फ़िराक़ में हैं। काश कि किसान आंदोलन का शोर इतना गूंजे कि कव्वे भाग खड़े हों और कव्वों को बुलानेवाले ऐसी गलती दोबारा करने के लायक़ न रहें।
कलाएं आसमान से नहीं टपकीं। कलाएं समाज में और सामाजिक जरूरतों की कोख से पैदा हुईं। सामाजिकता के आंगन में पली-बढ़ीं और विभिन्न कालखंडों में तत्कालीन परिस्थितियों और उसकी चुनौतियों से दोचार होते हुए अपना रूप, अंदाज़ और तकनीक भी बदलती गयीं। मतलब साफ़ है कि देश-दुनिया और समाज की हलचलों से निरपेक्षता या उदासीनता कलाओं का मिजाज़ नहीं। इस स्वभाव से विरत होना किसी भी कला के बेजान और निरर्थक हो जाने और क्रमशः विलुप्त हो जाने या संग्रहालय की वस्तु हो जाने का घोषणापत्र हुआ करता है। इसे उलट कर कहें तो जीवन और समाज के साथ जुगलबंदी से ही किसी कला की सार्थकता और जीवंतता सिद्ध होती है, और इसी क्रम में उसकी जन स्वीकार्यता तय होती है। यह शुभ लक्षण है कि इस समझ के निर्देशन में इंस्टालेशन ने आकार लिया।
प्रोफ़ेसर धर्मेंद्र कुमार: विलक्षणता और सहजता का मेल
इंस्टालेशन कोई ढाई दशक से विकसित हो रही और अपना व्याकरण गढ़ रही कला की ताज़ातरीन विधा है और उसमें दूसरी कलाओं के मुक़ाबले अभिव्यक्ति के विस्तार की असीमित संभावना है। दुनिया के स्तर पर देखें तो इंस्टालेशन में हुआ अधिकतर काम अमूमन सजावटी और चौंकाऊ रहा है, सरोकारों से लगभग मुक्त और संयोजन के कमाल तक सीमित रहा है।
प्रोफ़ेसर धर्मेंद्र कुमार जन सरोकारों के साथ नये प्रयोगों के लिए जाने जाते हैं। वह आम लोगों की समझ के मुताबिक़ बिंब और प्रतीक चुनते हैं। यही गुण उनके काम को सहज और सरल बनाता है। लखनऊ विश्वविद्यालय में ही कोई पच्चीस बरस पहले उन्होंने स्त्री मुक्ति के सवाल पर और फिर महाविद्यालय में 'फ़ासिस्ट गैलरी' शीर्षक यादगार इंस्टालेशन किया था। इंस्टालेशन पर उनके काम की लंबी सूची है- शंकरगढ़ (इलाहाबाद) में खान मज़दूरों, देवा (बाराबंकी) में अति दलित महिलाओं के संघर्ष को समर्थन देती रचनाएं। कारगिल जंग के दौरान उन्होंने विधानसभा के सामने तीन दिवसीय कैंप लगा कर युद्ध विरोधी इंस्टालेशन को आकार दिया जिसका सूत्र वाक्य था- देश सरहदों से नहीं, लोगों से मज़बूत बनता है। अरसे बाद उसी धरना स्थल पर रिहाई मंच के कोई तीन माह चले ऐतिहासिक धरने के दौरान उन्होंने सत्ता की बर्बरता पर फ़ोकस इंस्टालेशन की रचना की। नागरिकता क़ानून के विरोध में लखनऊ के घंटाघर पर चले महिलाओं के प्रदर्शन के दौरान भी वह अपने इंस्टालेशन के साथ शामिल हुए।
इंस्टालेशन शब्द में ही स्थिरता का बोध है। लेकिन गोविंद पंसारे, नरेंद्र दाभोलकर और गौरी लंकेश की हत्या के बाद लखनऊ में निकले विरोध जुलूस में उनका मूविंग इंस्टालेशन भी शामिल हुआ। प्रसंगवश, वर्धा विश्वविद्यालय में उन्होंने कबीर, गांधी और भगत सिंह के नाम पर तीन पहाड़ियों की भी सजधज की, हालांकि उनका यह काम इंस्टालेशन की श्रेणी में नहीं आता।
कानपुर में भी इंस्टालेशन
कोई नया प्रयोग देखादेखी भी आगे बढ़ता है। प्रोफ़ेसर धर्मेंद्र कुमार के शिष्य रहे कला महाविद्यालय के पूर्व छात्र अजय कुमार कानपुर स्थित छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय के ललित कला विभाग में शिक्षक हैं। कला महाविद्यालय में तैयार किये जा रहे इंस्टालेशन की ख़बर उन तक भी कि उन्होंने भी अपने विभाग के छात्र-छात्राओं के साथ किसान दिवस पर अपना इंस्टालेशन पूरा किया। इस रचना में छोटे से खेत में बड़ा सा हल है और उस पर धान की बालियां लटकी हैं गोया उन्हें फांसी दी गयी हो। खेत के बीचोबीच जालीदार रूकावट है और एक किनारे पर सत्ता के गुंबद।