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हाशिये का समाज

37 साल की उम्र तक अपने को साबित करने की जद्दोजहद से गुजरी ट्रांसजेंडर विद्या राजपूत की लोमहर्षक कहानी, उन्हीं की जुबानी

Janjwar Desk
20 Oct 2022 5:48 AM GMT
37 साल की उम्र तक अपने को साबित करने की जद्दोजहद से गुजरी ट्रांसजेंडर विद्या राजपूत की लोमहर्षक कहानी, उन्हीं की जुबानी
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विद्या राजपूत एक ऐसा नाम है, जिन्होंने होश संभालने के बाद से लेकर आज तक कदम कदम पर समाज के इस वीभत्स चेहरे को न केवल देखा, बल्कि उसके साथ जीवन जीते हुए अपना एक अलग मुकाम हासिल भी किया...

Transgender Vidya Rajput : 21वीं सदी अपने काल से पहले के अंधेरों को चीरते हुए जहां लगातार नई रोशनी की ओर बढ़ रही है तो इस सदी की एक खास बात यह है कि अब इसी धरती पर हमारे साथ रहने वाले उन लोगों के हितों पर भी बात होने लगी है जो सदा से हमारे बीच रहकर अपना पूरा जीवन त्रासदीपूर्ण स्थिति में गुजारने को अभिशप्त रहे हैं। पिछली शताब्दी दुनिया से इंसानों को गुलाम बनाए रखने की प्रवृत्ति की विदाई की साक्षी बनी तो यह सदी ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए रोशनी भरी है।

बदलते दौर में विश्व के कई देशों ने ट्रांसजेंडर समुदाय की गरिमा का सम्मान करते हुए उनके लिए कई कानूनी उपाय किए हैं। इन देशों में भारत भी शामिल है, लेकिन कानूनी उपाय होने के बाद भी भारत के साथ ही अन्य देशों के सामाजिक वातावरण में इस समुदाय के प्रति कई भ्रांतियां होने के कारण इन्हें यथोचित सम्मान नहीं मिल पाता है। ऐसे कशमकश भरे समाज के बीच इनका जीवन कितना त्रासदीपूर्ण हो सकता है, वह इस समुदाय के अतिरिक्त कोई नहीं जान सकता।

विद्या राजपूत ऐसा ही एक नाम है, जिन्होंने होश संभालने के बाद से लेकर आज तक कदम कदम पर समाज के इस वीभत्स चेहरे को न केवल देखा, बल्कि उसके साथ जीवन जीते हुए अपना एक अलग मुकाम हासिल भी किया। महिला व ट्रांसजेंडर अधिकारों के लिए जीवन भर संघर्षरत रही भारत की जानी पहचानी नारीवादी आंदोलन की प्रणेता कमला भसीन के नाम पर आजाद फाउंडेशन द्वारा दिए जाने वाले कमला भसीन पुरस्कार से सम्मानित हुई छत्तीसगढ़ राज्य की निवासी विद्या राजपूत से जनज्वार ने बात कर उनके संघर्ष को समझने की कोशिश की तो विद्या ने अपनी कहानी कुछ इस तरह बयान की।

बचपन से ही अलग होने का संदेश मिला था विद्या को

यह सोचकर ही मन सहम जाता है जब सात साल की उम्र के बच्चे को उसके स्कूल के सहपाठी से लेकर घर परिवार और समाज तक उसके कुछ "अलग" होने की घोषणा करके बच्चे को अलगाव की ओर धकेलने का प्रथम प्रयास कर दे। लेकिन यह हुआ, और विकास नाम के एक लड़के के साथ हुआ। जब उसे स्कूल से लेकर घर बाहर तक यह बताया गया कि वह लड़का नहीं है। वह लड़की भी नहीं है। वह इनसे अलग तरह की एक श्रेणी में शामिल है। सात साल के विकास की अलगाव के पथ पर यह यात्रा पिछली शताब्दी के नवें दशक में तब शुरू हुई थी, जब दुनियां से इंसानों की गुलामी का काला अध्याय इतिहास बन चुका था और दुनिया वंचित समुदायों के हित में बात करने के लिए मानसिक तौर पर तैयार हो रही थी, लेकिन वॉशिंगटन और पेरिस के कॉफी हाउस में चलने वाली इन बहसों का भारत के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र छत्तीसगढ़ में आना लंबे समय की बात थी। ऐसे में विकास को अगले बारह साल सामाजिक तानों के बीच रहकर न केवल जीना पड़ा, बल्कि सामाजिक प्रवृत्ति के खिलाफ संघर्ष की ऊर्जा हासिल करने के लिए अपने व्यक्तित्व को निखारना भी पड़ा।

रायपुर आकर मिला अपनापन

विकास से लेकर विद्या तक के सफर में विद्या राजपूत (वर्तमान नाम) को रायपुर आकर जब अपने ही जैसे लोगों का कुछ संपर्क मिला, तो उसे लगा कि यह भी एक दुनिया है, जिसकी गरिमा और सम्मान हो सकता है। बेहद गरीब परिवार में जन्म लेने वाली विद्या की मां मजदूरी करते हुए परिवार को परवरिश कर रही थी। बड़ी बहनों के विवाह और दो भाईयों की शराब की लत की वजह से हुई मौत के बाद टूट चुकी विद्या अपनी मां के लिए इकलौती उम्मीद थी।

रायपुर में होटल और कई सारी जगहों पर काम करते अपने परिवार की बसर करने वाली विद्या का यहीं पर अपने जैसे कुछ लोगों से संपर्क हुआ। यहीं से विद्या ने दुनिया को देखने का एक नया दृष्टिकोण मुहैया कराया। जो जिल्लत उसे बचपन से लेकर अब तक समाज में मिली, वह किसी और को हासिल न हो, इसके लिए काम करने का भी विचार यहीं से निकला। सबसे बड़ा सबक विद्या को यहां यह मिला "एक किन्नर की कभी कोई घरवापसी नहीं होती"।

भारत में 2014 के बाद बदला ट्रांसजेंडर के प्रति नजरिया

विद्या राजपूत ने भारत में ट्रांसजेंडर (एलजीबीटी क्यू) के प्रति नजरिया बदलने को अप्रैल 2014 के सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय को टर्निंग पॉइंट जिसमें ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों को पहली बार कानूनी रूप से परिभाषित किया गया था, को बताते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद देश में ट्रांसजेंडर समुदाय के हित पर चर्चा ने व्यापक स्वरूप लिया। इन्हीं आठ सालों के दौरान साहित्यिक, सिनेमायी, स्वयंसेवी संगठनों की वजह से इस समुदाय की पीड़ा को बड़े फलक पर देखने, जानने और समझने के प्रयास शुरू हुए।

बीस साल की उम्र से रायपुर में रहकर काम करने के दौरान खुद उन्होंने देश में आई इंटरनेट क्रांति के दौरान अपना दायरा बढ़ाते हुए व्यापक रूप से इस समुदाय से संपर्क किया। एलजीबीटी समुदाय के लिए काम करने वाले देश विदेश के कई लोगों से संपर्क होने के बाद इस समुदाय को अलगाव व हीनताबोध से बाहर निकालने के लिए उन्होंने खुद का एक सेंटर बनाया। जो एलजीबीटी या ट्रांसजेंडर या कह लीजिए जो अपने आप को अस्वभाविक समझते हुए अपना स्वाभाविक जीवन नहीं जी पाते हैं, के लिए काम कर रहा है। सेंटर उन्हें उनकी गरिमा का अहसास कराते हुए वह जिस रूप में हैं, उसी रूप को स्वीकारते हुए सम्मानित और गरिमायुक्त जीवन जीने के लिए न केवल प्रेरित करता है बल्कि उनकी इसके लिए हर प्रकार से मदद भी करता है। जिसमें मनोचिकित्सकों व सामाजिक विज्ञान के विशेषज्ञों से सलाह भी शामिल है।

समाज को "ट से टमाटर की जगह ट से ट्रांसजेंडर" तक की करनी होगी यात्रा

देश दुनिया में तमाम कानूनी सुरक्षा कवच होने के बाद भी सामाजिक, विशेष तौर पर मानवीय मूल्यों के प्रति बेहद लापरवाह भारतीय समाज में ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए अन्य सभी लोगों के साथ बराबरी, गरिमा व मान सम्मान के साथ सहजीवन के लिए लंबी लड़ाई की जरूरत पर जोर देते हुए विद्या का मानना है कि एलजीबीटी समुदाय के लिए बहुत कुछ हो जाने के बाद भी काफी कुछ किया जाना अभी बाकी है। ट्रांसजेंडर और एलजीबीटी समुदाय को केंद्र में रखते हुए उनके लिए कई योजनाओं का संचालन किया जा रहा है, जिससे वह भी अपने को समाज का स्वाभाविक अभिन्न हिस्सा महसूस करते हुए जीवन जी सकें। समाज निरंतर अपनी गति से बदल रहा है, लेकिन सरकारों को इसके लिए विशेष प्रयास करने होंगे।

अभी छत्तीसगढ़ में ही एलजीबीटी समुदाय के कई सदस्य पुलिस, चिकित्सा सहित कई क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। इससे इनकी आर्थिक समस्या तो दूर हुई है, लेकिन सामाजिक अलगाव की समस्या का समाधान होना बाकी है। परंपरागत समाज चाहे वह किसी भी देश, धर्म, जाति के उनके अपने नियम हैं। जिनसे उनकी शादी-विवाह, जन्म-मृत्यु, हर्ष-शोक सहित हर गतिविधि संचालित होती है, लेकिन ट्रांसजेंडर या एलजीबीटी समुदाय को लेकर समाज में अभी भी कोई स्वाभाविकता का अभाव देखा जाता है। इसलिए सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर इस समुदाय का हर क्षेत्र में दखल होना ही इस समस्या का समाधान है।

ट्रांसजेंडर और एलजीबीटी समुदाय पर यूनिवर्सिटी में शोध हों, जिसमें उनकी समस्याओं और उनके निदान पर चर्चा की जाए, लोग इन समुदायों के प्रति संवेदनशील होकर अपने नजरिए में परिवर्तन लाएं। सबसे बड़ी बात समाज के बच्चों को बचपन से ही ट्रांसजेंडर और एलजीबीटी समुदाय के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए इस समुदाय की तकलीफों को पाठ्यक्रम का अटूट हिस्सा बनाया जाए। कम शब्दों में कहा जाए तो जिस दिन स्कूल में ट से टोमेटो की जगह ट से ट्रांसजेंडर स्थापित हो जायेगा, इस समुदाय की सामाजिक मुश्किलों के जड़ से खात्मे की शुरुआत उसी दिन से हो जायेगी।

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