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Madhya Pradesh News: पेसा नियमों की आड़ में आदिवासियों को ठगने के फिराक में शिवराज !
मनीष भट्ट मनु की रिपोर्ट
Madhya Pradesh News: चौबीस दिसंबर 1996 को राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 इन दिनों फिर चर्चा में है। दरअसल वर्ष 1992 में संविधान में 73वें एवं 74वें संशोधन के जरिए देश के ग्रामीण तथा शहरी हिस्सों में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था कायम की गई थी। लेकिन इसके दायरे से संविधान की पांचवी अनुसूचि में आने वाले आदिवासी बहुल क्षेत्रों को बाहर रखा गया था। इन क्षेत्रों में पंचायती राज व्यवस्था को और अधिक लोकतांत्रिक बनाने के लिए 1995 में आई भूरिया समिति की सिफारिशों के आधार पर संसद में पंचायत उपबंध विस्तार अधिनियम (पेसा), 1996 पारित किया गया था।
प्रोविजन ऑफ पंचायत (एक्सटेंशन टू शिड्यूल्ड एरियाज) एक्ट -पीईएसए यानी पेसा का लक्ष्य सत्ता की शक्तियों का विकेंद्रीकरण करना एवं आदिवासी समुदायों का उद्धार करना था। पेसा के तहत पारंपरिक ग्राम सभाओं को 1 भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्वास में अनिवार्य परामर्श का अधिकार 2 पारंपरिक आस्था और आदिवासी समुदायों की संस्कृति का संरक्षण 3 लघु वन उत्पादों का स्वामित्व 4. स्थानीय विवादों का समाधान 5. भूमि अलगाव की रोकथाम 7. गांव के बाजारों का प्रबंधन 8. शराब के उत्पादन, आसवन और निषेध को नियंत्रित करने का अधिकार 9. साहूकारों पर नियंत्रण का अधिकार तथा 10. अनुसूचित जनजातियों से संबंधित कोई अन्य अधिकार दिए गए हैं। इन अधिकारों को इस्तेमाल पारंपरिक ग्राम सभा अपनी परंपरा, रीति - रिवाज और परंपरागत तरीकों से कर सकती है। विभिन्न प्रकरणों में न्यायालयों द्वारा पारित अनेक निर्णयों में यह प्रतिपादित किया गया है कि अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभा - ग्राम न्यायालय नहीं - ही सर्वोपरि है। 18 अप्रैल 2013 का परित अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने उड़ीसा के कौंध वनवासी बहुल कंधमाल जिले में वेदांता लिमिटेड और उड़ीसा खनिज निगम से स्पष्ट तौर पर कहा था कि वेदांता और सरकार को खनन के लिए ग्राम सभा की अनुमति हासिल करनी होगी, क्योंकि खनन से न केवल विस्थापन के कारण कौंध आदिवासियों की आजीविका को खतरा पैदा होगा, बल्कि उनके सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक अधिकारों का भी हनन होगा। माननीय न्यायालय द्वारा यह भी कहा गया कि वेदांता को न केवल पर्यावरण मंजूरी हासिल करनी होगी, बल्कि आदिवासियों के कानूनी अधिकारों की भी स्थापना करनी होगी। सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा है कि वन तथा पर्यावरण मंत्रालय को पर्यावरण संरक्षण कानून का पालन करना होगा तथा उसका कोई भी फैसला ग्राम सभा के फैसले पर आधारित होगा। यह प्रकरण वेदांता प्रकरण के नाम से जाना जाता है।
आदिवासी स्वषासन के लिए कार्य कर रहे विभिन्न व्यक्तियों का तो यहां तक मानना है कि पांचवी अनुसूची के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों में उस क्षेत्र के नियंत्रण एवं प्रशासन के लिए पेसा कानून 1996 की धारा 4(ओ) के तहत स्वायतशासी परिषद की नियमावली राज्य सरकारों द्वारा बनाया जानी थी। मगर इस उपबंध को आज तक किसी भी राज्य ने लागू नहीं किया गया। इस बाबत झारखंड विधान सभा की जिला परिषद् एवं पंचायती राज समिति - जिसके अध्यक्ष चाईबासा विधायक दीपक बिरूआ थे - द्वारा 23 मार्च 2016 को विधानसभा अध्यक्ष दिनेश उरांव को सौंपी गई रिपोर्ट का जिक्र आवष्यक होगा। इस रिपोर्ट में लिखा गया था किकि पेसा एक्ट का राज्य में सही से क्रियान्वयन नहीं किया जा रहा है. और न ही इसे राज्य में लागू करने के लिए कोई स्पष्ट नियम कानून है। पेसा के प्रावधानों का जिक्र करते हुए समिति ने लिखा है कि जिला स्तर पर स्वाशासी परिषद् एवं निचले स्तर पर ग्राम सभा की व्यवस्था को स्वाययता प्रदान की जाए। रिपोर्ट में लिखा गया है कि झारखंड पंचायती राज अधिनियम 2001 में अनुसूचित क्षेत्रों के लिए रखी गई प्रशासनिक संरचना पेसा एक्ट 1996 के संगत प्रतीत नहीं होती। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि राष्ट्रपति की ओर से 2007 से निर्गत अधिसूचना के अनुसार झारखंड के 12 जिले, 3 प्रखंड और 2 पंचायत को अनुसूचित क्षेत्र घोषित किया गया है। ऐसे में इन स्थानों में पेसा एक्ट 1996 के प्रावधानों के अनुसार प्रशासनिक ढांचा छठी अनुसूची के अनुकूल होगी।
आदिवासियों को अपने पाले में करने में जुटी भारतीय जनता पार्टी द्वारा शासित मध्य प्रदेष के मुख्यमंत्री षिवराज सिंह चौहान द्वारा टंट्या मामा के बलिदान दिवस पर पेसा नियम 2021 को लागू करने का ऐलान ने भी विवादों का जन्म दे दिया है।
मनावर से कांग्रेस विधायक और जसय के संस्थापक हीरालाल अलावा के अनुसार राज्य सरकार ने औपचारिकता के नाते जनप्रतिनिधियों से पेसा नियम पर सुझाव और आपत्तियां बुलाई तो थीं मगर उन्हें शामिल नहीं किया गया। भाजपा के आदिवासियो ंपर अचानक उमड़े प्रेम को वे राजनीति से प्रेरित बतलाते हैं।
पांढुर्णा जिला छिंदवाड़ा से कांग्रेस के पूर्व विधायक तथा पांढुर्णा जनपद पंचायत के अध्यक्ष रह चुके जतन उईके पेसा अधिनियम लागू होने के लगभग 25 साल बाद बनाए गए नियमों को लेकर राज्य सरकार की मंषा पर सवाल उठाते हैं। वे कहते हैं कि इन नियमों के बहाने षिवराज सरकार दरअसल आदिवासियों को ठगने का प्रयास कर रही है। उनके अनुसार इन नियमों के लागू होने से पेसा अधिनियम की मूल भावना ही खत्म को जाएगी। वे यह भी कहते हैं कि इन नियमों की आड़ में राज्य सरकार वन अधिकार कानून 2006 और वर्ष 2013 में लागू भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 को भी कमजोर करने का प्रयास कर रही है। यदि सरकार की नीयत साफ है तो वह पेसा अधिनियम की धारा 4 (बी) और (डी) के तहत ग्राम सभाओं का उल्लेख इस नियम में करे। इसी तरह लघुवनोपज और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को भी वन अधिकार कानून 2006 के अनुसार परिभाषित किया जावे। वे भू अर्जन और पुनर्वास को लेकर भू अर्जन अधिनियम 1984 के उल्लेख को भी गलत मानते हैं। उनका मानना है कि आने वाले दिनों में मध्य प्रदेष के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में भाजपा के करीबी उद्योगपतियों को जमीन का आधिपत्य सौंपने के लिए ही भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 के प्रावधानों से बचा गया है।
आदिवासी क्षेत्रों में स्वषासन और परंपरागत अधिकार को लेकर लंबे समय से कार्यरत जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय के राज कुमार सिन्हा भी इन नियमों से असहमत होते हुए पूरी प्रक्रिया पर ही प्रष्न चिन्ह लगाते हैं। उनका मानना है कि यदि षिवराज सरकार की नीयत वास्तव में सही होती तो वह इन नियमों को बनाने और लागू करने से पूर्व आम नागरिकों से सुझाव एवं आपत्तियां जरुर ही आमंत्रित करती। मगर ऐसा किया नहीं गया। छत्तीसगढ़ राज्य का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि वहां इन नियमों को बनाने से पहले न केवल आदिवासी समाज के साथ बैठकें की गईं वरन आम नागरिकों से भी सुझाव मांगे गए। पेसा अधिनियम का हवाला देते हुए सिन्हा ने बताया कि इसमें भूमि अधिग्रहण और पुर्नवास तथा खान और खनिजों के लिए ग्राम सभा को अनिवार्य सिफारिषों का अधिकार दिया गया है। मगर मध्य प्रदेष सरकार ने पेसा नियमों के माध्यम से इन और अन्य अधिकारों को कम करने का ही कार्य किया है।
आदिवासियों और दलितों के अधिकारों के लिए कार्यरत और फिलवक्त गुजरात में सक्रिय अमरनाथ भाई इस पूरी कवायद को ही गलत बतलाते हैं। उनका मानना है कि पेसा अधिनियम हो अथवा उसके लिए विभिन्न राज्यों द्वारा बनाए गए नियम। जब तक आदिवासी समाज स्वतः प्रेरणा से आगे आकर मोर्चा नहीं संभालेगा तब तक ऐसे कितने भी कानून और नियम बन जाएं कुठ नहीं होने वाला। वे कहते हैं कि देष के जिन भी राज्यों में पेसा को लेकर नियम बन चुके हैं वहां भी सरकारी नौकरों के तेवर ने वास्तविक तौर पर कुछ होने नहीं दिया। उनका मानना है कि ग्राम न्यायालय अधिनियम, वन अधिकार कानून और भूमि अर्जन अधिनियम 2013 ने कहीं न कहीं पेसा अधिनियम के प्रावधानों को कमजोर करने का ही कार्य किया है। मध्य प्रदेष में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है।
इस बाबत मध्य प्रदेष सरकार में जनजातीय कार्य विभाग की मंत्री सुश्री मीना सिंह से संपर्क करने के प्रयास असफल रहे। भाजपा मध्य प्रदेष के जिन प्रवक्ता से संपर्क किया गया उन्होंने पेसा नियम का अध्ययन करने के बाद ही बात करने की बात कही। इनके अधिकृत बयान प्राप्त होने पर उन्हें भी शामिल किया जाएगा।
(लेखक भोपाल में निवासरत अधिवक्ता हैं। लंबे अरसे तक सामाजिक सरोकारों से जुड़े विषयों पर लिखते रहे है। वर्तमान में आदिवासी समाज, सभ्यता और संस्कृति के संदर्भ में कार्य कर रहे हैं।)