Maharashtra Politics: उद्धव ठाकरे को आप हरा नहीं सकते, यह हार की जीत है!
धनंजय कुमार की टिप्पणी
Maharashtra Politics: एक तरफ़ है येनकेन प्रकारेण सत्ता पाने की बीजेपी की कोशिश और दूसरी तरफ़ है, सत्ता को वहीं छोड़ घर आ जाने का उद्धव ठाकरे का साहस, इस चिंता से भी नहीं डिगना कि लोग कहेंगे बिना लड़े हार मान ली। लेकिन यह हार की जीत है! उद्धव ठाकरे हारकर भी विजेता बने हैं। मोदी-शाह और संघ जीतता भी है तो हार का दंश लेकर सत्ता भोगेगा। निर्लज्जता से भारी सत्ता।
लोगों के मन में चल रहा है क्या शिवसेना खत्म हो जाएगी? जो भक्त हैं और जो सत्ता को येन केन प्रकारेण पाने का विषय मानते हैं और मानते हैं इसमें मोदी-शाह को सिद्धहस्तता है, दोनों के मन में ये सवाल सबसे ऊपर है। तो पहले इसी सवाल का उत्तर तलाशते हैं।
शिवसेना का गठन मराठी अस्मिता को लेकर हुआ था। ग्लोबलाइजेशन ने मराठी अस्मिता के सवाल से शिवसेना को हटाकर हिन्दुत्व के मुद्दे से जोड़ दिया था। बाला साहब ठाकरे ने 90 के दशक के आने से पहले ही पहचान लिया था शिवसेना अब मराठीवाद के मुद्दे पर इससे आगे विस्तार नहीं पाएगी। मुंबई जहां शिवसेना सबसे ताकतवर है, वहाँ भी मराठीभाषी अल्पसंख्यक हो गए हैं, इसलिए बाला साहेब ठाकरे ने सिर्फ मराठी के नारे के आगे कट्टर हिन्दू का परचम उठा लिया था।
उद्धव ठाकरे बाल साहब के उत्कर्ष काल में भी बड़े सौम्य और अंतर्मुखी थे। जब राज ठाकरे बाला साहब ठाकरे के मी मराठी के जयघोष के साथ आगे बढ़ना चाहते थे, उद्धव ने मी मुंबईकर का जयघोष किया था। मी मुंबईकर यानी जो मुंबई का है, चाहे मराठी हो या गुजराती या बिहारी-उत्तर भारतीय या दक्षिण भारतीय। बाला साहब का नैसर्गिक उत्तराधिकारी राज ठाकरे को माना जाता था, लेकिन बाला साहब ने उद्धव में अपना उत्तराधिकारी देखा । कहने वालों ने इसे पुत्र मोह कहा। हो सकता है, लेकिन जो बाला साहेब को करीब से जानते हैं, उनको पता होगा कि बाला साहेब के दो और पुत्र थे, लेकिन किसी को हावी नहीं होने दिया। उन दोनों की तुलना में राज ठाकरे को ही हमेशा तरजीह दी। लेकिन बाला साहेब राज ठाकरे और उद्धव के मूल अंतर को जानते थे। और वही अंतर आज स्पष्ट होता है- राज आक्रामक होकर भी महाराष्ट्र की राजनीति में निरर्थक हैं, जबकि उद्धव सौम्य होकर भी सार्थक हैं। पिछले ढाई साल के मुख्यमंत्री काल की तारीफ करना शिवसेना के धुर विरोधियों के लिए भी जरूरी हो गया है।
उद्धव ने पगलाये संघ-बीजेपी के अश्वमेध घोड़े को जिस तरह से बाड़े के भीतर कैद कर दिया, वह अपने आप में चकित करने वाला है। ये ठीक है शरद पवार उद्धव की सरकार के शिल्पकार रहे, लेकिन उद्धव की सूझबूझ को नजर अंदाज नहीं किया सकता। कोरोना के समय महाराष्ट्र को जिस तरह से संभाला वह दातों तले उंगली दबाने वाला प्रसंग है। उत्तर प्रदेश और दूसरे प्रदेशों में जहां ऑक्सीजन-अस्पताल के लिए हाहाकार था, महाराष्ट्र में सदा स्थिति अंडर कंट्रोल रही।
उसके बाद हिन्दुत्व के मुद्दे पर भी बीजेपी की चांडाल चौकड़ी और राज ठाकरे को जिस तरह से पटकनी दी, उससे धुर विरोधी भी प्रभावित हुये बिना नहीं रह सके । शिवसेना ने साफ शब्दों में कहा कि बीजेपी और शिवसेना के हिन्दुत्व में अंतर है। वो अंतर लाउड स्पीकर वाले मुद्दे पर साफ तौर पर दिखा। राज ठाकरे- संघ और बीजेपी ब्रिगेड के खुलेआम खम ठोंकने के बाद भी मुसलमानों के सामने रत्ती भर भी किसी तरीक़े का भय नहीं आया। राज्य में शिवसेना की सरकार होने के बाद भी सांप्रदायिक सौहार्द बना रहा।
कई राजनीतिक पंडित मानते हैं उद्धव की शिवसेना कमजोर हुई है और उसकी वजह है शिवसेना के मूल गुणधर्म आक्रामकता को कुंद करना। यह सच भी है कि उद्धव ने शिवसेना की नैसर्गिक संरचना में बदलाव किया है। उद्धव ने सत्ता को जागीर समझने के बजाय सत्ता को जनता की सेवा के तौर पर देखा है। भय का माहौल बनाकर जनता को वश में रखने के बजाय शांति और सुरक्षा का माहौल बनाकर जनता को लोकतंत्र की वास्तविक राह पर ले चलने की कोशिश की है।
उद्धव का ये कहना कि आओ और मेरा इस्तीफा राज्यपाल के पास पहुंचाकर मुख्यमंत्री बन जाओ। यहाँ तक कि शिवसेना प्रमुख का पद भी छोड़ने को तैयार हैं, उद्धव ने अमानवीय होती जाती राजनीति में मानवीयता का इंजेक्शन लगाया है। चाल चेहरा और चेहरा का परचम लेकर चलने वाले संघ को आईना दिखाया है। हिन्दू होने का मतलब समझाया है। उद्धव गांधी की राह हैं, ये बेशक बाला साहेब की राह से अलग करता किसी को दिखे, लेकिन मैं मानता हूँ उद्धव ने बाला साहेब के हृदय के अनुकूल रास्ता तय किया है। बाला साहेब बेशक मराठीवाद और हिंदूवाद के मुद्दे पर कट्टर दिखते थे, लेकिन स्वभाव से वह बेहद संवेदनशील और बुद्धिमान थे। मनुष्यता उनके भीतर थी। वे क्षुद्र नहीं थे। उद्धव ठाकरे ने बाला साहेब के अंतर के बाल ठाकरे को साकार किया है।
इसलिए जो इस सवाल से परेशान हैं कि शिवसेना बचेगी या समाप्त हो जाएगी, वे गले में बांध लें कि भविष्य की भारतीय राजनीति इसी रास्ते होकर गुजरेगी। राहुल गांधी और उद्धव ठाकरे दोनों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है।
(पत्रकारिता से अपना करियर शुरू करने वाले धनंजय कुमार मुंबई में स्क्रीन राइटर्स एसोसिएशन के पदाधिकारी हैं।)