OBC दिवस पर आजमगढ़ में सेमिनार का होगा आयोजन, 7 अगस्त को ही पिछड़ों को मिला था सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण
आजमगढ़ । 7 अगस्त राष्ट्रीय ओबीसी दिवस पर ओबीसी समाज के मुद्दे और चुनौतियां विषय पर बरवा मोड़, गोसाई की बाजार, आजमगढ़ में सेमिनार आयोजित किया जायेगा।
राष्ट्रीय सामाजिक न्याय मोर्चा के राजेंद्र यादव और राजीव यादव ने बताया कि 7 अगस्त राष्ट्रीय ओबीसी दिवस पर ओबीसी समाज के मुद्दे और चुनौतियां विषय पर बरवा मोड़, गोसाई की बाजार, आजमगढ़ में 11 बजे से सेमिनार आयोजित होगा. सेमिनार में मध्यप्रदेश से पूर्व विधायक डॉक्टर सुनीलम, सामाजिक न्याय आंदोलन बिहार के गौतम प्रीतम, यादव सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष शिव कुमार यादव, मनीष शर्मा, अरविंद मूर्ति शामिल होंगे.
राष्ट्रीय सामाजिक न्याय मोर्चा के राजेंद्र यादव और राजीव यादव ने कहा कि 7 अगस्त 1990 की तारीख खासतौर से ओबीसी समाज के लिए बड़े महत्त्व का दिन है. इसी दिन आजादी के बाद लंबे इंतजार और संघर्ष के बाद ओबीसी के लिए सामाजिक न्याय की गारंटी की दिशा में पहली ठोस पहल हुई थी. प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल आयोग की कई अनुशंसाओं में से एक अनुशंसा सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण को लागू करने की घोषणा की थी. आयोजित सेमिनार में ओबीसी के मुद्दे और चुनौतियों पर बातचीत की जाएगी.
देश की 52 प्रतिशत से अधिक आबादी के लिए सामाजिक न्याय की दिशा में इस फैसले का राष्ट्रीय महत्व है, क्योंकि ओबीसी के हिस्से का सामाजिक न्याय राष्ट्र निर्माण की महत्त्वपूर्ण कुंजी है. ओबीसी समाज को पीछे धकेलकर राष्ट्र आगे नहीं बढ़ सकता है.
7 अगस्त 1990 को केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा ने सत्ता-संसाधनों पर कब्जा वाली ताकतों में बेचैनी पैदा कर दी, जबकि यह हिस्सेदारी का सवाल है, जिसका अधिकार था उसको नहीं मिल रहा था. ओबीसी समाज के पिछड़ेपन से मुक्ति, देश की प्रगति के लिए जरूरी है. सामाजिक-शैक्षणिक पिछड़ापन, गरीबी का मुख्य कारण जाति के कारण उत्पन्न बाधाएं हैं. समाज का एक बड़ा तबका जो आरक्षण का विरोध करता है, वह देश की प्रगति का विरोध करता है.
मंडल आयोग की एक सिफारिश के लागू होने से ओबीसी की पहचान और ओबीसी के साथ संपूर्ण बहुजन समाज की एकजुटता को बल मिला, लेकिन सामाजिक न्याय की लड़ाई के गतिरोध और ओबीसी पहचान के टूटने व बहुजन एकजुटता के बिखरने के कारण भाजपा मजबूत हुई है.
आजादी के इतने वर्षों बाद भी शासन-सत्ता की संस्थाओं व अन्य क्षेत्रों के साथ संपत्ति व संसाधनों में एससी-एसटी व ओबीसी की हिस्सेदारी आबादी के अनुपात में काफी कम है. यहां तक कि वर्तमान संसद में भी ओबीसी सांसदों की संख्या केवल 22 प्रतिशत के आसपास ही है.
मंडल कमीशन की दो सिफारिशों को छोड़कर शेष सिफारिशें आज तक लागू नहीं हो पाई है. उल्टे सरकारी सेवाओं और उच्च शिक्षा में लागू 27 प्रतिशत आरक्षण को भी ठीक ढंग से लागू नहीं किया गया और लगातार इसे भी खत्म कर देने की कोशिश-साजिश चल रही है. आरक्षण की समीक्षा की बात होती है लेकिन मंडल आयोग की रिपोर्ट की अनुशंसाएं जिनको लागू नहीं किया गया, उसकी बात नहीं होती. देश की आधी से ज्यादा आबादी को उचित हक-हिस्सा दिए बगैर एक विकसित, आधुनिक लोकतांत्रिक भारत का निर्माण संभव नहीं है.
आज के दौर में जातिवार जनगणना का सवाल सामाजिक न्याय का बुनियादी सवाल है. जातिवार जनगणना खासतौर से ओबीसी के लिए सामाजिक न्याय के बंद दरवाजे की कुंजी है. ओबीसी की जाति जनगणना नहीं कराना इस समुदाय के सम्मान और पहचान पर हमला है. ओबीसी संवैधानिक कैटेगरी है. इस कटेगरी को ऐतिहासिक वंचना से बाहर निकालने के लिए सामाजिक न्याय की बात संविधान में है, लेकिन उस कटेगरी के सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक जीवन से जुड़े आंकड़ों को जुटाने के लिए जाति जनगणना से इनकार करना सामाजिक न्याय और ओबीसी के संवैधानिक अधिकारों के प्रति घृणा की अभिव्यक्ति है.