- Home
- /
- हाशिये का समाज
- /
- Ground Report :...
Ground Report : हरियाणा के छातर गांव में जाटों ने लगाई दलितों पर सामाजिक पाबंदी, ढोर-डंगरों का भी जीना हुआ मुहाल
गली में बैठकर समस्या पर विचार विमर्श करते दलित समुदाय के बुजुर्ग और मोहल्ले की सुनसान गली (photo : janjwar)
मनोज ठाकुर की ग्राउंड रिपोर्ट
जनज्वार ब्यूरो, जींद। उचाना हरियाणा के डिप्टी सीएम दुष्यंत चौटाला का विधानसभा क्षेत्र है। इस विधानसभा का गांव है छातर। इस गांव के दलित समुदाय के लोग 10-12 दिन से दबंगों के सामाजिक बहिष्कार का सामना कर रहे हैं।
गांव दो खेमों में बंटा हुआ है। तुगलकी फरमान है कि कोई भी उंची जाति का दलितों के बहिष्कृत मोहल्ले की ओर नहीं जाएगा, यदि गया तो उसका भी बहिष्कार कर दिया जाएगा। वहीं दलित मोहल्ले के लोगों को इजाजत नहीं कि वह बाहर निकल सकें। गांव के किसानों के खेत में नहीं जा सकते। दलितों को दुकानदार किराने का सामान और सब्जी नहीं दे रहे हैं। डेरी से दूध नहीं दिया जा रहा है। यहां तक कि यदि गांव से बाहर जाने की कोशिश करते हैं तो कैब संचालक उन्हें नीचे उतार देते हैं। इंसान तो छोड़िये इस सामाजिक पाबंदी से दलितों के ढोर डंगरों का जीना भी मुहाल हो गया है। उनके लिए चारे-पानी की व्यवस्था तक करनी दलित समुदाय के लिए मुश्किल होता जा रहा है।
छातर गांव के मांगु बागड़ मोहल्ले के 150 परिवार समझ नहीं पा रहे हैं कि उन पर गांव में यह प्रतिबंध क्यों लगाया गया? उनका कसूर क्या है? मोहल्ले के लोग कितने लाचार हैं, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि वह हर किसी के आगे हाथ जोड़कर गुहार लगा रहे हैं कि उनका बहिष्कार खत्म करा दिया जाए। यहां का दलित मोहल्ला पीने के पानी को भी तरस रहा है।
4 अक्टूबर की दोपहर करीब एक बजे जनज्वार टीम छातर गांव में पहुंची तो पीड़ितों के घर खोजने में खासी दिक्कत आई। दलितों के बहिष्कार का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गांव का कोई भी व्यक्ति पीड़ितों के घर का रास्ता बताने के लिए राजी नहीं था। जैसे ही विवाद के बारे में गांव के लोगों से बातचीत की कोशिश की तो वह वहां से खिसक लेते थे।
किसी तरह से खोजते हुए जब टीम पीड़ित दलित मोहल्ले में पहुंची तो वहां हर घर अंदर से बंद था। लोग डरे हुए थे। उन्हें इस बात का भय था कि पता नहीं कब उन पर कोई हमला कर दें।
किसी तरह से कुछ दरवाजे खटखटा कर टीम ने अपना परिचय दिया, तो दरवाजे खोले गये। इसके बाद जो इन पीड़ितों ने जो बताया, वह मानवता को शर्मसार करने वाला रवैया तो है ही, इसके साथ ही यह भी सोचने पर विवश करता है कि किस तरह से एक तबका विशेष दलितों का आज भी गुलाम बना कर रखने की हरसंभव कोशिश कर रहा है। यह तबका चाहता है कि गांव में उनका वर्चस्व तो रहे, इसके साथ ही दलित समुदाय इसी तरह से रहे जैसा दबंग चाहते हैं।
दो गलियों में बंटा यह मोहल्ला दिनभर सुनसान रहता है। मुख्य गली के मुहाने पर दो पुलिसकर्मी तैनात कर दिए गए हैं। यह पुलिसकर्मी पीड़ितों की सुरक्षा कम और आने जाने वाले पर नजर ज्यादा रख रहे हैं। दलित इतने डरे हुए हैं कि कैमरे के सामने आने से भी डरते हैं। उन्हें इस बात का डर है कि यदि सवर्ण तबके के खिलाफ कुछ बोल दिया तो गांव में रहना मुश्किल हो जाएगा। हिम्मत कर कुछ युवा और बुजुर्ग बातचीत के लिए तैयार होते हैं।
32 वर्षीय पीड़ित युवक प्रवीण कुमार ने बताया, "हमारे मोहल्ले के लोगों का कसूर बस इतना है कि इस समाज का एक लड़का गुरमीत, जिसके साथ गांव के दबंग युवकों ने मारपीट की, उनके खिलाफ पुलिस को शिकायत दे आया। पुलिस ने दलित उत्पीड़न का मामला दर्ज कर आरोपी युवक राजेश को हिरासत में ले लिया। छातर गांव की दबंग जातियां इस बात से खफा हैं कि क्यों गुरमीत मारपीट के खिलाफ पुलिस के पास गया। क्यों उसने केस दर्ज कराया। वह बिना शर्त केस वापस ले। यदि वह केस वापस नहीं लेता तो मोहल्ले को बहिष्कार का सामना करना पड़ेगा।"
दलित मोहल्ले के ही 43 वर्षीय रोहताश कुमार कहते हैं, 'गुरमीत ने उंची जाति वालों की शान में गुस्ताखी की है, इसलिए गुरमीत और समाज को सबक सिखाने के लिए यह कदम उठाया गया है।' रोहताश आगे कहते हैं, 'गांव में ऐलान किया गया कि या तो गुरमीत को अकेला छोड़ दिया जाए, उसके समाज के सभी लोग उससे अलग हो जाए। यदि वह ऐसा नहीं करते तो गुरमीत के साथ उन्हें भी बहिष्कार का सामना करना पड़ेगा।'
नाम न बताने पर दलित मोहल्ले के कई पीड़ित बताते हैं, वैसे तो पहले भी कई बार उनके साथ मारपीट होती रही है, मगर अक्सर वह उसे अपनी नियति मानकर चुप रह जाते थे, क्योंकि उनकी गुजर बसर गांव के दबंगों पर निर्भर है।
70 वर्षीय बुजुर्ग लहरी सिंह बताते हैं, '10 सितंबर को गुरमीत खेल मेले में कबड्डी मैच देखने गया। वहां उसके साथ राजेश पुत्र बिल्लू और उसके कई साथियों ने मारपीट की। गुरमीत इससे आहत होकर पुलिस को शिकायत दे आया। जैसे ही वह घर आया तो आरोपी युवक के परिजन गांव के कुछ लोगों के साथ मोहल्ले में आकर धमकी देने लगे। गुरमीत पर दबाव बनाया गया कि वह मामला वापस ले ले। गुरमीत तैयार भी हो गया, लेकिन जब बार बार उसे धमकाया जाने लगा और ऐसा माहौल बनाने की कोशिश हुई कि गुरमीत ने मामला दर्ज कराकर अपराध कर दिया है तो लगातार दबाव बनने से गुरमीत ने केस वापस लेने से इंकार कर दिया।'
दबंगों के खिलाफ दलित युवक गुरमीत द्वारा शिकायत वापस लेने से इंकार करने के बाद 26 सितंबर को गांव में एक सामूहिक पंचायत आयोजित की गयी थी। इसमें गुरमीत के पूरे मोहल्ले मांगु बागड़ का बहिष्कार करने का ऐलान कर दिया गया। उस दिन के बाद उन्हें खेतों में जाने नहीं दिया जा रहा है। पैसे देने के बाद भी दलितों को दुकानदार सामान नहीं दे रहे हैं। उनके मोहल्ले में सब्जी बेचने वाला नहीं आ रहा है। यहां तक कि बीमारों को डॉक्टर भी दवा नहीं दे रहे हैं।
दलित मोहल्ले के मुकेश और परमजीत कहते हैं, 'दबंगों ने हमारा खेत में जाना भी बंद कर दिया है, इस वजह से मवेशियों के लिए चारे की भारी दिक्कत आ गई है। मवेशी भूखे मरने पर मजबूर हो रहे हैं। कोई और रास्ता न देखकर हम अपने मवेशियों को भूख से बचाने के लिए अब सस्ते में बेच रहे हैं, क्योकि इसके सिवाय हमारे पास कोई चारा ही नहीं है।'
परमजीत कहते हैं, 'पहले हमारे पास जो सूखा चारा पड़ा था, उसे जानवरों को खिलाया। अब सूखा चारा भी खत्म हो गया है। हम अपना गुजारा तो किसी तरह से कर सकते हैं, लेकिन मवेशियों का पेट भरने के लिए कोई विकल्प नहीं है, इसलिए उन्हें मजबूरी में अपने मवेशियों को औने पौने दाम में बेचना पड़ रहा है।' वहीं गांव के एक अन्य दलित कहते हैं कि उन्होंने अपने 4 पशु रिश्तेदार के यहां भेज दिए हैं, जिससे वहां उन्हें चारा आदि मिल सके। जब कभी गांव में जाटों द्वारा उनका बहिष्कार खत्म होगा तो वह अपने मवेशी वापस ले आयेंगे।
हरियाणा में तीन कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे आंदोलन में आंदोलनकारियों ने दावा किया था दलित और किसान एक है। वह खेती बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन छातर गांव में आंदोलनकारियों की यह बात सही साबित नहीं हो रही है। यहां किसान और जमींदारों ने दलितों की नाकाबंदी कर दी है।
किसान आंदोलन के बीच दलित और किसानों के एकजुट होने पर जोर दिया जा रहा है, लेकिन छातर गांव के दलितों का कहना है कि यह सब तो कहने की बात है। पीड़ित रामफल ने बताया कि बहिष्कार करने वाले भी तो किसान ही है। यदि दलित किसान एकता की बात होती तो उनका बहिष्कार ही क्यों होता? इधर भारतीय किसान युनियन के नेता गुरनाम सिंह चढूनी ने बताया कि यह मामला उनके नोटिस में नहीं है। यदि ऐसा है तो इस पर बातचीत कर बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की जाएगी। मगर बहिष्कार के बाद गांव में दलितों की स्थिति बेहद खराब होती जा रही है।
पीड़ित दलित युवक 34 वर्षीय मुकेश कहते हैं, गांव में पीने के पानी की समस्या है, वह मंदिर से पानी लेने गए। वहां से भी महिलाओं को वापस भेज दिया गया। उन्हें जलील किया जा रहा है। पीड़ितों ने बताया कि मवेशियों के लिए चारे का संकट पैदा हो गया है। इस वजह से वह अपनी मवेशियों को औने पौने दाम बेचने पर मजबूर हो रहे हैं।
54 वर्षीय दलित महिला परमजीत कहती हैं, 'मेरी बेटी शैलजा बैंक की परीक्षा की कोचिंग लेने के लिए शहर जाती है। विवाद के बाद उसे कोई मैक्स कैब वाले नहीं बिठाते। इस वजह से वह घर पर ही रहने के लिए मजबूर हो रही है। उसकी बेटी का करियर खराब हो रहा है, लेकिन दबंगों अपनी मनमानी पर अड़े हुए हैं।'
पीड़ित दलित कहते हैं, यह इलाका दबंगों की जाति का है, इस मामले में सभी दबंग एक है। उन्हें लगता है कि पीड़ितों को एट्रोसिटी का मामला दर्ज कराने पर सबक सिखाना चाहिए, ताकि दूसरा कोई पुलिस के पास जाने की हिम्मत ही न जुटा पाए, इसलिए इलाके के आरोपी पक्ष समुदाय के लोग एक हो गए हैं। यूं भी यह क्षेत्र जाट बहुल है। इसलिए भी पीड़ित पक्ष को हर जगह दबाने और नीचा दिखाने की कोशिश हो रही है।
पीड़ित युवक रामफल कहते हैं, उहें बहुत अफसोस हो रहा है कि उनके बेटे की वजह से पूरे मोहल्ले को दिक्कतों से दो चार होना पड़ रहा है, लेकिन अब कब तक बर्दाश्त करेंगे। यह पहला मौका नहीं है कि दलित युवक के साथ मारपीट की गई। चार बार पहले भी इस तरह की घटना हो चुकी है।
मगर अब तो हद ही हो गई। उन्हें इंसान तक नहीं समझा जा रहा है। उनके साथ जानवरों की तरह व्यवहार किया जा रहा है। रामफल ने बताया कि उनके भतीजे ने शिकायत दी है, पूरे मोहल्ले को इसकी सजा क्यों दी जा रही है? यह तो सरासर अमानवीयता है, लेकिन गांव के सामने दलितों की एक नहीं चल रही है। छातर गांव बड़ा गांव है, इसमें करीब 12 हजार वोट है। गांव की आबादी का 80 प्रतिशत जाट समुदाय से हैं।
पीड़ित इतना डरे हुए हैं कि अपनी शिकायत को लेकर अधिकारियों के पास भी जाने से बच रहे हैं। उनका कहना है कि एक युवक ने मामला दर्ज कराया तो उन्हें बहिष्कार का सामना करना पड़ गया, यदि वह इकट्ठा होकर अधिकारियों के पास गए तो उन्हें गांव से ही निकाल दिया जाएगा।
कुछ युवा उचाना एसडीएम डाक्टर राजेश कोंथ के पास गए थे। उन्होंने बताया गया कि एसडीएम ने उनकी बात ही नहीं सुनी है। बस बोल दिया कि गांव में शांति कमेटी बनाई जाएगी, जो मामले को देखेगी। अभी तक कमेटी की दिशा में भी कुछ नहीं हुआ है।
वहीं इस मामले में जब जनज्वार ने छातर गांव के निवर्तमान सरपंच (क्योंकि सरपंच का कार्यकाल 4 माह पहले पूरा हो गया है) राममेहर से जाटों का पक्ष जानना चाहता तो उन्होंने इस बात से साफ इंकार कर दिया कि गांव में ऐसी कोई बात हुई भी है। बकौल राममेहर पीड़ित पक्ष पुलिस और प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए बहिष्कार की बात कर रहा है, जबकि हमने किसी का बहिष्कार नहीं किया है। यह मामले को जानबूझ कर तुल देने की बात है। सच तो यह है कि दो लड़कों के विवाद को दलित उत्पीड़न का रंग दिया गया है। इसमें कुछ भी ऐसा नहीं था।
वहीं दूसरी तरफ दलित समुदाय बार—बार एक ही बात कह रहा है कि पहले तो दबंगों ने उन्हें डराया और धमकाकर दबाव बनाने की कोशिश की कि पीड़ित युवक पुलिस में दर्ज एट्रोसिटी की शिकायत वापस ले, लेकिन जब युवक नहीं माना तो उनके पूरे मोहल्ले का बहिष्कार कर सभी पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं। इसके पीछे उनकी सोच है कि जब मोहल्ले लोग परेशान होंगे तो पीड़ित युवक पर वह स्वयं दबाव बनाएंगे कि मामला वापस ले। इस वजह से उनका सामाजिक बहिष्कार कर रखा है, मगर लेकिन पीड़ित युवक गुरमीत अब हमारी बात मानने को तैयार नहीं है। वह तो अब गांव में भी कम रहता है, क्योंकि उसे हर वक्त डर लगा रहता है। इसलिए वह शहर में रह रहा है।
दलित एक्टिविस्ट और दलित अधिकारों की आवाज उठाने वाली पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय की एडवोकेट आरती कहती हैं, 'अधिकारी सिर्फ दिखावा कर रहे हैं। दबंग चाहते हैं कि दलित अभी भी उनके आगे दबे रहें। वह अपने हक और अधिकार की आवाज न उठायें। छातर गांव की घटना को इस संदर्भ में देखना चाहिए कि दबंगों की कोशिश है कि दलितों को सबक सिखाया जाए। उन्हें इतना आतंकित कर दिया जाए कि वह मुंह तक खोलने की हिम्मत न करें। यह इस गांव ही नहीं पूरे हरियाण का सच है। प्रदेश में दलितों की स्थित बेहद खराब है। उन्हें इंसान तक होने का दर्जा नहीं दिया जा रहा है। दिक्कत यह है कि ज्यादातर जिम्मेदार अधिकारी भी उसी समाज से हैं, जिस समाज के लोगों ने दलितों का बहिष्कार किया है। इस तरह से दलितों को इंसाफ मिले भी तो कैसे?'
एडवोकेट आरती आगे कहती हैं, बहिष्कार करना भी तो उत्पीड़न है, इसके बाद भी पुलिस यह मानने को तैयार नहीं है कि छातर गांव में दलित उत्पीड़न हो रहा है, इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि दलितों को इंसाफ आखिर कैसे मिल सकता है?
जब जनज्वार ने एसपी जींद से इस मामले में बातचीत की कोशिश तो उन्होंने मिलने से साफ इंकार कर दिया। अलबत्ता उचाना जिस थाना क्षेत्र में गांव छातर आता है, यहां के नवनियुक्त इंस्पेक्टर थाना प्रभारी सोमबीर ढाका ने जनज्वार से हुई बातचीत में जरूर बताया कि गांव में शांति बनी रहे, इसे लेकर गार्द लगा दी है। हम स्थिति पर नजर रखे हुए हैं। अभी तक उन्हें किसी ने बहिष्कार की शिकायत नहीं दी है। गांव का दौरा कर स्थिति का जायजा लिया जाएगा।