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Haryana News : हरियाणा वन मंत्री के हलके में पेड़ों पर मंडरा रहा खतरा, बेलगाम तस्करों की बढ़ रही गतिविधियां

Janjwar Desk
22 Sept 2021 2:13 PM IST
Haryana News : हरियाणा वन मंत्री के हलके में पेड़ों पर मंडरा रहा खतरा, बेलगाम तस्करों की बढ़ रही गतिविधियां
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 (वन विभाग न तो तस्करों को पकड़ पाया न ही पेड़ कटाई पर रोक लगा पाया)

Haryana News : कलेसर नेशनल पार्क में लगातार हो रही पेड़ों की चोरी। वन विभाग और पुलिस तस्करों पर रोक लगाने में नाकामयाब साबित हो रही है.....

Haryana News जनज्वार : हरियाणा (Haryana) के वन मंत्री कंवर पाल गुर्जर (Kanwar Pal Gurjar) यमुनानगर जिले (Yamunanagar) के छछरौली खंड का बहादुर पुर के निवासी है। इनके गांव से पांच किलोमीटर की दूरी पर कलेसर रेंज के चांदसोत बैरियर के सामने कलेसर जंगल से तस्करों ने खैर के बेशकीमती आधा दर्जन पेड़ों को काट ले गए। तस्करों ने खैर के पेड़ को काटने की यह पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी इस साल पेड़ तस्करी की पांच घटनाएं हो चुकी है।

इसके बाद वन विभाग न तो तस्करों को पकड़ पाया न ही पेड़ कटाई पर रोक लगा पाया। आकृति संस्था के अध्यक्ष अनुज सैनी (Anuj Saini) ने बताया कि यह निश्चित ही चिंता की बात है कि वन मंत्री के घर के पास से ही खैर के पेड़ तस्कर काट कर ले जाए। इससे पता चल रहा है कि जंगल तस्करों की जद में हैं। यह न सिर्फ जंगल के लिए खतरा है, बल्कि पर्यावरण (Evnvironment) के लिए भी गंभीर चिंता का विषय है।

हरियाणा में एक मात्र नेशनल पार्क कलेसर है। इस जंगल में शाल और खैर के पेड़ों की संख्या बहुत ज्यादा है। राष्ट्रीय उद्यान (National Park) घोषित होने की वजह से यहां से एक भी पत्ता जंगल से बाहर नहीं जा सकता। यहां साल के पुराने के पेड़ हैं। जिस पर भी तस्करों की नजर रहती है।

पर्यावरणविदों (Environmentalist) का कहना है कि वन मंत्री के घर के नजदीक से खैर तस्करी होना बड़ी बात है। इससे यह भी पता चला रहा है जब वन मंत्री के घर के आस पास ही पेड़ सुरक्षित नहीं है तो प्रदेश के जंगलों की स्थिति क्या होगी?

अनुज सैनी ने बताया कि खैर की लकड़ी बेहद कीमती होती है। प्रति क्विंटल लकड़ी सात से आठ हजार रुपए में बिकती है। इस लकड़ी का कत्था बनता है। कलेसर रेंज में खैर के पेड़ों पाए जाते हैं।

पर्यावरणविद भीम सिंह रावत ने बताया कि खैर तस्करी में वन विभाग की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं। क्योंकि विभाग पेड़ों पर नियमित तौर पर नंबर नहीं लगाता। इससे लगता है कि वन विभाग के अधिकारी भी किसी न किसी स्तर पर तस्करों को लाभ पहुंचा रहे हैं। दूसरा खैर चोरी पर जो गंभीरता वन विभाग को दिखानी चाहिए, वह भी दिखाई नहीं दे रही है।

तस्कर कोई बाहर से नहीं आते। वह स्थानीय है। उनकी पहचान करना मुश्किल काम नहीं है। पर क्योंकि किसी न किसी स्तर पर वन विभाग के कुछ अधिकारी या कर्मचारी भी तस्करों के साथ मिले हुए हैं। इसलिए कार्यवाही ढीली ही रहती है।

भीम सिंह रावत (Bhim Singh Rawat) ने बताया कि खैर तस्करी कलेसर के जंगलों में बड़े समय से हो रही है। उम्मीद तो यह थी कि स्थानीय मंत्री होने से तस्करी पर रोक लगेगी। अभी तो ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है।

रावत ने बताया कि तस्करों का एक बड़ा नेटवर्क है। इसमें पेड़ काटने वाले, पेड़ को ट्रांसपोर्ट (Transport) करने वाले और बाद में इसे बेचने वाले शामिल है। इनके संबंध कत्था बनाने वाले यूनिट संचालकों से होते हैं। जहां तस्करी की लकड़ी से कत्था बनाया जाता है।

चांद सोत बैरियर ताजेवाला के सामने जंगल (Jungle) से जिस जगह से खैर के बेशकीमती पेड़ तस्करों द्वारा काटे गए हैं। वहां का ना तो वन विभाग द्वारा मौका किया गया और ना ही उन पर कोई नंबर लगाए गए। ऐसे में जंगलों में खड़ी बेशकीमती लकड़ी को कैसे बचाया जाएगा? यह सवाल अपने आप में बड़ा है।

हालांकि वन मंत्री कंवर पाल गुर्जर ने दावा किया कि वनों की सुरक्षा सर्वोपरि है । कहीं भी पेड़ों के कटने का मामला आता है तो तुरंत कार्रवाई की जाती है । जहां से बेशकीमती खैर कटे हैं वहां पर जांच करवा कर तुरंत कार्रवाई की जाएगी।

वन मंत्री के दावे के विपरीत अभी तक तस्करों का सुराग नहीं लगा है। वन विभाग के अधिकारी यह तक बता नहीं पा रहे कि खैर तस्करों की पहचान के लिए कोई टीम बनाई गई या नहीं। पर्यावरणविदों का कहना है कि बस औपचारिकता हो रही है। यह भी एक कारण है कि तस्करों के हौसले बुलंद होते जा रहे हैं।

कलेसर नेशनल पार्क (13,000 एकड़ में फैला हुआ है। यह हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड (Himachal Pradesh And Uttarakhand) के राजाजी राष्ट्रीय पार्क से इसकी सीमा लगती है। कालेसर में तेंदुओं, तेंदुए, हाथियों, लाल जंगली पक्षियों के लिए एक लोकप्रिय स्थल है। कालेसर राष्ट्रीय उद्यान को 8 दिसंबर 2003 को अधिसूचित किया गया था। कालेसर वन्यजीव अभयारण्य को 13 दिसंबर 1996 को अधिसूचित किया गया था।

पर्यावरणविदों का कहना है कि होना तो यह चाहिए था कि वन मंत्री के गृह जिला वन संरक्षण का उदाहरण बनता, हो उलट रहा है, उनके गृह क्षेत्र में ही पेड़ सुरक्षित नहीं है। यह वन विभाग की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल है।

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