Begin typing your search above and press return to search.
आजीविका

वर्ष 2075 तक पूरी भूमि की ऊपरी सतह हो जायेगी गायब, चरम पर होगी भुखमरी

Janjwar Desk
25 Dec 2020 2:08 PM IST
वर्ष 2075 तक पूरी भूमि की ऊपरी सतह हो जायेगी गायब, चरम पर होगी भुखमरी
x

भुखमरी बना कोरोना से भी ज्यादा खतरनाक रोग (प्रतीकात्मक फोटो)

भूमि का विकृतीकरण वर्तमान में मानव विस्थापन का सबसे बड़ा कारण है और इस कारण संघर्ष और युद्ध हो रहे हैं....

वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जनज्वार। संयुक्त राष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन की मिटटी से सम्बंधित नई रिपोर्ट के अनुसार यदि भविष्य में दुनिया की बढ़ती आबादी की भूख मिटानी है और पोषण का स्तर बढ़ाना है तो सबसे जरूरी है कि सभी देश मिट्टी को बचाने की पहल तेज करें और इसकी जैव-सम्पदा को बचाएं। इस रिपोर्ट के अनुसार दुनिया जितनी चर्चा जलवायु परिवर्तन की और वनों के विनाश की कर रही हैं, उतनी ही चर्चा मिट्टी और इसके जैव-विविधता संरक्षण की भी जरूरी है क्योंकि यह सीधे लोगों के पोषण से जुड़ा मसला है।

मिट्टी जीवन की उत्पत्ति का केंद्र है, पर औद्योगिक युग के बाद इसका विनाश तेजी से किया जा रहा है। अनुमान है कि दुनिया की जैव-विविधता में से 25 प्रतिशत से अधिक मिट्टी में, हमारे पैरों के नीचे रहती हैं। दूसरी तरफ, पूरी दुनिया पृथ्वी के ऊपर रहने वाले वनस्पतियों, वनों और जैव-विविधता की चर्चा तो खूब करती है, पर आँखों से ओझल मिटटी के अन्दर रहने वाले जीवन के बारे में पूरा जानती तक नहीं है।

मिटटी के नीचे बसा जीवन ही मिटटी में पोषक पदार्थों का आधार है, जो फसलों के माध्यम से हमारे शरीर में आता है। मिट्टी के अन्दर जितना कार्बन का भंडारण होता है, उसकी तुलना वनों के बृक्षों में संचयित कार्बन से की जा सकती है, पर इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। कार्बन के संचयन के कारण जलवायु परिवर्तन रोकने में मिट्टी का महत्वपूर्ण योगदान है।

फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन की मिटटी से सम्बंधित नई रिपोर्ट को मिट्टीकी जैव-विविधता से सम्बंधित पहली विस्तृत रिपोर्ट बताया जा रहा है और इसे दुनियाभर के 300 से अधिक वैज्ञानिकों ने तैयार किया है। मिट्टी को बनाने में हजारों साल लग जाते हैं, पर इसका क्षरण कुछ वर्षों में ही हो सकता है। रिपोर्ट के अनुसार मिट्टी को जन्तुओं की चमड़ी जैसा माना जा सकता है, जो पतली होती है, पर शरीर को सर्वाधिक सुरक्षा देती है।

इस वर्ष के World Food Prize विजेता प्रोफेसर रतन लाल, जो ऑहियो स्टेट यूनिवर्सिटी में कार्बन मैनेजमेंट विभाग के डायरेक्टर हैं, के अनुसार औद्योगिक क्रांति के बाद से लगभग 135 अरब टन मिट्टी नष्ट हो चुकी है। मिट्टी के नष्ट होने के मुख्य कारण हैं, अत्यधिक खेती, अत्यधिक रासायनिक खाद, कटनाशक और एंटीबायोटिक्स का उपयोग, वनों का तेजी से कटना, जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि और लगातार सूखे के क्षेत्र में बृद्धि।

सितम्बर 2018 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2030 तक पश्चिमी अफ्रीका के देशों में अनाज की उत्पादकता में 2.9 प्रतिशत और भारत में 2.6 प्रतिशत तक की कमी होगी, जबकि कनाडा और रूस में इनमें क्रमशः 2.5 और 0.9 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होगी। इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2050 तक दुनिया की आबादी 10 अरब तक पहुँच जायेगी और दुनिया में फसलों की पैदावार कम होने से भूखे लोगों की आबादी भी बढ़ेगी।

वर्ष 2000 से 2010 के आंकड़ों के अनुसार दुनिया के सन्दर्भ में प्रति व्यक्ति प्रत्येक दिन 7322 किलोजूल ऊर्जा प्राप्त करता है और इसमें से 66 प्रतिशत से अधिक गेहूं, चावल, मोटे अनाज और आयल पाम से प्राप्त होता है। तापमान बृद्धि के कारण वर्ष 2030 तक चावल, गेंहू, मक्का और ज्वार की उत्पादकता में 6 से 10 प्रतिशत तक की कमी होगी।

दुनियाभर में 10 फसलें ऐसी हैं जिनसे मानवजाति 83 प्रतिशत कैलोरी प्राप्त करती है। ये फसलें हैं, जौ, कसावा, मक्का, आयल पाम, रेपसीड, चावल, जई, सोयाबीन, गन्ना और गेंहू। हाल में ही प्लोस वन नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार इन सभी फसलों का उत्पादन जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि से प्रभावित हो रहा है, पर यह प्रभाव दुनिया के हरेक क्षेत्र में एक समान नहीं है। बहुत ठंडे प्रदेश में उत्पादन कुछ हद तक बढ़ रहा है, जबकि गर्म इलाकों में यह घट रहा है। यह अध्ययन यूनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा, यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड और यूनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगेन के वैज्ञानिकों के संयुक्त दल ने किया है।

इस अध्ययन के अनुसार तापमान बृद्धि और जलवायु परिवर्तन के कारण इन फसलों के उत्पादन में एक प्रतिशत तक की कमी आ चुकी है। आयल पाम के उत्पादन में 13.4 प्रतिशत की कमी आंकी गयी है, जबकि सोयाबीन का उत्पादन 3.5 प्रतिशत बढ़ गया है। यूरोप, साउथ अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में उत्पादन कम हो रहा है जबकि लैटिन अमेरिका, एशिया और नार्थ अमेरिका में उत्पादन बढ़ रहा है। पर, दुनिया के सन्दर्भ में इन फसलों की पैदावार में कमी हो रही है।

पूरी कृषि, भूमि के उपरी सतह, जिसे टॉप स्वायल कहते हैं, पर निर्भर करती है। इसी से विश्व में अनाज की कुल पैदावार में से 95 प्रतिशत उपजता है। पर, संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में 50 प्रतिशत से अधिक भूमि की ऊपरी सतह नष्ट हो चुकी है और यदि यही हाल रहा तो वर्ष 2075 तक पूरी भूमि की ऊपरी सतह गायब हो चुकी होगी। इससे खाद्यान्न उत्पादन प्रभावित होगा, भूमि में पोषक पदार्थों की कमी होगी, भूमि बंजर होगी और भू-अपरदन की दर बढ़ेगी। जमीन से अवशोषित कार्बन वायुमंडल में पहुंचेगा और फिर तापमान बृद्धि में सहायता पहुंचाएगा। कार्बन कम होने से जमीन में पानी की कमी भी होगी। भूमि में एक प्रतिशत कार्बन बृद्धि होने पर एक एकड़ भूमि में 150 किलोलीटर अतिरिक्त पानी जमा होता है।

एनवायर्नमेंटल हेल्थ पर्सपेक्टिव नामक जर्नल में प्रकाशित एक लेख के अनुसार तापमान बृद्धि से गेहूं, चावल और जौ जैसी फसलों में प्रोटीन की कमी हो रही है। अभी लगभग 15 प्रतिशत आबादी प्रोटीन की कमी से जूझ रही है और वर्ष 2050 तक लगभग 15 करोड़ अतिरिक्त आबादी इस संख्या में शामिल होगी। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के अनुसार विश्व की लगभग 76 प्रतिशत आबादी अनाजों से ही प्रोटीन की भरपाई करती है, पर अब मिटटी में पोषक तत्वों की कमी के कारण इनमें प्रोटीन की कमी आ रही है। इन वैज्ञानिकों ने अपने आलेख का आधार लगभग 100 शोधपत्रों को बनाया, जो फसलों पर वायुमंडल में बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड के प्रभावों पर आधारित थे।

इंटरगवर्नमेंटल साइंस पालिसी प्लेटफार्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज की एक रिपोर्ट के अनुसार मानवीय गतिविधियों के कारण भूमि की बर्बादी से विश्व की 40 प्रतिशत से अधिक जनसँख्या, लगभग 3.2 अरब, प्रभावित हो रही है, अधिकांश प्रजातियाँ विलुप्तिकरण की तरफ बढ़ रही हैं और जलवायु परिवर्तन में तेजी आ रही है।

यह संस्था 129 देशों का समूह है और संयुक्त राष्ट्र की 4 संस्थाएं, यूनेस्को, यूनेप, एफएओ और यूएनडीपी, इसके पार्टनर हैं। इस रिपोर्ट को 45 देशों के 100 विशेषज्ञों ने तैयार किया है। रिपोर्ट के अनुसार भूमि का विकृतीकरण वर्तमान में मानव विस्थापन का सबसे बड़ा कारण है और इस कारण संघर्ष और युद्ध हो रहे हैं।

Next Story

विविध