किसान आंदोलन को अभी तक क्यों हल्के में ले रही है मोदी सरकार ?
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
पंजाब विधानसभा के चुनावों के दौर में प्रधानमंत्री जी जब पंजाब गए थे, तब हाथ हिलाकर वहां की जनता को बताया था कि गुरु नानक के पञ्च प्यारों में एक गुजराती भी थे और मैं भी गुजराती हूं इसलिए जाहिर है गुरु नानक देव जी का पक्का भक्त हूं। चुनावों के दौर में प्रधानमंत्री जी गुरु नानक देव जी के भक्त हो गए थे और इस वर्ष सिखों के सबसे बड़े पर्व गुरु नानक के जन्मदिन यानि प्रकाश पर्व के दिन जब लाखों सिख पुरुष और महिला किसान दिल्ली समेत अनेक जगह अपने घरों से दूर अपनी मांगों के लिए आंदोलन कर रहे थे।
तब प्रधानमंत्री जी बाबा विश्वनाथ का जयकारा लगा रहे थे, गंगा में क्रूज का आनंद ले रहे थे और लेसर की किरणों पर थिरक रहे थे। किसानों को भ्रम में होने की बात कर रहे थे और बता रहे थे कि किसानों को बरगलाया जा रहा है। इसके बाद से दिल्ली पहुंचकर किसानों के सन्दर्भ में प्रधानमंत्री जी ने एक अजीब सी खामोशी का लबादा ओढ़ लिया है। दूसरी तरफ किसान आंदोलनकारी लगातार साबित कर रहे हैं कि वे ना तो भ्रम में हैं और ना ही उन्हें कोई बहका रहा है।
वैसे यह मोदी जी का कोई नया व्यवहार नहीं है, हरेक राज्य के चुनाव के दौरान वे उस राज्य के संबंधी होते हैं और चुनाव ख़त्म होते ही उस सम्बन्ध को भूल भी जाते हैं और अगले राज्य से सम्बन्ध जोड़ लेते हैं। वर्तमान में वे बांगला के कुछ शब्द सीख रहे होंगे, क्योंकि अब पश्चिम बंगाल से संबंध बनाने का समय नजदीक आ गया है। किसानों के आंदोलन और उनकी मांगों के बारे में सरकार कितनी लापरवाह है, इसका उदाहरण 3 दिसम्बर की सरकार और किसान नेताओं की वार्ता के बाद कृषि मंत्री के वक्तव्य में नजर आता है।
समर्थन मूल्य, प्राईवेट मंडी और सरकारी कृषि मंडी जैसे मुद्दों के के बारे में किसान लगातार अपनी नाराजगी जाहिर कर रहे हैं, पर अब लगभग 6 महीने बीतने के बाद पहली बार सरकार इन्हें चर्चा के मुद्दे मान रही है। जिस अकड़ में सरकार यह वार्ता कर रही है, उससे तो लगता है कि किसानों का आंदोलन लंबे समय तक चलता रहेगा।
आंदोलन में सम्मिलित अधिकतर किसान बताते हैं कि आज तक कोई भी ऐसी सरकार नहीं आई है, जिसने किसानों का भला किया हो, पर पिछले 6 वर्षों से जैसी दुर्दशा में वे खेती कर रहे हैं, वैसी हालत कभी नहीं थी, अंग्रेजों के समय भी नहीं। कृषि एक जमीन से जुड़ा मसला है और इसकी बारीकी वही समझ सकता है जो सीधे तौर पर खेती से जुड़ा हो।
सरकार भले ही इन आंदोलनकारी किसानों को अनपढ़ समझ रही हो, पर तथ्य यह है कि इनमें से अधिकतर किसान वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाईजेशन के जनरल अग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड टैरिफ के भारतीय किसानों पर असर पर भी लम्बा व्याख्यान दे सकते हैं। जिस डंकल अंकल को हम भूल चुके हैं, वे भी इन किसानों को याद हैं। इस सरकार की पेट्रोलियम उत्पादन नीति के किसानों पर असर को भी किसान बता रहे हैं।
उनके अनुसार 6 वर्ष पहले तक अधिकतर पेट्रोलियम पदार्थों का आयात भारत में खादी के देशों से किया जाता था, और उसके बदले सरकार उन्हें अनाज भेजती थी, इसलिए अनाज का एक विस्तृत बाजार था। पर, अब ट्रम्प से दिसती निभाते-निभाते भारत सरकार खादी के देशों की उपेक्षा कर रही है, और पेट्रोलियम पदार्थ दूसरे खेत्रों से आयात कर रही है, जहां इसके बदले अनाज नहीं बल्कि डॉलर भेजा जाने लगा है।
किसानों से जुड़े तीनों नए कानूनों पर किसानों से कोई राय नहीं ली गई और ना ही बीजेपी ने सहयोगी दलों से कोई सलाह ली। जाहिर है इन कानूनों को बीजेपी और संघ परिवार के शीर्ष नेतृत्व के सुझावों पर नौकरशाहों ने बनाया होगा। कृषि क़ानून ही नहीं बल्कि दूसरी समस्याओं की जड़ में भी यही नौकरशाह होते हैं।
सुदर्शन टीवी ने अपनी सरकार भक्ति दर्शाने के लिए और सरकार के आशीर्वाद से बड़े जोर शोर से आईएएस जेहाद कार्यक्रम को शुरू किया था, जिसे बीच में ही सर्वोच्च न्यायालय ने रोकने का आदेश दे दिया। दरअसल गंभीर और निष्पक्ष पत्रकारिता करने वाले कुछ न्यूज़ चैनलों को यह विस्तार से बताना चाहिए कि राजनैतिक आकाओं को खुश करने के चक्कर में और उनका एजेंडा पूरा करने के चक्कर में ये नौकरशाह देश का उसकी जनता का कितना अहित कर रहे हैं।
देश की हरेक असफलता में नेताओं के साथ ही नौकरशाहों की बराबर की भागीदारी है। नेताओं और नौकरशाहों ने जनता पर बहुत मनमानी कर ली, इस बार किसान और मजदूर एक साथ विरोध में उठ खड़े हुए हैं – शायद अब देश बदल जाए।