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RSS ने आखिरकार मान ही लिया 2024 जिताने का दम नहीं है मोदी में

Janjwar Desk
10 Jun 2023 8:01 PM IST
RSS ने आखिरकार मान ही लिया 2024 जिताने का दम नहीं है मोदी में
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file photo

भारत के गरीब ही भाजपा को सत्ता से बेदखल करेंगे क्योंकि धीरे-धीरे उनकी समझ में आने लगा है कि उनके जीवन और उनकी आकांक्षाओं के साथ भाजपा की वैचारिकता का कोई सार्थक मेल नहीं है, अगर उन्हें आगे जाना है तो मोदी ब्रांड पॉलिटिक्स उनका सहयात्री नहीं बन सकता....

हेमंत कुमार झा की टिप्पणी

Election 2024 : बहुत चर्चा है "ऑर्गेनाइजर" में छपे उस लेख की, जिसमें कहा गया है कि सिर्फ मोदी और हिंदुत्व के नाम पर इस बार चुनाव जीतना आसान नहीं है।

हालांकि, ऑर्गेनाइजर जो अब कह रहा है, बहुत सारे विश्लेषक यह बात पहले से कहते आ रहे हैं। जाहिर है, मोदी नाम की छाया में एक खास तरह के राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के घालमेल से सत्ता में बने रहने की भाजपा की कोशिशें इस बार भी कामयाब होंगी, इसमें गहरे संदेह हैं।

सवाल यह है कि मोदी और हिंदुत्व अगर भाजपा को चुनावी वैतरणी पार नहीं करवा सके तो और रास्ता क्या है। भाजपा के पास राष्ट्रवाद की शोशेबाजी, हिंदुत्व की जुगाली और योजनाबद्ध तरीके से गढ़ी गई नरेंद्र मोदी की छवि के अलावा और ऐसा है क्या जिसे उल्लेखनीय कहा जा सके?

भाजपा का अपना कोई मौलिक आर्थिक चिंतन नहीं है और बीते 9 वर्षों में उसने नवउदारवादी आर्थिकी के जनविरोधी षड्यंत्रों को सांस्थानिक आधार देने के अलावा और कुछ नहीं किया है।

जिन शक्तियों ने मोदी में 'मेटेरियल' देखा और उनकी छवि को गढ़ कर जनता के सामने रखा, उनके आर्थिक हितों के संपोषण के अलावा मोदी राज के बीते 9 वर्षों में इस देश की आम जनता के कौन से आर्थिक हित साधे गए, इनका कोई माकूल उदाहरण नहीं मिलता।

बावजूद इसके कि मध्य वर्ग मोदी का जयकारा लगाता रहा, वह इन वर्षों में आर्थिक रूप से खोखला होता गया जबकि विपन्न जमातों को मुफ्त के अनाज के सिवा और क्या मिला, यह अनुसंधान का विषय है।

कहा जा रहा है कि मोदी सरकार के "वेलफेयरिज्म" ने जिस लाभार्थी वर्ग को तैयार किया वह भाजपा के लिए एक मजबूत वोट बैंक बन सकता हैं, लेकिन कर्नाटक ने दिखा दिया कि लाभार्थी वर्ग किसी एक पार्टी के प्रति अधिक वफादार नहीं। जिसने कुछ अधिक का लालच दिया, इस वर्ग के अधिकतर लोग उधर ही मुड़ गए।

"वेलफेयरिज्म" एक किस्म का फरेब है जो नव उदारवादी सरकारें विपन्न वर्गों के साथ करती हैं।बजाय इसके कि इस जमात की आमदनी को बढ़ाने के उपाय किए जाएं, उनके साथ आर्थिक न्याय किया जाए, उन्हें मुफ्त में कुछ किलो अनाज और साथ में और कुछ दे कर उनका चुनावी समर्थन पाने की कोशिशें की जाती हैं।

जरा कल्पना करें, भारत सरकार लगभग 81 करोड़ की आबादी को कब तक मुफ्त अनाज दे सकती है? और, कब तक देश की कुल आबादी का यह विशाल तबका इस तरह के अनुग्रहों के सहारे जी सकता है?

मध्य वर्ग पर टैक्स का भारी बोझ लाद लादकर 81 करोड़ लोगों के साथ तथाकथित वेलफेयरिज्म का फरेब अधिक दिनों तक नहीं चल सकता।

बात अगर टैक्स की ही करें तो यह निर्धन वर्ग भी कम टैक्स नहीं देता। वह कुछ भी खरीदता है तो टैक्स देता है, कुछ भी करता है, कहीं भी जाता है तो टैक्स देता है। अपनी औकात से अधिक टैक्स तो वह देता ही है।

जब तक उन 81 करोड़ लोगों को आर्थिक प्रक्रिया की मुख्य धारा में नहीं लाया जाता, जब तक उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के सार्थक कदम नहीं उठाए जाते, तब तक यह सब सिवाय चुनावी फरेब के और कुछ नहीं है।

ऐसा फरेब, जिसका देश की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव तो पड़ता ही है, लाभार्थियों और उनके बच्चों का आर्थिक भविष्य भी धूमिल होता है। भाजपा से यह सीख विपक्ष की पार्टियों ने भी ली है और अब तो हर चुनाव में हर पार्टी मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की घोषणाएं करती हैं। आम आदमी पार्टी से ले कर कांग्रेस तक इसमें पीछे नहीं रह रही।

इसे ही कहते हैं नवउदारवाद का शिकंजा, जो राजनीतिक दलों को वैचारिक रूप से और निर्धन जमातों को आर्थिक रूप से कमजोर करता है।

आम आदमी पार्टी इसका एक जरूरी उदाहरण है जो बिना किसी स्पष्ट वैचारिक आधार के एक राजनीतिक दल के रूप में अस्तित्व में आया और दो दो राज्यों में सरकारें तक बन गईं उसकी। वेलफेयरिज्म और भ्रष्टाचार विरोध के नैरेटिव के अलावा उसके पास और क्या है, यह बताना आसान नहीं।

निर्धनों की शिक्षा पर बड़े पैमाने का निवेश, श्रम कानूनों को मानवीय स्वरूप देना, कंपनियों की मनमानियों पर अंकुश लगाना, न्यूनतम पारिश्रमिक को बाजार मूल्यों के अनुरूप निर्धारित करना आदि जैसे उपाय ही विपन्न लोगों को बेहतरी के रास्ते पर ला सकते हैं।

भाजपा ने अपने 9 वर्षों के राज में यह साबित कर दिया है कि उसके पास कोई ऐसा आर्थिक चिंतन है ही नहीं जो विशाल वंचित आबादी के आर्थिक सरोकारों से तार्किक रूप से निबट सके। बस, मध्य वर्ग पर टैक्स बढ़ाते जाओ, विपन्न जमातों से भी किसी न किसी रास्ते टैक्स की अधिकतम वसूली करते जाओ और कुछ किलो अनाज या इसी तरह की कुछ अन्य सुविधाएं दे कर उनका चुनावी समर्थन पाने की उम्मीदें लगाए रखो।

कांग्रेस सहित विपक्ष की कुछ अन्य पार्टियों ने भी इस रास्ते अपने कदम बढ़ा दिए हैं। चुनावी लाभ पाने का शॉर्टकट जब भाजपा के लिए लाभप्रद हो सकता है तो किसी के लिए भी हो सकता है।

भाजपा के रणनीतिकार चिन्ता में हैं कि "मोदी नाम केवलम" जपते हुए हिंदुत्व के सहारे उसकी चुनावी नैया शायद ही पार लग सके।

लेकिन, उनके पास और है क्या? अटल बिहारी वाजपेयी के समय में अटल जी का नाम था तो राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को लेकर कुछ सपने भी थे।वह भाजपा का उत्कर्ष काल था जो नरेंद्र मोदी के दौर में चरम पर पहुंचा।

अब लोग देख चुके हैं कि भाजपा ब्रांड राष्ट्रवाद क्या है, हिंदुत्व क्या है और यह सब उनके या उनके बाल बच्चों के जीवन को क्या दे सकता है।

बेरोजगारी से त्रस्त करोड़ों युवा भी इन वर्षों में देख चुके हैं कि नीतिगत स्तरों पर रोजगार सृजन में मोदी सरकार किस तरह असफल रही। उल्टे, लाखों सरकारी पदों को या तो खत्म कर दिया गया या बिना नियुक्ति के उन्हें शीत गृह में डाल दिया गया।

लोग समझ चुके हैं कि रोजगार के सपनों का मोदी से कोई अधिक मेल नहीं है। बेरोजगारों की उम्मीदों का टूटना मोदी की छवि पर सबसे बड़ा आघात साबित हुआ। निर्धनों के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।

तभी तो... कर्नाटक में ग्रामीण इलाकों में भाजपा बुरी तरह हारी है क्योंकि ग्रामीण निर्धनों ने उसे इस बार पूरी तरह नकार दिया। एक बड़ा और संपन्न तबका अभी भी भाजपा के व्यामोह में है। इसके अपने समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक कारण हैं, लेकिन निर्धन तबकों में भाजपा के प्रति आकर्षण कम हो रहा है।

इतनी लंबी अवधि तक सत्ता में रह कर मोदी ब्रांड भाजपा बता चुकी है कि उसकी नीतियों में, उसकी सोच में और उसकी नीयत में इस देश की विशाल निर्धन आबादी कहां है। पिछली बार तो पुलवामा और बालाकोट ने माहौल बदलने में भाजपा की बहुत मदद की थी। अपनी राजनीतिक चतुराई से मोदी जी ने जीत की नई इबारत लिख दी थी।

लेकिन, इस बार...न खास तरह का राष्ट्रवाद काम आने वाला है न हिंदुत्व का कोई बड़ा असर होने वाला है।

भाजपा के पास और है क्या?

भारत के गरीब ही भाजपा को सत्ता से बेदखल करेंगे क्योंकि धीरे-धीरे उनकी समझ में आने लगा है कि उनके जीवन और उनकी आकांक्षाओं के साथ भाजपा की वैचारिकता का कोई सार्थक मेल नहीं है। अगर उन्हें आगे जाना है तो मोदी ब्रांड पॉलिटिक्स उनका सहयात्री नहीं बन सकता।

(हेमंत कुमार झा पाटलिपुत्र यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)

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