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इंदिरा गांधी का आपातकाल खुला और आमने-सामने था, आज तानाशाही एक मास्क पहनती है

Janjwar Desk
1 Sep 2020 2:40 PM GMT
इंदिरा गांधी का आपातकाल खुला और आमने-सामने था, आज तानाशाही एक मास्क पहनती है
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सुप्रीम कोर्ट के जज के द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'बहुमुखी प्रतिभा' कहा जाता है, जबकि भारत नोटबंदी, जीएसटी आदि के अनजाने हमलों से डूब रहा है, बेरोजगारी हमें खा रही है। देश गरीब से भुखमरी की ओर बढ़ रहा है। सरकार केवल सार्वजनिक संपत्तियों को निजी कंपनियों को बेचकर चल पाती है....

देवनूरा महादेवा का विश्लेषण

वरिष्ठ वकील रवि वर्मा कुमार के साथ हाल ही में फोन पर बातचीत के दौरान मैंने उनसे पूछा, 'सुप्रीम कोर्ट कैसे चल रहा है?' हम तीन जजों वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच के उस फैसले की पृष्ठभूमि में बात कर रहे थे जिसमें पाया गया कि प्रशांत भूषण के ट्वीट्स से अदालत की अवमानना हुई।

रवि ने कहा, 'न्यायपालिका खुद ही एक आरोप लगाती है; यह खुद कार्यवाही शुरू करती है और फिर केस को साबित करती है और फिर एक फैसला सुनाते हुए कहती है कि हमारी सुप्रीम कोर्ट में जो कुछ हुआ उसमें आरोप साबित हो गए हैं।अपना आदेश पारित करने से पहले तीन जजों की बेंच के सामने भूषण ने जो जवाब प्रस्तुत किया उसे गंभीरता से नहीं लिया। मैने अनुभव किया कि सुप्रीम कोर्ट में न्याय की प्रतिमा लगी है और न्याय की देवी ने आंखे मूंदी हैं और जो तराजू में संतुलन बनाए हुए है, वह इसलिए है ताकि निष्पक्ष रह सके। लेकिन इस अदालत का फैसला अंधा था।

सुप्रीम कोर्ट के वकील गौतम भाटिया ने इस फैसले को अच्छी तरह से पकड़ लिया, उन्होंने कहा, 'यह मुझे उस समय की याद दिलाता है जब मैं आधी लाइन से एक फुटबॉल लेता था, इसे पिच के पार ले जाता था और मैदान पर किसी भी विपक्षी खिलाड़ी के बिना इसे गोल में मारता था।' यह वही खेल है जो न्यायपालिका में खेला गया है।

तो भूषण के ट्वीट में क्या है? जो इस प्रकार का केस चलता हैः 'जब भावी इतिहासकार देखेंगे कि कैसे पिछले छह साल में बिना किसी औपचारिक आपातकाल के भारत में लोकतंत्र को खत्म किया जा चुका है, वे इस विनाश में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका, खासतौर पर अंतिम चार सीजेआई की भूमिका को चिह्नित करेंगे।'

इस ट्वीट को रिफलेक्शन का कारण बताया जाना चाहिए था। इस ट्वीट को लॉकडाउन में न्याय पर प्रभाव, संकट में प्रोडक्ट के रूप में देखा जाना चाहिए था। लेकिन भूषण के ट्वीट की व्याख्या तीन जजों की बेंच करती है जो न्यायपालिका की जड़ों को हिला देती है। उन्होंने फैसला सुनाया कि उनकी भावनाएं कानून में हैं लेकिन उन्होंने डर से भी काम लिया है।

आज न केवल न्यायपालिका बल्कि कार्यपालिका, विधायिका समेत पूरे देश में डर व्याप्त है। इस डर ने मीडिया को भी नहीं बख्शा। इस डर ने किसी भी स्वायत्त संस्थान को स्वायत्त नहीं रहने दिया। जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने जो कहा, उसमें हमें इस डर का सुराग मिल जाता है: 'गोगोई (मैं उन्हें जस्टिस कहने से इनकार करता हूं) ने कई तरह के दुराचार किए और व्यावहारिक रूप से बीजेपी द्वारा संचालित सरकार के सामने दंडवत हो गए और लगभग पूरी सुप्रीम कोर्ट को राजनीतिक कार्यपालिका को सौंप दिया, लोगों के अधिकारों की रक्षा करने के एकमात्र कर्तव्य समर्पण कर दिया।

यही कारण है कि जब राजनेता संविधान के नाम पर शपथ लेते हैं लेकिन कहते हैं कि 'हम संविधान बदलने आए हैं', उनपर कोई अवमानना का आरोप नहीं लगाता। भले ही वो संविधान को जला दें, यह अदालतों की अवमानना नहीं होगी। लेकिन अदालत की गरिमा की रक्षा के लिए प्रशांत भूषण के ट्वीट को इन जजों के द्वारा अवमानना के रूप में देका जाता है। इसे देखने के बाद जस्टिस मार्कंडेय काटजू के शब्द मेरे मन में भर गए हैं।

आजादी के बाद से भारत को शायद ही कभी दुर्दशा झेलनी पड़ी हो। इंदिरा गांधी की इमरजेंसी (आपातकाल) के दौरान भी न्यायपालिका, चुनाव आयोग, देश की संघीय व्यवस्ता, भारतीय रिजर्व बैंक, सीबीआई, मीडिया आदि के भीतर कम से कम कुछ प्रतिरोध हो सकता था। वह आपातकाल बाघ (टाइगर इमरजेंसी) की तरह था। इंदिरा गांधी एक आक्रामक तानाशाह थीं। यह सब आमने-सामने था। भले ही दमित हो फिर भी तेज विरोध प्रदर्शन हुए।

पर अब ? अब जो मौजूद है वह 'काउ फेस्ड टाइगर इमरजेंसी' है। यह एक रक्षक के मास्क के रूप में आती है। लेकिन मास्क (मुखौटे) के पीछे शासन वह सब करता जो करने वाला नहीं है। यह कभी आमने-सामने नहीं आता। इसके अलावा संविधान के चार स्तंभों को, जिन्हें सभी स्वायत्त संस्थानों के साथ-साथ देश के संघीय ढांचे के साथ जोड़ते हैं, उनकी गर्दन खिसक गई है और रीढ़ कुचल गई है। यह सही है कि इन संस्थानों के पास अभी भी अपना एक फॉर्म है लेकिन वे अधमरे हैं। परिणामस्वरूप, वे गाय के सामने वाले बाघ के इशारों और इच्छाओं को समझने के बाद ही काम कर सकते हैं, जो तानाशाह राजनीतिक कार्यकारिणी की देखरेख करता है।

इसे और अधिक समझने के लिए विचार करें कि संयुक्त राज्य में क्या हुआ था। मिनियापोलिस द्वारा एक अफ्रीकी अमेरिकी व्यक्ति जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या से शुरू हुई देशव्यापी हिंसा के जवाब में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कॉल बुलाते हुए कहा- 'डोमिनेट...आपको डोमिनेट होना है', ट्रम्प के कॉल के जवाब में ह्यूस्टन के पुलिस प्रमुख आर्ट एसेवेडो ने निडर होकर कहा, 'यह डोमिनेट (हावी) होने के बारे में नहीं है। यह दिल और दिमाग जीतने के बारे में है...हम सामान्य स्थिति बहाल करने में कामयाब रहे...मुझे केवल संयुक्त राज्य के राष्ट्रपति से केवल यही कहना है..कृपया यदि आपके पास कहने के लिए कुछ रचनात्मक नहीं है तो अपना मुंह बंद रखें।'

अब जब आप भारत आते हैं तो सुप्रीम कोर्ट के जज के द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'बहुमुखी प्रतिभा' कहा जाता है, जबकि भारत नोटबंदी, जीएसटी आदि के अनजाने हमलों से डूब रहा है। बेरोजगारी हमें खा रही है। देश गरीब से भुखमरी की ओर बढ़ रहा है। सरकार केवल सार्वजनिक संपत्तियों को निजी कंपनियों को बेचकर चल पाती है। इसलिए जनता के गुस्से को नियंत्रित करने के लिए न्यायपालिका, मीडिया, सीबीआई, आरबीआई आदि सहित कमोबेश सभी मूलभूत सरकारी संस्थानों के स्तर पर एक सर्जरी की गई है। इन सबके कारण आज जनहित अनाथ हो गया है।

प्रशांत भूषण ने अपना पूरा कानूनी कैरियर इस अनाथ सार्वजनिक हित के लिए समर्पित कर दिया है। भारत के 'काउ फेस्ड टाइगर इमरजेंसी' का अर्थ न्यायपालिका ने ट्वीट के बहाने प्रशांत भूषण के रूप में जनहित की आवाज़ को दबाने का काम किया है।

(देवनूरा महादेवा कन्नड़ लेखक हैं जिन्हें पद्मश्री के साथ-साथ साहित्य अकादमी से सम्मानित किया जा चुका है, हालांकि देश में बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ उन्होंने ये पुरस्कार वापस लौटा दिए थे। महादेवा दलित कार्यकर्ता और कर्नाटक व देश में विभिन्न सामाजिक आंदोलनों से जुड़े रहे हैं। यह लेख द वायर से साभार लिया गया है।)

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