Begin typing your search above and press return to search.
आजीविका

चमोली हादसा कुरेद गया UP के मजदूरों का पलायन का जख्म, बेहतर जिंदगी की तलाश ले गयी मौत के मुहाने पर

Janjwar Desk
11 Feb 2021 8:12 PM IST
चमोली हादसा कुरेद गया UP के मजदूरों का पलायन का जख्म, बेहतर जिंदगी   की तलाश ले गयी मौत के मुहाने पर
x
जिन मजदूरों के खून-पसीने से करोड़ों रुपये की बिजली परियोजनाएं बनती हैं, जिनके दम पर शहर और कारखाने रोशन होते हैं, उनकी मौत पर परिजनों की मदद के लिए कुछ लाख रूपये ही क्यों? क्या मौजूदा सरकारों की नजर में एक मजदूर के जिंदगी का इतना ही मोल है...

लखीमपुर-खीरी से ऋषि कुमार सिंह की ग्राउंड रिपोर्ट

जनज्वार। उत्तराखंड के चमोली में ग्लेशियर टूटने से आई आपदा अपने पीछे तबाही के निशान के साथ-साथ कई अहम सवाल छोड़ गई है. इसमें पर्यावरण के साथ इंसानी विकास के बिगड़ते रिश्ते से लेकर मजदूरों के पलायन और सामाजिक असुरक्षा के सवाल शामिल हैं. चमोली हादसे में तपोवन विष्णुगढ़ पॉवर प्रोजेक्ट और ऋषि गंगा पॉवर प्रोजेक्ट में काम करने वाले 190 से ज्यादा लोग चपेट में आए हैं. उत्तराखंड के पुलिस महानिदेशक अशोक कुमार ने कहा कि लापता और मृतकों की सटीक संख्या अभी नहीं बताई जा सकती है, लेकिन यह आंकड़ा 192 से 204 के बीच हो सकता है. उनके मुताबिक, अब तक 32 शव निकाले गए हैं, जिनमें आठ की ही पहचान हो पाई है. इसके अलावा तपोवन टनल में फंसे मजदूरों को बाहर निकालने का काम चल रहा है.

लखीमपुर खीरी के सबसे ज्यादा मजदूर लापता

चमोली हादसे के बाद लापता लोगों में उत्तर प्रदेश के मजदूरों की संख्या सबसे ज्यादा है. यहां की निघासन तहसील के इच्छा नगर, भैरमपुर, बाबू पुरवा, तिकोनिया, मिर्जापुर और सिंगाही गांवों में बीते चार दिनों से कोहराम मचा हुआ है. जिला कंट्रोल रूम के मुताबिक, अब तक 34 लोगों के लापता होने और एक शव मिलने की जानकारी सामने आई है. बाबूपुरवा गांव के पांच लोग लापता हैं. इनमें से चार लोग थारू जनजाति से आते हैं. वहीं, इच्छानगर के एक ही परिवार के छह लोग गायब हैं. इनमें से अवधेश पुत्र लालता का शव मिल चुका है. लापता लोगों में श्रीकृष्ण और उनका बेटा राजू गुप्ता भी शामिल हैं. राजू गुप्ता की दो महीने बाद शादी होने वाली थी.

राजू की मां कौशल्या का रो-रोकर बुरा हाल है. रोजगार के लिए इतनी दूर जाने की वजह पूछने पर कौशल्या ने सिसकते हुए बताया, 'घर में शादी थी तो बाप-बेटा दोनों ने सोचे कि चलो कुछ पैसा कमा लाते हैं, इसलिए तपोवन काम करने चले गए.' वहां पर मजदूरी के बारे में उन्होंने कहा, 'बेटे राजू को हर महीने 18 हजार रुपये और उसके पिता को 16 हजार रुपये मिलते थे.' अब अगर इस मजदूरी की मनरेगा या स्थानीय मजदूरी से तुलना करें तो पलायन की एक बड़ी वजह साफ नजर आने लगती है.

रोजी-रोटी और बेहतर जिंदगी की तलाश में मौत के मुहाने पर करते रहे काम, अब बेहाल हैं मरने वालों के परिजन (photo : janjwar)

सीमित रोजगार और कम मजदूरी के चलते पलायन

परिवारों की आर्थिक तंगी और स्थानीय स्तर पर रोजगार की कमी इस इलाके से पलायन को बढ़ा रही है. बाबूपुरवा गांव के लापता मजदूर सूरज की मां बिट्टी देवी बताती हैं कि 10 लोगों का परिवार है, जमीन सिर्फ तीन बीघा है, इसलिए गुजारा करने के लिए बाहर जाना पड़ता है. लगभग यही बात इच्छानगर के पीड़ित परिवारों ने बताई. लापता मजदूरों के परिजन बृज किशोर ने बताया कि लोगों के पास एक-डेढ़ बीघे जमीन है, वह भी जंगल के किनारे, जिसमें कभी अगर फसल जंगली जानवरों से बच जाती है तो ही कुछ हाथ में आता है.

मनरेगा में कितना काम मिलता है, इस सवाल पर बृज किशोर ने कहा, 'कभी काम मिलता है और कभी नहीं मिलता, जबकि बाहर ज्यादा मजदूरी मिलती है, इसलिए लोग बाहर चले जाते हैं.' बाबूपुरवा में सूरज की मां का भी यही कहना है. उन्होंने बताया कि लॉकडाउन के दौरान चार-पांच महीने मनरेगा में काम मिला था, लेकिन उतने से घर चल पाना मुश्किल था. चमोली हादसे के बाद लापता इच्छानगर गांव के इरशाद के परिवार का हाल भी ऐसा ही है. पांच भाइयों पर सिर्फ पांच बीघा जमीन है, वह भी नदी के पार, जिसमें कभी फसल होती है और कभी नहीं होती है. उनके छोटे भाई मेहशाद ने बताया कि इरशाद पांच भाइयों में चौथे नंबर पर थे, वे तपोवन में वेल्डर का काम करते थे, और छह महीने से घर नहीं आए थे, उनकी भी शादी होने वाली थी.

लखीमपुर-खीरी से बड़ी संख्या में मजदूर गये थे परियोजना में काम करने, उनके परिजनों का है बुरा हाल (photo : janjwar)

मजदूरों के बड़ी संख्या में उत्तराखंड जाने की वजह?

इस सवाल का जवाब भैडोरी के ग्राम प्रधान प्रतिनिधि ध्रुव वर्मा ने दिया. उन्होंने बताया, 'मनरेगा में एक दिन की मजदूरी 201 रुपये है, जबकि स्थानीय स्तर पर दूसरे काम में दिहाड़ी 200-250 रुपये के बीच है, लेकिन उत्तराखंड की इन परियोजनाओं में काम करने पर मजदूरों को 500 रुपये रोजाना मिल जाते हैं, जिसमें ओवर टाइम जोड़कर अच्छी खासी मजदूरी बन जाती है, इसलिए लोग टोली बनाकर वहां जाते हैं.'

उन्होंने यह भी दावा किया कि बाबूपुरवा के मजदूर परिवारों को लॉकडाउन के दौरान लगभग 100 दिन का रोजगार मिला है. हालांकि, इससे जुड़ा दस्तावेज दिखाने के सवाल पर बहाने बनाते नजर आए. स्थानीय बेलरायां सहकारी चीनी मिल में मजदूरों को रोजगार मिलने के सवाल पर ध्रुव वर्मा ने कहा कि मिल में मजदूरों को काम मिलता है, लेकिन मजदूरी 170-180 रुपये होती है, इसलिए आसपास के मजदूर वहां जाने से बचते हैं.

100 दिन की गारंटी में 23 दिन का रोजगार

मनरेगा योजना एक मजदूर परिवार को 100 दिन के रोजगार की गारंटी देती है. लेकिन उत्तर प्रदेश के आंकड़े बताते हैं कि मजदूरों के लिए पूरे 100 दिन का रोजगार दूर की कौड़ी है. केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश में वर्ष 2020-21 में मनरेगा मजदूरों को 33.53 करोड़ दिन का रोजगार दिया गया. इसे प्रदेश के 1.46 करोड़ सक्रिय मजदूरों की संख्या से भाग देने पर पता चलता है कि एक मजदूर को मनरेगा के तहत औसतन 23 दिन का ही काम मिला है.

23 दिन का यह औसत तब आया है, जब मनरेगा के तहत रजिस्ट्रेशन कराने वाले मजदूरों में सिर्फ 48 फीसदी मजदूर ही सक्रिय हैं. समस्या सिर्फ कम दिन रोजगार मिलने की नहीं है, बल्कि मनरेगा मजदूरी का सामान्य मजदूरी से भी कम होना है. अगर किसी मजदूर को साल में 100 दिन का रोजगार मिल भी जाए तो उसके लिए बाकी के 265 दिन परिवार चलाना संभव नहीं है. खास तौर पर भूमिहीन या छोटी जोत वाले जो भी परिवार हैं, उनके पास दूसरे राज्यों या बड़े शहरों को पलायन करने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचता है.

यूपी में श्रमिक कल्याण आयोग जमीन पर कितना उतरा

बीते साल मार्च में कोरोना महामारी से बचने के लिए लॉकडाउन लगाया गया तो रातोंरात लाखों मजदूरों को असहाय होकर घर लौटना पड़ा. तब उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने दूसरे राज्यों पर उत्तर प्रदेश के मजदूरों का ख्याल न रखने का आरोप लगाया था. इसके साथ सरकार ने प्रदेश से मजदूरों के पलायन की समस्या खत्म करने के लिए 'माइग्रेशन कमीशन' बनाने का ऐलान किया. यह भी कहा था कि अब किसी दूसरे राज्य को यूपी से मजदूरों को बुलाने के लिए सरकार की इजाजत लेनी पड़ेगी. लेकिन ऐसी कोई बात न तो लखीमपुर में और न ही दूसरे जिलों में नजर आती है. प्रवासी मजदूर जितनी तेजी से प्रदेश में आए थे, लॉकडाउन हटने के बाद उतनी ही तेजी से बाहर चले गए. हालांकि, जून में सरकार ने जब आयोग बनाया तो इसका नाम बदलकर कामगार श्रमिक (सेवायोजन एवं रोजगार) आयोग कर दिया.

कब लौटेगा मेरा लाल: इन माताओं की आंखें यही सवाल कर रही हैं हर आने-जाने वाले से (photo : janjwar)

16 जून 2020 के शासनादेश के मुताबिक मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में बने इस आयोग का उद्देश्य सरकारी और गैर-सरकारी क्षेत्र में अधिकाधिक नौकरी और रोजगार के अवसर पैदा करना है, ताकि प्रदेश के प्रवासी और निवासी मजदूरों को उनकी क्षमता के अनुरूप नौकरी और रोजगार मिल सके. इस आयोग में श्रम एवं सेवायोजन मंत्री को संयोजक, औद्योगिक विकास मंत्री और सूक्ष्म-लघु उद्योग विभाग मंत्री को उपाध्यक्ष बनाया गया है. इसके अलावा कृषि, ग्रामीण, पंचायती राज और नगर विकास मंत्री को सदस्य बनाया गया है. अवस्थापना और ओद्योगिक विकास आयुक्त इसके सदस्य सचिव है. इस आयोग के साथ एक कार्यकारी परिषद और एक जिलास्तरीय समिति भी बनाई गई है. जिलाधिकारी को इस समिति का अध्यक्ष और जिला रोजगार सहायता अधिकारी को नोडल अधिकारी बनाया गया है.

मजदूरों को जिले में रोजगार देने का दावा

शासनादेश के मुताबिक, जिलास्तरीय समिति की हर हफ्ते कम से कम एक बैठक होनी थी. इस बारे में लखीमपुर खीरी के जिला रोजगार सहायता अधिकारी रत्नेश त्रिपाठी ने बताया कि अब तक इस जिलास्तीय समिति की 12 बैठकें हो चुकी हैं. उन्होंने बताया कि आयोग से मिले निर्देशों के आधार पर जिले में 9,735 प्रवासी मजदूरों को रोजगार और 305 लोगों को स्वरोजगार दिया गया है.

आयोग बनने के पहले और बाद में आए फर्क के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि अब रोजगार दिलाने का काम ज्यादा संगठित तरीके से होता है. हालांकि, वे यह नहीं बता पाए कि जिले में कितने प्रवासी श्रमिक अभी मौजूद हैं और कितने लॉकडाउन खत्म होने के बाद वापस चले गए, जबकि मजदूरों की स्किल मैपिंग करना और उसके आंकड़ा रखना जिलास्तरीय समिति की जिम्मेदारियों में शामिल है.

अगर जिले में रोजगार मिलता तो बाहर क्यों जाते?

इन सरकारी आंकड़ों पर राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन से जुड़े किसान-मजदूर नेता अंजनी कुमार दीक्षित ने सवाल उठाया. उन्होंने कहा कि इस आयोग के कामकाज का जमीन पर कोई अता-पता नहीं है. उन्होंने पूछा, 'अगर लोगों को जिले में रोजगार मिल रहा होता तो वे उत्तराखंड मजदूरी करने क्यों जाते, क्यों अपनी जान गंवाते?'

अंजनी कुमार दीक्षित ने कहा कि लॉकडाउन में घर आए मजदूर रोजगार की तलाश में दूसरे शहरों को लौट चुके हैं, जिसकी जानकारी तब आती है, जब किसी हादसे में यहां के मजदूर मारे जाते हैं. उन्होंने बताया कि जिले में मजदूरों को 60 फीसदी काम खेती में मिलता है, लेकिन गन्ने के भुगतान में देरी से किसानों के हाथ खाली हैं, इसलिए इस समय खेती में भी मजदूरों को कम रोजगार मिल रहा है.

मजदूरों के पलायन पर क्या कहते हैं जनप्रतिनिधि

उत्तर प्रदेश की आदित्यनाथ सरकार ने चमोली हादसे के बाद लापता मजदूरों के परिजनों के लिए अब तक मुआवजे का ऐलान नहीं किया है. इस बारे में जब निघासन विधानसभा क्षेत्र के विधायक राम कुमार वर्मा से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि सभी पीड़ित परिवारों की मदद की जा रही है, केंद्र और उत्तराखंड सरकार ने मुआवजे घोषित किए हैं, राज्य सरकार भी अपने स्तर पर भी प्रयास कर रही है. मजदूरों को रोजगार दिलाने के सरकारी के दावे के बावजूद मजदूरों का पलायन होने के सवाल पर उन्होंने कहा, 'ये मजदूर पहली बार बाहर नहीं गए हैं, लंबे समय से वहां पर जा रहे हैं, जिले में उनकी स्किल के हिसाब से काम दिलाया गया था, लेकिन वे वहां (उत्तराखंड) में काम करने में ज्यादा कंफर्ट महसूस करते थे, इसलिए वहां गए थे.'

मजदूरों की स्किल मैपिंग के बारे में पूछे जाने पर विधायक राम कुमार वर्मा ने कहा, 'हम लोगों ने स्किल मैपिंग के आधार पर उन्हें काम दिया, लेकिन वे लोग वहां काम करने के लिए ज्यादा कंफर्ट थे, इसलिए चले गए.' हालांकि, जिले में प्रवासी मजदूरों का सटीक आंकड़ा न होने के सवाल उन्होंने कहा कि इस बारे में अभी जानकारी नहीं है, अधिकारियों से पता करने के बाद बताएंगे.

प्रवासी मजदूरों को स्थानीय स्तर पर रोजगार दिलाने के बारे में पूछे जाने पर लखीमपुर खीरी के मोहम्मदी से विधायक लोकेंद्र प्रताप सिंह ने कहा कि जिले में प्रवासी मजदूरों को रोजगार देने का काम हुआ है, राज्य सरकार ने मनरेगा का बजट बढ़ाकर दोगुना किए है, उद्योग लगाने के काम तेजी लाई गई है, जिससे भविष्य में रोजगार बढ़ेगा. उन्होंने यह भी कहा कि मजदूरों की संख्या काफी है, ऐसे में बहुत से लोग दूसरे राज्यों में मजदूरी करने चले जाते हैं.

हालांकि, मजदूरों की स्किल मैपिंग और उनका रिकॉर्ड रखने के सवाल पर विधायक लोकेंद्र प्रताप सिंह ने कहा कि स्किल मैपिंग का काम चल रहा है. उन्होंने बजाज चीनी मिल को छोड़कर बाकी चीनी मिलों से 24 जनवरी तक का गन्ना भुगतान होने का भी दावा किया.

इन बच्चों में से किसी के पिता, किसी के दादा तो किसी के चाचा चढ़ गये हैं चमोली हादसे की भेंट (photo : janjwar)

प्रदेश सरकार श्रमिक कल्याण पर श्वेत पत्र लाए

हालांकि, प्रदेश कांग्रेस कमेटी के महासचिव और विधानसभा चुनाव में पलिया से प्रत्याशी रहे सैफ अली नकवी ने कहा कि प्रदेश सरकार और जनप्रतिनिधियों को मजदूरों के प्रति संवेदनशील बनने की जरूरत है. उन्होंने कहा, 'यह कहना असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा है कि लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिला, फिर भी वे बाहर चले गए. अगर स्थानीय स्तर पर सम्मानजनक रोजगार मिलता तो तीन गांव के 33 लोग घर-परिवार छोड़कर क्यों जाते?'

सैफ नकवी ने आगे कहा कि प्रदेश की बीजेपी सरकार को श्रमिकों के कल्याण के लिए उठाए गए कदमों पर श्वेत पत्र लाना चाहिए और बताना चाहिए कि प्रदेश सरकार ने मजदूरों का पलायन रोकने के लिए अब तक क्या कदम उठाए हैं. उन्होंने कहा कि बीजेपी सरकार को तत्काल चमोली हादसे के सभी पीड़ित परिवारों के लिए मुआवजा घोषित करना चाहिए और एक सदस्य के लिए स्थायी नौकरी या कम से कम बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का खर्च उठाने का ऐलान करना चाहिए.

मजदूरों की मौत पर मुआवजा कम क्यों

गौरतलब है कि चमोली हादसे में जान गंवाने वाले मजूदरों के परिजनों को उत्तराखंड सरकार ने चार-चार लाख रुपये तो केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री आपदा राहत कोष से दो-दो लाख रुपये मुआवजा देने का ऐलान किया है. हालांकि, मृतकों की पहचान न हो पाने से कागजी कार्रवाई बढ़ने और परिजनों को समय पर राहत मिलने की चुनौती खड़ी हो गई है. इसके अलावा सवाल यह भी है कि अगर मुआवजा मिल भी गया तो घर का एक कमाऊ सदस्य खोने के बाद यह पीड़ित परिवारों की कितनी मदद कर पाएगा?

आखिर जिन मजदूरों के खून-पसीने से करोड़ों रुपये की बिजली परियोजनाएं बनती हैं, जिनके दम पर शहर और कारखाने रोशन होते हैं, उनकी मौत पर परिजनों की मदद के लिए कुछ लाख रूपये ही क्यों? क्या मौजूदा सरकारों की नजर में एक मजदूर के जिंदगी का इतना ही मोल है?

Next Story

विविध