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यूपी में सपा के टीपू दांव के चक्रव्यूह से बीजेपी तो नहीं पर बसपा बनी महाभारत की अभिमन्यु
लखनऊ। उत्तर प्रदेश में होने जा रहे दस राज्यसभा सीटों पर चुनाव के लिए नामांकन की अधिसूचना आते ही राज्य की सियासत गरमाती जा रही है। पार्टियों के बीच नई नई पैंतरेबाजीयां देखने को मिल रही है। तो कल की समाजवादी पार्टी की टीपू चाल के बाद बसपा के सारे पत्ते पर्दे के सामने आ गए। बहनजी को कहना ही पड़ा कि वह बीजेपी के साथ हैं।
भाजपा के 9 प्रत्याशी उतारने को लेकर उहापोह के बीच आखिरकार 8 प्रत्याशी ही मैदान में उतारे गए हैं। बीजेपी के प्रत्याशी उतारे जाने से पहले बहुजन समाज पार्टी अपना प्रत्याशी मैदान में उतार चुकी थी। दूसरी तरफ बीजेपी का सहयोगी दल अपना दल (एस) एक प्रत्याशी के लिए दबाव बना रहा था, क्योंकि केंद्र की एनडीए सरकार में इस बार अपना दल का कोई मंत्री नहीं बन पाया था।
बीजेपी के एक खेमे की राय तो बन रही थी कि 9 प्रत्याशी मैदान में उतारे जाएं जिसमें नौवां प्रत्याशी अपना दल का हो। लेकिन दूसरे खेमे को ये डर था कि कहीं विधायक जुड़ने के बजाए टूटने लगे तो मिशन 2022 की नींव गलत पड़ जाएगी। इस रणनीति के तहत नौवां प्रत्याशी नहीं उतारा गया और बसपा के गुपचुप समर्थन की रणनीति बनाई गई।
तो विपक्ष की क्षेत्रीय छत्रप समाजवादी पार्टी भी बसपा सुप्रीमो और बीजेपी दोनों को आइना दिखाना चाह रही थी और यह तय हुआ कि चुनाव में एक डमी कैंडिडेट उतारा जाए। सपा की इस रणनीति पर बीजेपी पसोपेश में दिखी, क्योंकि बीजेपी कतई नहीं चाह रही थी कि मतदान की नौबत आए। इस बीच समाजवादी पार्टी ने बहुजन समाज पार्टी में सेंध लगायी और 7 विधायकों को तोड़ लिया।
जोड़-तोड़ की गणित के बावजूद बसपा अपना प्रत्याशी तो बचा ले गई लेकिन वहीं समाजवादी पार्टी भी अपने मिशन में सफल हो गई। मिशन 2022 की रणनीति के लिए सपा ने ऐसा पासा फेंका, जिसमें बीजेपी तो नहीं फंसी, लेकिन बसपा महाभारत की अभिमन्यु हो गई। बीजेपी जिस टूटन से बचने के लिए नौवां प्रत्याशी सामने नहीं लाई वो टूटन बीएसपी में हो गई और बीएसपी सुप्रीमो को खुद ही कहना पड़ा कि एमएलसी चुनाव में वो भाजपा का समर्थन करेंगे।
आगे जनवरी 2021 में एमएलसी चुनाव होने हैं। इसके साथ ही शिक्षक, स्नातक की सीटें भी खाली चल रही हैं, पंचायत चुनाव भी आ रहे हैं। ऐसे में राज्यसभा चुनाव का असर इन सभी चुनावों में शर्तिया तौर पर पड़ेगा और मिशन 2022 की रणनीति के लिए रास्ता भी साफ हो जाएगा। लेकिन अब अखिलेश यादव हों या कांग्रेस दोनों पार्टियां के लिए किसी भी मंच से यह कहना आसान हो जाएगा कि बसपा, भाजपा की सिस्टर कंसर्न है।