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ग्राउंड रिपोर्ट : महाराजगंज के गांवों में रोजी-रोजगार की उम्मीद नहीं, काम पर लौटे पांच गांव के 80 प्रतिशत मजदूर
महाराजगंज से विवेक कुमार की रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश के महाराजगंज जिले की सदर तहसील के सवना गांव के रहने मनोज राजभर एक प्रवासी मजदूर हैं। राजभर जब लाॅकडाउन में घर आए थे उनकी यह सोच थी कि अब यही कोई कामधंधा कर लिया जाएगा, लेकिन उनकी यह सोच चार सालों में कड़वे जमीनी हकीकत की वजह से हवा हो गई। राजभर फिर अपने काम वाली जगह पटियाला लौट गए हैं। रक्षा बंधन तीन दिन बाद वे वहां वापस चले गए। वे वहां जिस कारखाने में काम करते हैं उसके प्रबंधन ने उनके व कुछ और श्रमिकों के खाते में इतने पैसे भेजे जिससे वे वापस काम पर जा सकें।
लाॅकडाउन में कंपनियां बड़े पैमाने पर प्रवासी श्रमिकों के घर चले जाने की वजह से मानव श्रम के संकट से जूझ रही हैं। ऐसे में वे उन प्रवासी श्रमिकों से संपर्क कर रही हैं, जो पहले उनके यहां काम चुके थे। यूपी, बिहार, झारखंड, बंगाल जैसे राज्यों में यह बातें आजकल आम है कि उनका प्रबंधन उनसे काम पर वापस लौट आने की मिन्नतें कर रहा है और इसके लिए टिकट से लेकर अन्य प्रकार के खर्च की राशि भी भेज रहा है। यह स्थिति श्रम शक्ति के महत्व को बताने के साथ ही पूर्वी भारत के गांवों की तसवीर पेश करती है, जो पिछड़ेपन के प्रतीक बन गए हैं।
मनोज राजभर पंजाब के पटियाला के एक साइकिल के कारखाने में काम करते हैं। वह इसी साल फरवरी में छुट्टियां बिताने के लिए गांव आए हुए थे। प्रवासी मजदूर आमतौर पर साल में एक बार अपने घर आते हैं और महीना दो महीना परिवार के साथ बिता कर फिर अपने काम पर वापस चले जाते हैं। फिर करीब एक साल बाद ही आना होता है। जब वे लंबी छुट्टी पर गांव में होते हैं तो कई सारे रुके पड़े काम को निबटा लेते हैं।
मनोज राजभर जब वापस जाने के लिए सोच ही रहे थे कि कोरोना महामारी की वजह से मार्च के आखिरी सप्ताह में लाॅकडाउन की घोषणा हो गई। ऐसे में पिछले छह महीनों तक घर पर बैठे रहे। काम धंधा बंद तो आमदनी भी शून्य हो गई है।
उनके पास थोड़ी-सी जमीन है जिस पर खेती कर परिवार के लिए थोड़ा अन्न हो जाता है। धान की फसल लगाने से पहले सब्जियां बोई हुईं थीं, उसको बेच कर किसी तरह लाकडाउन में खर्चा चला। धान की रोपाई हो गई है तो आमदनी का जरिया खत्म हो गया। गांव में अब तक रुकने का यही बहाना था। उन्होंने वापस काम पर लौटने के वक्त कहा कि अब कुछ पैसा कमा कर अगले साल अप्रैल-मई में ही घर लौटना है।
मनोज की चुनौतियों और लाॅकडाउन की वजह से पैदा हुए आर्थिक संकट को यूं समझिए: कुछ दिनों पहले की बारिश में मकान का एक हिस्सा गिर गया था तो अब उसकी मरम्मत भी करवानी है, एक बच्चे का मुंडन संस्कार करवाना है, पैसे बिल्कुल नहीं हैं। अब अगले साल गांव आने को लेकर उनका संकल्प है: इस बार बार गांव आऊंगा तो यह दोनों काम एक साथ पूरा करूंगा।
मनोज के साथ उसी कारखाने में गांव के चार पांच और लड़के काम करते हैं। कोई बिल्डर है कोई फिटर है कोई इलेक्ट्रीशियन है तो कोई कारपेंटर का काम करता है। मनोज के अलावा और लड़के वापस कारखाने में जा चुके हैं। लाकडाउन की वजह से अब सारे मजदूर गांव की तरफ लौट गए थे तो ऐसे में वहां मजदूरों की भारी कमी हो गई है। कारखाने के सुपरवाइजर ने उनके बैंक खातों में कुछ एडवांस पैसे और किराए का खर्च भेजकर उन्हें वापस काम पर बुलाया।
महाराजगंज के पांच गांवों की एक जैसी कहानी
महाराजगंद सदर तहसील में पड़ने वाले गांवों सवना, तबरेजी, खेम पिपरा, पडरी बुजुर्ग, मुजहना में करीब 500 से 600 प्रवासी श्रमिक लाॅकडाउन में घर वापस आए थे। अब इनमें 80 प्रतिशत काम पर वापस जा चुके हैं। जो गांव में अभी हैं, वे भी अगले कुछ सप्ताह में वापस जाने की सोच रहे हैं। इन गांवों में हर एक गांव में सौ-सवा सौ के करीब प्रवासी वापस लौटे थे।
इन गांवों के श्रमिक पंजाब के औद्योगिक शहरों में, केरल, मुंबई व गुजरात में रहते हैं। पंजाब में काम करने वाले ज्यादातर लोग मैकेनिकल रोजगार से जुड़े हैं, क्योंकि वहां उसका कारोबार काफी अधिक है। मुंबई में रहने वाले लोग कारपेंटर यानी बढई का काम करते हैं। केरल में रहने वाले पेंटिंग, कारपेंटर व अन्य अलग-अलग काम से जुड़े हैं। वहीं, गुजरात में रहने वाले अधिकतर लोग बंदरगाह पर काम करते हैं। वे वहां जहाज पर माल चढाने उतारने सहित अन्य दूसरे काम करते हैं।
सरकारी योजना का हाल बुरा
लाॅकडाउन में लौटे अधिकतर मजदूरों का यह मानना था कि अब अपने गांव में कुछ रोजगार धंधा करेंगे आय कम होगी तो क्या अपने घर परिवार के साथ रहेंगे। कमाई थोड़ी कम हो गई एक रोटी कम खाएंगे लेकिन वापस शहरों में रोजी-रोटी की तलाश में नहीं जाएंगे। सच्चाई बिलकुल इसके उलट है। केंद्र व राज्य ने प्रवासियों के लिए बड़े बजट की जो योजनाएं आरंभ की उसका वास्तविक लाभ जमीन पर नहीं दिख रहा है। गांव में भी रोजगार के इतने साधन नहीं हैं कि सबको काम मिल सके। अगर ऐसा होता तो कोई भी घर परिवार को छोड़कर बाहर क्यों जाता, अपना पेट काटकर शहर में बदतर स्थिति में क्यों रह रहा होता।
गांव में लोगों को रोजगार देने के लिए और पलायन रोकने के लिए सरकार ने 2005 मनरेगा लाया लेकिन इसमें इस कदर भ्रष्टाचार व्याप्त है कि वास्तविक लोगों को समुचित लाभ ही नहीं मिल पाता। ग्राम प्रधान फर्जी उपस्थिति दिखाकर सरकारी राशि वैसे लोगों के खाते में ट्रांसफर करवा रहे हैं, जो इसके तहत काम ही नहीं करते। मनरेगा उपस्थिति पंजिका में बड़े-बड़े घरों की बहू के नाम दर्ज किए गए हैं जो ग्राम प्रधान या उसके रिश्तेदारों के हैं और जिन्होंने कभी खेत खलिहान की शायद शक्ल भी न देखी होगी। आत्मनिर्भर भारत योजना के अंतर्गत ग्रामीणों को दस हज़ार रुपए देकर अपना रोजगार शुरू करवाने की एक योजना आई थी लेकिन ग्राम प्रधान, सेक्रेटरी और पंचायत मित्र की मिलीभगत से वहां भी अनियमितताएं हो रही हैं।
पेशे से वकील आलोक गुप्ता कहते हैं कि फर्जी लोगों का मनरेगा से जाॅब कार्ड बनवाया गया है और वास्तविक जरूरतमंदों का जाॅब कार्ड ही नहीं बनता है। आलोक गुप्ता महाराजगगंज के शिकारपुर गांव के रहने वाले हैं।
मनरेगा के तहत काम कर चुकी एक महिला ने बताया कि उन्होंने 40 दिन काम किया लेकिन उनके खाते में एक रुपया अबतक नहीं आया है। उन्होंने कहा कि इस संबंध में पूछने पर बताया कि दूसरे के खाते में पैसा चला गया, लेकिन हमारा पास दूसरों के खाते में कैसे चले जाएगा। एक अन्य व्यक्ति ने कहा कि दो महीने से ज्यादा हो गए लेकिन उनके मनरेगा के तहत काम का पैसा खाते में नहीं पहुंचा। वहीं, अधिकारियों का कहना है कि सभी संबंधित व्यक्ति के खाते में पैसा भेज दिया गया है, अगर किसी व्यक्ति विशेष के खाते में पैसा नहीं गया है तो उनके खाते में जल्द उपलब्ध करवाया जाएगा। दरअसल, मनरेगा में गड़बड़ी की शिकायतें आम हैं।