गुलाम भारत और आजाद भारत में कोई फर्क नहीं दिखता है रंजन मुण्डा को
(जन को अपना बीता हुआ कल याद तो है, लेकिन बोलने में कठनाई के कारण बहुत कुछ बता नहीं पाते हैं)
विशद कुमार की रिपोर्ट
जनज्वार। गुलाम भारत में पैदा हुए झारखंड के लातेहार जिला अंतर्गत महुआडांड़ प्रखंड के नेतरहाट पंचायत के केराखाड़ गांव के निवासी 80 वर्षीय रंजन मुण्डा को 'गुलाम भारत और आजाद भारत' में कोई फर्क नहीं दिखता है। वे कहते हैं आजादी के पहले मेरा जन्म हुआ लेकिन आजाद भारत में हमें अभी तक कोई सुविधा नहीं मिली है, तो काहे को आजादी!
बताना जरूरी होगा कि 80 साल के रंजन मुण्डा का आजादी के बाद से अभी तक राशन कार्ड नहीं बना है। आजादी के बाद से जनजातीयों, दलितों, पिछड़ों एवं आर्थिक कमजोर तबकों के लिए सरकार द्वारा कई जनाकांक्षी योजनाएं बनती रही हैं, लेकिन किसी भी सरकारी योजना का लाभ रंजन मुण्डा को अभी तक नहीं मिल पाया है। 2008 में वृद्धा पेंशन शुरू हुआ था, जो 2018 में बंद हो गया। वृद्धा पेंशन बंद होने की सबसे बड़ी वजह रही, बैंक एकाउंट का आधार से जोड़ने का क्रम। क्योंकि 2008 के बैंक एकाउंट में रंजन मुण्डा की जन्मतिथि कुछ और थी, जबकि 2016 में बना आधार कार्ड में कुछ और है।
इस बावत एक स्थानीय पत्रकार वसीम अख्तर बताते हैं कि जब आधार कार्ड बन रहा था, तो आपरेटरों द्वारा उसमें सभी लोगों की जन्मतिथि 1 जनवरी ही जोड़ दिया गया, साल भले ही अलग-अलग डाला गया। यही वजह रही कि बैंक में 2016 के पहले खोले गए एकाउंट में दर्ज जन्मतिथि जब बाद में आधार से लिंक हुआ, तो जन्मतिथि में अंतर होने के साथ सरकारी योजनाओं के लाभ से कई लोगों को वंचित होना पड़ा। कुछ लोगों द्वारा भाग-दौड़ करके अपना आधार सुधरवाया गया, जबकि रंजन मुण्डा जैसे लोग इससे आज तक वंचित रह गये हैं।
वसीम बताते हैं कि सबसे दिक्कत वाली बात यह है कि आधार कार्ड में सुधार के लिए महुआडांड़ प्रखंड में कोई सुविधा नहीं है। ऐसे में लोगों को 90 किमी दूर लातेहार जिला मुख्यालय जाना पड़ता है, या बगल के राज्य छत्तीसगढ़ के कुसनी। क्योंकि छत्तीसगढ़ का कुसनी महुआडांड़ से मात्र 45 किमी दूर है।
कहना ना होगा कि भले ही सरकारी जनाकांक्षी योजनाओं में पारदर्शिता लाने और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से आधार से लिंक करने का नियम बनाया गया है, लेकिन सच यह है कि जबसे सरकारी जनाकांक्षी योजनाओंं को आधार से जोड़ने का सिलसिला शुरू हुआ है, तबसे सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों, आदिवासी बहुल क्षेत्रों और जंगल—पहाड़ों पर बसने वालों की परेशानी बढ़ गई है। कहीं नेटवर्क की कठीनाई, तो कहीं आधार में गड़बड़ी के कारण परेशानी बढ़ी है। जिसके लगातार खुलासे होते रहे हैं। भूख से मरने वालों की खबरों में आधार मुख्य कारण रहा है। बावजूद सरकारी स्तर से इसका कोई स्थाई विकल्प तैयार नहीं हो सका है। इतना जरूर हुआ है कि जब भी भूख से मरने की खबर या भूखों मरने की स्थिति की खबर हाई लाइट हुआ है, सरकारी स्तर से त्वरित रूप से प्रभावित या प्रभावित परिवार को कुछ मदद करके अपने कर्तव्यों की औचारिकता पूरी कर ली जाती है। आजादी के 75 वर्षों बाद भी रंजन मुण्डा जैसे लोग हमारी डपोरशंखी व्यवस्था के शिकार हैं।
रंजन मुण्डा की कहानी यह है कि वर्षों पहले उनकी पत्नी दुनिया छोड़कर चली गई। दो लड़के थे, बड़ा लड़का भी काल के गाल में समा गया और छोटा बेटा रोजगार की तलाश में कहीं चला गया तो आजतक उसका कोई अता पता नहीं है। शारीरिक व आर्थिक परेशानी झेलता असहाय वृद्ध रंजन मुण्डा अपनी बहन मुली देवी के घर महुआडांड़ प्रखंड के चंम्पा पंचायत का गनसा गांव चला गया। वैसे बहन मुली देवी की माली स्थिति भी ठीक नहीं है, उसका एक बेटा और बहु हैं। बेटे के दो बच्चे हैं, अत: वह मजदूरी करके अपना और अपनी मां, पत्नी सहित अपने बच्चों का परवरिश करता है। यहां भी जो राशन कार्ड है, उसमें मुली देवी के बेटा व बहु का ही नाम है, अत: इन्हें केवल दो लोगों के अनुपात में चावल मिलता है, जिससे पूरे परिवार का भरण पोषण संभव नहीं हो पाता है।
रंजन को अपना बीता हुआ कल याद तो है, लेकिन बोलने में कठनाई के कारण बहुत कुछ बता नहीं पाते हैं। बावजूद आजाद भारत की व्यवस्था से उन्हें काफी शिकायत है। आजाद भारत की व्यवस्था के शिकार वे तब हुए थे जब वे 25-26 साल के थे। अपने अतीत को याद करते हुए रंजन मुण्डा बताते हैं कि उनकी रिश्तेदारी तत्कालीन मध्यप्रदेश व वर्तमान छत्तीसगढ़ में भी है, अत: जब वे 25-26 साल के थे, तब वे अपने घर नेतरहाट पंचायत के केराखाड़ गांव से अपने रिश्तेदार के लिए 10 सेर चावल लेकर मध्यप्रदेश अंतर्गत बलरामपुर जिला के समरी गांव जा रहे थे।
झारखंड तब बिहार हुआ करता था और समरी गांव बिहार व मध्यप्रदेश की सीमा में था। जैसे रंजन मुण्डा मध्यप्रदेश की सीमा में गए, वहां की पुलिस ने उन्हें यह आरोप लगाते हुए पकड़ लिया कि वे मध्यप्रदेश से चावल की तस्करी कर बिहार ले जाते हैं। इस आरोप के साथ उन्हें अंबिकापुर जेल भेज दिया गया। इस घटना की किसी को जानकारी नहीं थी। अंतत: उन्हें 6 महीने बाद छोड़ दिया गया, तब वे अपने घर आ सके। वे बताते हैं कि इस घटना के लगभग 10 साल बाद किसी मुकदमे में एक परिचित का जमानतदार बने, पुलिस के भय से वह कहीं भाग गया तो पुलिस रंजन मुण्डा को गिरफ्तार कर ले गई, फिर इन्हें तीन महीने तक लातेहार जेल में बिताना पड़ा।