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विमर्श

Prashant Kishor Suraj Analysis : सिर्फ पॉलिटिकल बिजनेस का मार्केट एक्सप्लोर कर रहे हैं 'PK'

Janjwar Desk
6 May 2022 6:09 PM IST
Prashant Kishor Suraj Analysis : सिर्फ पॉलिटिकल बिजनेस का मार्केट एक्सप्लोर कर रहे हैं ‘PK’
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Prashant Kishor Suraj Analysis : सिर्फ पॉलिटिकल बिजनेस का मार्केट एक्सप्लोर कर रहे हैं ‘PK’

Prashant Kishor Suraj Analysis : पीके से ज्यादा उम्मीद करने की जरूरत नहीं है, वह शून्य में कुछ नहीं कर सकते, बिहार में उनके लिए कोई जगह नहीं है...

डी.एम.दिवाकर का विश्लेषण

Prashant Kishor Suraj Analysis : देश के चर्चित चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ( Prashant Kishor ) ने बिहार में सुराज यात्रा की घोषणा और नई पार्टी लॉन्चिंग का संकेत देकर देश की राजनीति में हलचल पैदा करने की कोशिश की है। सुराज यात्रा ( Prashant Kishor Suraj Analysis ) के तहत वह बिहार में 1700 हजार से अधिक चिन्हित लोगों को मिलेंगे। इसके पीछे उनका मकसद बिहार और देश की राजनीति में संभावित नये आयामों को समझना है। ताकि यह तय करना संभव हो सके कि भविष्य में सियासी दांव-पेंच किस रंग-रूप में हमारे सामने उभरकर आने वाला है।

सुराज यात्रा ( Prashant Kishor Suraj Analysis ) के दौरान वह इस बात पर गौर फरमाएंगे कि क्या, कोई ऐसी गुंजाइश है, जहां से वो अपने लिए सियासी जमीन तैयार कर सकते हैं। इस रणनीति के तहत वो पॉलिटिकल बिजनेस मार्केट और लीडरशिप दोनों पहलुओं पर गौर फरमाएंगे। उसके बाद तय करेंगे कि एक सियासी पार्टी लॉन्च करने की जरूरत है या नहीं। या पॉलिटिकल बिजनेस मार्केट को ही प्रासंगिक बनाए रखने की जरूरत है।

ये है पीके की मुहिम का मकसद

दरअसल, प्रशांत किशोर उर्फ पीके इंडियन इलेक्टोरल पॉलिटिक्स के चर्चित बिजनेस मैनेजर हैं। हर मैनेजर का मुख्य लक्ष्य बिजनेस प्रासंगिक बनाये रखने की होती है। पीके का पहले भाजपा, फिर कांग्रेस और उकसे बाद टीएमसी, आप, टीआरएस, एनसीपी, शिवसेना, जेडीयू, आरजेडी व अन्य दलों के साथ तालमेल बनाना, उसी कड़ी का हिस्सा था। हाल ही संपन्न पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के बाद तो पीके के पास बिजनेस की संभावनाएं कम हैं। इसके बावजूद वह कांग्रेस पार्टी के पुनर्गठन और गैर भाजपा सियासी दलों की केंद्र और राज्यों में सरकार गठन की भूमिका को लेकर काफी सक्रिय रहे, लेकिन इस मुहिम में भी उन्हें खास तवज्जो नहीं मिली। इस बात को ध्यान में रखते हुए वह लोकसभा चुनाव 2024 और बिहार विधानसभा चुनाव 2025 सहित अन्य राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों में खुद की अहमियत साबित करने की मुहिम में जुट गए हैं।

पीके के बहकावे नहीं आयेगा बिहार

बिहार अब पीके ने बिहार में सुराज यात्रा ( Prashant Kishor Suraj Analysis ) पर निकलने की घोषणा की है। यह एक तरह से उनका मार्केट एक्सप्लोर कैंपेन है लेकिन बिहार अन्य राज्यों की तुलना में अलग है। बिहार में उनके पास न तो अपना कोई सियासी संगठन है और न ही गैर सरकारी संगठन, जिसका अपना नेटवर्क हो। उन्होंने 17000 से अधिक लोगों का नेटवर्क होने का दावा किया है। सुराज यात्रा के दौरान वो उन्हीं लोगों से मिलेंगे। यहां पर उन्हें यह समझने की जरूरत है कि बिहार का यूथ अजीब किस्म का है। वह जाति, धर्म, समुदाय, संप्रदाय और क्षेत्र के आधार पर बंटा है। वो पीके क्या किसी औरों के बहकावे में नहीं आयेगा।

अगर पीके नई पार्टी बना भी लेते हैं तो बिहार के लोगों उनका साथ नहीं देंगे। इससे पहले भी बिहार में कई पार्टियां अस्तित्व में आईं और चली गईं। अस्तित्व में आने वाली पार्टी का दावा यही होता है कि वो भ्रष्टाचार मिटाएंगे, बेरोजगारी दूर करेंगे, महंगाई कम करने सहित अन्य लोकप्रिय मुद्दे भी शामिल होते हैं। अहम सवाल यह है इन सबका हश्र क्या हुआ? बिहार में कांग्रेस से मोह भंग होने के बाद लोगों ने आरजेडी को गले लगाया, उसी दौर में यहां के लोगों ने नीतीश की पार्टी जेडीयू और भाजपा को भी गले लगाया। तीनों ने बिहार में जाति और धर्म के नाम पर कांग्रेस से खाली हुए स्थान को पाने के क्रम में अपनी अलग-अलग पहचान बनाई। इस बीच लोजपा, आरएलएसपी, हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा, विकाशसील इंसान पार्टी सहित अन्य स्थानीय सियासी दल भी अस्तित्व में आये। पर क्या हुआ, अगर आप आरजेडी, भाजपा और जेडीयू को छोड़ दें तो सभी सियासी दलों की हैसियत आया राम, गया राम वाली ही साबित हुई है। रामविलास पासवान के निधन के बाद लोजपा का क्या हुआ। चिराग पासवान अलग-थलग पड़ गए। उनका रिवाइवल बहुत मुश्किल है। मुकेश सहनी भी किनारे लगा दिए गए। हम का भी वही हाल होने वाला है। पीके ( Prashant Kishor Suraj Analysis ) भी पार्टी बनाएंगे तो उनका भी यही हाल होगा।

यह इस बात का प्रमाण है कि आप अचानक से बिहार की जानता को सियासी तौर पर बेवकूफ नहीं बना सकते। फिर बिहार में प्रशांत किशोर ( Prashant Kishor Suraj Analysis ) का कोई क्रेंडिंशयल अभी नहीं है। वह भी अन्यों की तरह अवसरवादी राजनीति के दलदल फंसे हुए हैं। चूंकि, उनके पास करने के लिए तत्काल कुछ नहीं है, इसलिए वो कुछ आजमाना चाहते हैं। उनके बातों से लोग कयास लगा रहे हैं कि पीके राजनीतिक पार्टी बनाएंगे, पर वो ऐसा नहीं करेंगें। उनकी हर चाल व सक्रियता इस बात के संकेतक हैं कि वो पॉलिटिकल बिजनेस एक्सप्लोर कर रहे हैं।

पीके नहीं बनाएंगे पार्टी

हां, अवसरवादी राजनीति के दौर में एक विकल्प है। नीतीश कुमार को या तो विपक्ष के सहयोग से या भाजपा के समर्थन से केंद्र में राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति बन जाएं। अगर उसमें पीके अहम भूमिका निभाते हैं तो उनका चुनावी रणनीतिकार वाला काम फिर से चल पड़ेगा। अगर नीतीश राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति बनते हैं तो बिहार में सीएम का पद खाली होगा। इस स्थान पर वो भाजपा के बदले आरजेडी का सीएम बनाना पसंद करेंगे। ऐसा होना इतना आसान नहीं है, क्योंकि भाजपा ऐसा नहीं होने देगी। भाजपा यही चाहेगी कि राष्ट्रपति उसके पसंद का हो। इसके लिए उसे 9000 वोट की जरूरत है। यहां पर अगर नीतीश विपक्षी खेमे में आते हैं तो वामपंथ उनका समर्थन करने के मुद्दे पर विचार कर सकता है। ऐसी स्थिति में प्रशांत किशोर के लिए नई पार्टी का गठन करना और उसे सफलता तक पहुुंचाने की उम्मीद बहुत कम है।

आग लगने पर फायर टेंडर की तलाश करना बेमानी

फिर प्रशांत किशोर यह काम उस समय कर रहे हैं जब जनता के बीच जाने का समय आ गया है। दो साल बाद लोकसभा का चुनाव है। कहने का मतलब यह है कि पीके आग लगने के बाद फायर ब्रिगेड की तलाश करने वाला काम कर रहे हैं। उन्हें इस बात को समझने की जरूरत है कि 1991 में आरजेडी सत्ता में आई, उसके बाद जीडीयू—भाजपा की सरकार, फिर आरजेडी से जेडीयू और गठबंधन और कुछ समय बाद नीतीश के भाजपा के साथ आ जाने में पीके की कहीं नजर नहीं आये।

बिहार में कोई वैकेंसी नहीं

इस बीच नोटबंदी, जीएसटी, कोरोना, पुलवामा, बेरोजगारी, महंगाई आदि के बीच भाजपा का दोबारा सत्ता में आना। इन सबमें में पीके कहां हैं। हकीकत यह है कि जाति और धर्म के खेमे बंटी संसदीय रजानीति के दलदल में हर कोई अपना स्थान बनाने में जुटा है। जनता से किसी का कोई लेना देना नहीं है। यानि पीके से ज्यादा उम्मीद करने की जरूरत नहीं है। वह शून्य में कुछ नहीं कर सकते। बिहार में उनके लिए कोई जगह नहीं है। आरजेडी, भाजपा और आरजेडी के अस्तित्व में बने रहने तक यहां की राजनीति में किसी के लिए कोई वैकेंसी कहां नहीं है।

मुजफ्फरपुर में बोचहा उप चुनाव परिणाम से एक संकेत मिले हैं कि सवर्ण वोट बैंक एक बार फिर कहीं शिफ्ट हो सकता है। ऐसा इसलिए कि बोचहा सीट यादव व मुस्लिम बहुल नहीं है। इसके बावजूद आरजेडी प्रत्याशी का बड़े अंतर से जीतना इस बात के संकेत हैं कि ब्राह्मण और भूमिहार वोट बैंक शिफ्ट होने का मन बना रहा है। ऐसा इसलिए कि उसे अभी तक वो नहीं मिला जिसकी तलाश में वो भाजपा व जेडीयू से जुड़ा, लेकिन यहां पर भी चुनावी रणनीतिकार को खुश होने की जरूरत नहीं है। बोचहा सीट से जो संकेत मिल रहे हैं, उस लाइन पर आरजेडी पहले से काम कर रही है। यानि भूमिहार और ब्राह्मणों का इरादा बदला तो तेजस्वी यादव खेमे में जुड़ना पसंद करेंगे। यानि उसका लाभ आरजेडी को मिलेगा न कि किसी और को। इन सबके के बीच पीके के पास युवाओं का मुद्दा उठाने का विकल्प है, लेकिन सभी पार्टियों के पास युवा मोर्चा है।

सुराज से साफ होगा प्रशांत की राह!

सवाल यह है कि यह सब जानते हुए भी प्रशांत किशोर सुराज यात्रा क्यों कर रहे हैं। इसका जवाब ये है कि हो सकता है कि किसी सियासी पार्टी ने अप्रत्यक्ष रूप से फीडबैक दिया हो कि वो जनता की नब्ज टटोलें। इस मोर्चे पर काम कर वो अपने बिजनेस को आगे बढ़ा सकते हैं। चूंकि, अवसरवादी राजनीति में किसी भी संभावनाओं से आप इनकार नहीं कर सकतें राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का ही उदाहरण ले लीजिए, वो कोई शंकर दयाल शर्मा, आरके नारायण, एपीजे अब्दुल कलाम व अन्य राष्ट्रपति की योग्यता के मानदंडों पर उच्च स्तर के शख्सियत नहीं थे, फिर भी वो राष्ट्रपति बने, क्योंकि वह भाजपा और आरएसएस के करीब होने की वजह से फिट माने गए।

कहने का तात्पर्य यह है कि सुराज यात्रा के जरिए प्रशांत अपना मार्केट एक्सप्लोर कर सकते हैं। वह लोगों का नब्ज टटोलकर विभिन्न दलों के बीच तालमेल बिठाते हुए अपना बिजनेस आगे बढ़ाने का काम कर सकते हैं। यही वजह है कि वो पार्टी नहीं बनाएंगे। फिर उनका अभी तक कोई संगठन नहीं है। एनजीओ भी नहीं है। शून्य में रहकर शीर्ष नेतृत्व पर विराजमान हो जाएं, ऐसा संभव नहीं होता। ऐसा कोई क्रांति होने पर ही होता है। जैसे राज ननारायण ने इंदिरा गांधी को हरा दिया। वर्तमान में विपक्ष की समस्या यह है कि सभी मिलकर पीएम का उम्मीदवार नहीं दे पा रहे हैं। अचानक कोई प्रशांत किशाोर को पीएम मैटीरियल मान लेगा, ऐसा सोचना बेमानी है।

सत्ता परिवर्तन के लिए अहम योगदान उद्योगपतियों का होता है। अगर अंबानी और अडानी आज भाजपा से हाथ खींच लें तो भाजपा क्या करेगी? वो कुछ नहीं कर पाएगी। उद्योगपति जिस तरफ मुडता है वही पार्टी सत्ता में आती है। जेपी मूवमेंट इसका ज्वलंत उदाहरण है। जेपी के साथ उद्योगपतियों का एक समूह भी जुड़ गया था। 2014 में मोदी जब सत्ता में आये तो उस समय भी यही हुआ। विश्व बैंक और देश के उद्योगपतियों का बड़ा समूह कांग्रेस से कन्नी काटने लगे थे। उद्योगपतियों का कहना था कि नेतृत्व बदला जाए। दूसरी तरफ मनमोहन सिंह का कहना था कि इकॉनोमिक्स का फंडामेंटल ठीक नहीं चल रहा है। रोजगार पर जोर देना जरूरी है। उनकी ये थ्योरी पूंजीपतियों और विश्व बैंक को अच्छा नहीं लगा। ऐसे में सामने आये मोदी। उन्होंने कहा कि देश को बिकने नहीं देंगे। आज वही देश को बेच रहे हैं। एयर इंडिया, इंडियन रेलवे, पब्लिक सेक्टर के बैंकों को बेचने का काम जारी है। डिफेंस में निजी निवेश चरम पर है।

नेताओं को नहीं, सियासी दलों को मैनेज करेंगे

Prashant Kishor Suraj Analysis : ऐसी स्थिति में प्रशांत किशोर खुद की पार्टी नहीं बनाएंगे। वह नेतानाओं के बदले सियासी दलों को मैनेज करने की कोशिश करेंगे। वर्तमान में भाजपा के पास संसाधन की कमी नहीं हैं। देश की राजनीति पर भाजपा की पकड़ अच्छी है। इन परिस्थितियों में भाजपा पीके को क्यूं पूछे? पीके के साथ समस्या यह है कि अगर वो बिजनेस नहीं ढूंढ पाएं तो अप्रसांगिक हो जाएंगे। इसलिए वो बेरोजगारी, महंगाई, कमजोर अर्थव्यवस्था, जाति और धर्म के आधार पर तनाव व अन्य मुद्दों पर विपक्ष को एक मंच पर लाने का प्रयास जारी रखेंगे। ताकि उनका अपना बिजनेस फिर से चल पड़े। पीके समझदार हैं। इन बातों को जानते हुए वो मेहनत की कमाई राजनीति में लगाकर खुद को लुटाना नहीं चाहेंगे, बल्कि अपना पॉलिटिकल बिजनेस एक्सप्लोर करेंगे। यही उनकी रणनीति और राजनीति दोनों है।

(लेखक डीएम दिवाकर एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज के पूर्व डायरेक्टर हैं।)

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